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Shardiya Navratri 2024: क्यों की जाती है जगत जननी आदिशक्ति मां दुर्गा की उपासना और क्या है धार्मिक महत्व ?

रामायण में शक्ति-पूजन का उल्लेख महत्वपूर्ण अवसरों पर है। एक सौ आठ कमलपुष्पों के अर्पण की कथा तो शक्ति उपासना का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। महाभारत में शक्ति के स्तवन विराट भीष्म वन इत्यादि पर्वों में तथा हरिवंश में प्राप्त होते हैं। मार्कण्डेय पुराण में देवी-महात्म्य के अंतर्गत वर्णित 700 श्लोकों को दुर्गासप्तशती के रूप में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है।

By Jagran News Edited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 06 Oct 2024 12:06 AM (IST)
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Shardiya Navratri 2024: कौन हैं सप्तमातृकाएं ?
डा. सच्चिदानंद जोशी (इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव)। भारतीय संस्कृति में शक्ति-उपासना का सर्वोच्च स्थान रहा है। शक्ति की प्रारंभिक प्रतिमाएं जैसे आदिमाता, महीमाता, मातृदेवी आदि भारत और भारत से जुड़े अन्य देशों जैसे बलूचिस्तान, ईरान, मेसोपोटामिया, एशिया-माइनर, बाल्कन देश, सीरिया, फिलिस्तीन तथा मिस्त्र आदि से प्राप्त हुई हैं। शक्ति की उपासना सिंधु घाटी से लेकर नील घाटी तक फैली हुई थी। भारतीय संस्कृति एवं परंपरा में मातृशक्ति पर व्यापक रूप से विमर्श हुआ है।

उपासना के साथ-साथ प्रतिमा या शिल्प कला का भी विकास हुआ है। सामान्यतः इसकी चर्चा कम होती है, लेकिन चर्चा आवश्यक है। उपासना की प्राचीन परंपरा भारतीय साहित्य में मातृशक्ति उपासना का विस्तृत स्वरूप हमें ऋग्वेद के अंतर्गत श्रीसूक्त के रूप में प्राप्त होता है। वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा अपने ग्रंथ ‘भारतीय कला’ में श्रीसूक्त से संबंध स्पष्ट करते हुए शिशुनाग-नन्द युगीन मातृदेवियों से जुड़ी प्राचीन चक्रियों का उल्लेख किया गया है।

दुर्गासप्तशती

देवमाता अदिति, उषा, पृथिवी, वाक् यमी आदि का उल्लेख वैदिक साहित्य और तत्कालीन समाज में प्रचलित शक्ति की उपासना परंपरा का संकेत करता है। इसी क्रम में, औपनिषदिक ग्रंथों में काली-कराली (मुण्डकोपनिषद्), उमा-हैमवती (केनोपनिषद्) आदि का वर्णन किया गया है। भद्रकाली, भवानी, दुर्गा इत्यादि देवियों के नाम सांख्यायन, हिरण्यकेशी गृहसूत्र तथा तैत्तिरीय आरण्यक जैसे वैदिक ग्रंथों में मिलते हैं।

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रामायण में शक्ति-पूजन का उल्लेख महत्वपूर्ण अवसरों पर है। एक सौ आठ कमलपुष्पों के अर्पण की कथा तो शक्ति उपासना का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। महाभारत में शक्ति के स्तवन विराट, भीष्म, वन इत्यादि पर्वों में तथा हरिवंश में प्राप्त होते हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी में भवानी, शर्वाणी, रुद्राणी तथा मृडाणी का उल्लेख मिलता है। मार्कण्डेय पुराण में देवी-महात्म्य (अध्याय 81-93) के अंतर्गत वर्णित 700 श्लोकों को दुर्गासप्तशती के रूप में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है।

इसके 13 अध्यायों में शक्ति की स्तुति बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, शांति, लज्जा, जाति, श्रद्धा, कांति, लक्ष्मी, स्मृति, दया, तुष्टि, मातृ आदि के रूप में की गयी है। मुद्राओं पर शक्ति अंकनप्राचीन भारत के कई सिक्कों पर लक्ष्मी के कई प्रकार से दर्शन होते हैं। इन्हें श्री, लक्ष्मी, गजलक्ष्मी आदि कई रूपों में पहचाना गया है।

पंचाल क्षेत्र में भद्रघोष की मुद्राओं पर बनी कमल धारिणी देवी उस समय की परिपाटी के अनुसार भद्रा या लक्ष्मी होनी चाहिए। इसी प्रकार, कुणिन्दों की मुद्राएं एक ऐसी देवी-प्रतिमा से सुशोभित हैं, जिनके पास मृग है। कुछ विद्वानों द्वारा इसे भी लक्ष्मी माना गया है, पर यह शिवपत्नी पार्वती अथवा दुर्गा का रूप भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त शककालीन, कुषाणकालीन, गुप्तकालीन मुद्राओं पर भी देवियों के चिन्ह अंकित हैं।

विशेषतः गुप्तकालीन मुद्राओं पर कमलासना लक्ष्मी एवं सिंहवाहिनी दुर्गा की सुंदर आकृतियां मिलती हैं, जो भारतीय संस्कृति में शक्ति उपासना का उत्कृष्ट प्रतिरूप मानी जा सकती हैं। बसाढ़ तथा भीटा से प्राप्त गुप्तकालीन मुहरों पर श्री अथवा लक्ष्मी के अनेक रूप मिलते हैं, जैसे गजलक्ष्मी, पात्र से धनवृष्टि करने वाले यक्षों के साथ लक्ष्मी, नौका पर आरुढ़ लक्ष्मी इत्यादि।

राजघाट (वाराणसी) से प्राप्त एक मुहर पर ‘दुर्गः’ नाम से अंकित एक देवी की आकृति बनी है, जिसकी दाहिनी और अधोमुख सर्प है। देवी द्विभुजा है, जिनके बायें हाथ में माला तथा दाहिने में चार नोकों वाली कोई वस्तु है। महिषासुरमर्दिनी का विशेष स्थान महिषासुरमर्दिनी का रूप शिल्प कला में विशेष स्थान रखता है। यह छवि देवी दुर्गा के मंदिरों में भारत के सभी क्षेत्रों मे पाई जाती है। चौथी से छठवीं शताब्दी में गुफाओं में दीवारों पर इस प्रतिमा को उत्कीर्ण किये जाने के साक्ष्य हैं। इस संदर्भ में उदयगिरि की गुफाओं में प्राप्त प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है।

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दक्षिण भारत में चालुक्य, पल्लव और चोल काल में मंदिरों की बाहरी दीवारों पर ऐसी सुंदर मूर्तियां देखने को मिल जाती हैं। पल्लव काल (छठी से नवीं शताब्दी ई.) में महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियां महाबलीपुरम् की महिषासुरमर्दिनी मंडप गुफा , सलुवंकुप्पम की टाइगर गुफा आदि शैल निर्मित मंदिरों में देखने को मिलती हैं। चालुक्य काल (छठी से 12वीं शताब्दी ई.) में भारतीय शिल्पकला का अद्वितीय विकास हुआ।

महिषासुर मर्दिनी की मूर्तियां इस काल की सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक कलाकृतियों में से एक हैं। इस काल में बादामी के गुफा मंदिरों में, विशेषकर गुफा संख्या 3 और 4 में, महिषासुरमर्दिनी के चित्रों को दीवारों पर उकेरा गया है। ऐहोल और पट्टदकल (जो चालुक्य काल के प्रमुख मंदिर निर्माण केंद्र थे) में महिषासुरमर्दिनी की विभिन्न मुद्राओं का चित्रण देखा जा सकता है। देवी की चोलकालिक (नवीं से 13वीं शताब्दी ई.) प्रतिमाएं पत्थर के साथ-साथ कांस्य में भी प्राप्त होती हैं।

यह तंजावर के बृहदीश्वर मंदिर, गंगैकोन्ड़ाचोलपुरम्, इन्नम्पुर, मरक्कणम् आदि स्थानों के मंदिरों में देखने मिलती हैं। भारत के अन्य क्षेत्रों में भी महिषासुरमर्दिनी की मूर्तिकला का विकास हुआ है, जिनमें ओडिशा, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।परंपरा के अनुरूप हों प्रतिमाएं भारत में प्राचीन काल से ही शिल्प एवं अन्य कलाओं के माध्यम से मातृशक्ति का स्तवन किया जाता रहा है।

51 शक्तिपीठ

कालक्रम में विभिन्न वंशों एवं शासकों द्वारा शक्ति के विविध स्वरुपों की स्तुति एवं प्रस्तुति शिल्प कला के द्वारा की गई। इनमें लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, महिषासुरमर्दिनी, नवदुर्गा, वसुधारा, दशमहाविद्धाएं, माताएं एवं सप्त मातृकाएं, षण्मुखी अथवा षष्ठी, स्कंदमाता, सिंहवाहिनी, इंद्राणी, गंगा-यमुना, योगिनी इत्यादि प्रमुख हैं। प्रतिमाओं का ये विमर्श भारतीय कलाओं की समृद्धि, रचनात्मकता एवं आध्यत्मिकता का उद्घोष है। आज भी देवी उपासना और देवी प्रतिमाओं की रचना पूरे उत्साह और मनोयोग से की जाती है। लेकिन हमारे उत्साह का अतिरेक और रचनाकर्म की प्रायोगिकता कभी कभी देवी प्रतिमा के रूप और मान्यता के साथ अन्याय कर देती है। कुछ समय पहले से ऐसा प्रयोग श्री गणेश प्रतिमाओं के साथ हो रहा था और उन्हें विभिन्न आधुनिक रूपों में प्रस्तुत किया जा रहा था। ऐसा ही प्रयोग कहीं-कहीं देवी प्रतिमाओं के साथ भी किया जा रहा है।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय शास्त्र में किसी भी प्रतिमा की रचना करने का विधान है, शास्त्र है। उसके अनुसार प्रतिमा की रचना करने पर ही वह पूज्य और आराध्य होती है। इसलिये श्रद्धालुओं का यह दायित्व भी है कि वे ऐसी प्रतिमाओं को स्वीकारें जो हमारी शास्त्र परंपरा के अनुरूप हों! जय भवानीऐसे अनेक उदाहरण हमारे इतिहास में मिल जायेंगे जहां तत्कालीन शासकों द्वारा देवी की आराधना उपासना की गयी एवं श्रेष्ठतम प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। भारत के विभिन्न कोनों में विस्तीर्ण 51 शक्तिपीठों की प्रतिमाओं का अपना इतिहास है। कुछ मंदिरों में यह प्रतिमाएं अपने विशिष्ट शिल्प की भव्यता के कारण भी जानी जाती है। तुलजापुर की भवानी प्रतिमा  जिसकी उपासना छत्रपति शिवाजी महाराज किया करते थे, इसका अनुपम उदाहरण है!

पुरातात्विक साक्ष्यों में सप्तमातृकाएं

सप्तमातृकाएं सनातन धर्म के प्रमुख देवताओं की मूर्त शक्तियां हैं। राक्षसों के संहार में देवी दुर्गा की सहायता करना इन सप्त देवियों की प्रकृति है। भारतीय संस्कृति में सप्तमातृका की प्रत्येक देवी भगवान की शक्तिस्वरुपा है, जैसे - ब्रह्माणी (ब्रहमा की शक्ति), माहेश्वरी (शिव की शक्ति), कौमारी (कुमार की शक्ति), वैष्णवी (विष्णु की शक्ति), वाराही (वराह की शक्ति), इंद्राणी (इंद्र की शक्ति) और चामुंडा या यमी। मातृकाओं को मूल देवी के साथ सात माताओं के समूह में चित्रित किया जाता है और इसी तरह सप्तमातृकाओं का अंकन एवं मूर्तियां भारत के विभिन्न मंदिरों में प्राप्त होती हैं।

हमारे यहां धार्मिक अनुष्ठानों में सप्तमातृका आह्वान एवं पूजन विशेष महत्व रखता है। मातृकायें वैदिक काल और सिंधु घाटी सभ्यता से ही अस्तित्व में थी। सात स्त्री देवताओं की मुहरों को सिद्धांत के प्रमाण के रूप में उद्धृत किया गया है। ऋग्वेद में भी सात माताओं के एक समूह की बात आती है, जो सोम की तैयारी को नियंत्रित करती हैं। सिंधु-सरस्वती सभ्यता काल की एक मुद्रा में सात मातृकाओं को एक वृक्ष के साथ दर्शाया गया है।