Samudra Manthan: कब और कैसे हुआ धन और ऐश्वर्य की देवी मां लक्ष्मी का प्रादुर्भाव?
यह शाश्वत सत्य और प्राकृतिक विधान है जो व्यक्ति धर्मशील कर्मठ और विनम्रता के सिंहासन पर विराजता है उस सत्पुरुष के पास संसार की सारी सम्पत्तियां बिना किसी हेतु के उसकी सेवा के लिए उसी प्रकार तत्पर रहती हैं जैसे सभी नदियां कलकल निनाद करते हुए हर्षोल्लास के साथ स्वतः समुद्र में विलय होने के लिए भागती हुई चली आती हैं जबकि सागर को उनकी कामना नहीं होती है।
आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। समुद्र मंथन में आठवें रत्न के रूप में शोभा और सौंदर्य की निधान भगवती लक्ष्मी जी प्रादुर्भाव हुआ, जिन्हें असुर, देवता, ऋषि आदि सभी चाहते थे, किंतु उन्होंने सब को उपेक्षित करते हुए, अपने चिर आराध्य भगवान विष्णु का स्वतः ही वरण कर लिया। सागर मंथन की प्रक्रिया में लक्ष्मी जी का प्राकट्य आठवें क्रम पर होना, इस तथ्य को दर्शाता है कि अष्टधा प्रकृति (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, और अहंकार) इनका नियमन जिसके अधीनस्थ है, वह परमात्मा ही भगवती लक्ष्मी जी को धारण करने का अधिकारी है। असुर तामसी, देवता राजस और ऋषिगण सात्विक प्रकृति के प्रतीक हैं। परमात्मा प्रकृति से परे हैं, गुणातीत हैं और स्वयं से प्रकाशित हैं, इसलिए भगवती लक्ष्मी जी ने उनका वरण किया।
जो काम, क्रोध, मद, लोभादि के वशीभूत हैं, उन्हें कभी भी चिरलक्ष्मी की प्राप्ति नहीं होती है। लोक में पूर्व प्रारब्ध के प्रभाव से कभी-कभी विषयी पामर जीव भी धनादि से संपन्न दिखाई देते हैं, लेकिन उनका धन-ऐश्वर्य प्रायः नश्वर विषय भोगों में ही भस्मीभूत हो जाता है, वह राष्ट्रहित या परोपकार का हेतु कभी नहीं हो पाता है।यह भी पढें: देह शिवालय, आत्मा महादेव और बुद्धि ही पार्वती हैं
यह शाश्वत सत्य और प्राकृतिक विधान है, जो व्यक्ति धर्मशील, कर्मठ और विनम्रता के सिंहासन पर विराजता है, उस सत्पुरुष के पास संसार की सारी सम्पत्तियां बिना किसी हेतु के उसकी सेवा के लिए उसी प्रकार तत्पर रहती हैं, जैसे सभी नदियां कलकल निनाद करते हुए, हर्षोल्लास के साथ स्वतः समुद्र में विलय होने के लिए भागती हुई चली आती हैं, जबकि सागर को उनकी कामना नहीं होती है।
लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव इस तथ्य को अभिव्यंजित करता है, जब कोई भगवत्प्रेमामृत का रसास्वादन करने करने के लिए प्रयत्नशील होता है, तो लौकिक-पारलौकिक सुख परीक्षार्थ उसे अपनी ओर आकर्षित करने का अथक प्रयास करते हैं, इसलिए साधक को विवेक-विचार से, दृढ़तापूर्वक भगवद्भक्ति में अपना मन लगाना चाहिए, तभी वह भगवत्प्रेम रूपी अमृत का पान कर, अपने जीवन को धन्य-धन्य कर सकेगा।धर्म शास्त्रों में लक्ष्मी जी के आठ स्वरूपों का वर्णन किया गया है- आदि लक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, धैर्य लक्ष्मी, गज लक्ष्मी, संतान लक्ष्मी, विजय लक्ष्मी, विद्या लक्ष्मी और धन लक्ष्मी। भगवती लक्ष्मी जी को असुर, देवता,और ऋषि-मुनि सभी चाहते थे कि वह उन्हें मिल जाएं, लेकिन उन्होंने भगवान श्रीविष्णु को स्वतः पति रूप में वरण कर लिया। इसका तात्पर्य है, समस्त ऐश्वर्य और संपदाएं उस महामानव के पास स्वयं सेवा के लिए पहुंच जाती हैं, जो न्याय और सत्य का पक्षधर तथा परमार्थी होता है।
यह भी पढें: हनुमान जी से सीखें अपनी जीवन-यात्रा के लिए मंगलमय मंत्र भगवान विष्णु सत्य स्वरूप है, सत्य में ही उनका सदा वास है, इसलिए जहां सत्य है, वहीं लक्ष्मी जी का नित्य वास रहता है। आज मानव ने सत्य को पीठ दे दी है, इसलिए वह दुःखी है और दारिद्रय की भवाटवी में भटक रहा है। जब कोई भी यह दृढ़ निश्चय कर लेगा, मैं अब सत्य का परित्याग कभी नहीं करूंगा, उस दिन से उसकी दरिद्रता मिटने लगेगी तथा शनैः शनैः वह सम्पन्नता को वरण कर लेगा। वस्तुतः समुद्र मंथन की यह दिव्य कथा भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक और दार्शनिक तथ्यों के साथ-साथ जीवन और जगत के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने वाली तथा व्यक्ति को सन्मार्ग की ओर ले जाने वाली है।