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भक्ति भाव: मंदिर जैसे उपासना स्थल क्यों बनाए जाते हैं?

मंदिर जाने वाले लोग काम क्रोध और आलस जैसी चीज़ों को बाहर छोड़ ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से वहां जाते हैं। यह सामूहिक भक्ति या उपासना शुभ तन्मात्रओं व तरंगों का सृजन करती हैं। यानी मंदिर जाने से दुर्बल मन वाले मनुष्यों में ऊर्जा का संचार होता है।

By Ruhee ParvezEdited By: Updated: Wed, 03 Aug 2022 12:10 PM (IST)
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मंदिर जाने से व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है
नई दिल्ली, ट्विंकल तोमर सिंह। जब ईश्वर का वास हृदय में माना गया है, तो मंदिर जैसे उपासना स्थल क्यों बनाए जाते हैं? मंदिरों की स्थापना के पीछे उद्देश्य था कि पूजा, अर्चना और यज्ञ आदि द्वारा पवित्र तन्मात्रओं यानी पंचभूतों के सूक्ष्म रूप की सृष्टि की जाए। किसी साधु हृदय व्यक्ति को पूजा का कार्यभार सौंपा जाए। स्थान का मन पर अदृश्य प्रभाव पड़ता है। चिकित्सालय में व्यक्ति को हर तरफ रोग और रोगी ही दिखते हैं। स्वस्थ व्यक्ति भी वहां अशक्त महसूस करने लगता है। हमारे शरीर से प्रतिदिन शुभ या अशुभ अदृश्य सूक्ष्म शक्ति-राशि का उत्सर्जन होता रहता है।

मंदिर जाने वाला व्यक्ति काम, क्रोध और आलस्य बाहर छोड़कर ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से जाता है। यह सामूहिक भक्ति या उपासना शुभ तन्मात्रओं व तरंगों का सृजन करती है। अत: यहां आगमन दुर्बल मन वाले मनुष्यों में ऊर्जा का संचार करता है। सज्जनों से ही प्रार्थना स्थलों की पवित्रता बनी रहती है। यदि मंदिर में असाधु व्यक्तियों का आवागमन बढ़ जाए तो स्थान अपनी पवित्रता खोने लगता है।

पवित्र श्रवण मास में शिवलिंग पर दुग्ध, बेलपत्र, फल-फूल आदि चढ़ाकर पुण्य अर्जित करने की होड़ लगी रहती है। यदि ईश्वर है और वह हमारी प्रार्थना से प्रसन्न होता है तो वह एक बेलपत्र, अंजुली भर दूध या एक पुष्प से भी प्रसन्न हो जाएगा। सावन के महीने से इतर भी ये दृश्य आमतौर पर मंदिरों में आम होते हैं। यदि यह व्यवस्था सुचारु न हो तो अव्यवस्था स्वाभाविक है। इसी कारण कई मंदिरों में व्यक्तिगत रूप से भोग-अर्पण की मनाही है।

यदि पूजा स्थल हमें पवित्र बनाता है तो हमारा भी उत्तरदायित्व बनता है कि हम उन्हें पवित्र बनाए रखें। वहां भौतिक कचरा नहीं, अपितु दूषित विचार और दूषित भावनाओं को ही तिलांजलि देकर आएं। ईश्वर अस्वच्छता फैलाने वाले मनुष्य द्वारा अर्पित किया गया कितना ही महंगा भोग क्यों न हो, कितना ही दुर्लभ पुष्प क्यों न हो, वह स्वीकार ही नहीं करते। भगवान तो मात्र भाव के भूखे होते हैं।