Samudra Manthan: कब और कैसे हुई वारुणी मदिरा की उत्पत्ति? पढ़ें समुद्र मंथन की पौराणिक कथा
भगवत्कृपामृत का यदि पान करना है तो सबसे पहले मादक वस्तुओं का सेवन छोड़ना ही पड़ेगा। हमारा मन भी समुद्र के समान विशाल है जिसमें भांति-भांति की लहरें उठती रहती हैं। जो कभी नकारात्मक और कभी सकारात्मक रूप से व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। मादकता किसी भी प्रकार की हो वह व्यक्ति को आंखों के रहते हुए भी अंधा और बहरा बना देती है।
आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। समुद्र मंथन के नौवें क्रम में वारुणी नाम की मदिरा निकली, जिसे दैत्यों ने सहर्ष ग्रहण कर लिया। जिसकी जो प्रकृति होती है, वह उसे रुचिकर होती है। देवता और दानव दोनों ही अमृत पान के समुद्देश्य से समुद्र मंथन कर रहे थे और जो भी वस्तुएं उसमें से निकल रही थीं, उसे परस्पर बांट ले रहे थे। संसार में स्वभावतः दो प्रवृत्तियां बलवती होती हैं- दैवी प्रवृत्ति और आसुरी प्रवृत्ति। ये दोनों ही प्राणियों की मनोदशा को दर्शाती हैं।
वारुणी एक प्रकार की मदिरा (मादक द्रव) है, जो जल की विकृति है। मादक पदार्थ चाहे जैसा भी हो, वह शरीर और समाज के लिए बहुत ही घातक होता है। भगवत्कृपामृत का यदि पान करना है, तो सबसे पहले मादक वस्तुओं का सेवन छोड़ना ही पड़ेगा। हमारा मन भी समुद्र के समान विशाल है, जिसमें भांति-भांति की लहरें उठती रहती हैं। जो कभी नकारात्मक और कभी सकारात्मक रूप से व्यक्ति को प्रभावित करती हैं।यह भी पढें: देह शिवालय, आत्मा महादेव और बुद्धि ही पार्वती हैं
मादकता किसी भी प्रकार की हो, वह व्यक्ति को आंखों के रहते हुए भी अंधा और बहरा बना देती है। जैसे- पदांध, धनांध और मदांध। जो लोक में उच्च पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद भी स्वार्थ और अहंकार के वशीभूत होकर कर्तव्यबोध से च्युत होकर न्याय-अन्याय को महत्व नहीं देता है, उसे पदांध कहते हैं। जो धन-ऐश्वर्यादि को पाकर, दीन-हीन और धनहीन व्यक्ति के प्रति घृणित भाव रखता है, उन पर व्यंगात्मक वाग्बाणों का प्रहार करता है, वह धनांध है। जो बल-शक्ति आदि से संपन्न होकर, दूसरों को डराता-धमकाता या उनका शोषण करता है, उसे मदांध कहते हैं। दैत्यों में उपरोक्त कथित तीनों प्रकार का अंधापन था।
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समुद्र मंथन में सर्वप्रथम हलाहल विष निकला और अंत में अमृत। मध्य में अनेकानेक वस्तुएं निकलीं, जो नश्वर जगत की चकाचौंध से प्रभावित थीं। जो मनुष्य संसार के नश्वर भोग पदार्थों में नहीं फंसता है, वही अंत में मोक्ष रूपी अमृतत्व का रसास्वादन कर पाता है, यह विवेक तभी संभव हो सकेगा, जब वह महापुरुषों की सेवा और उनका दुर्लभ सत्संग प्राप्त करेगा। समुद्र मंथन की कथा व्यक्ति को उसके जीवन के मूल समुद्देश्य का बोध कराकर, उसे भगवत्साक्षत्कार रूपी अमृत का मधुर पान कराती है। पृथ्वी पर मानव जीवन तभी सफल माना जाएगा, जब वह संसार के नश्वर भोग पदार्थों की मादकता से स्वयं को बचाकर, सत्कर्मों के द्वारा मोक्ष रूपी अमृतत्व का पान कर ले।