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गधों से नहीं वास्‍ता, फिर भी आगरा में बन गया 'गधा पाड़ा', मुगलाेें ने इलाके का इसलिए रखा ये नाम

वाटरवर्क्स से जीवनी मंडी के रास्ते पर एक जगह नजर ठिठक जाती है। यहां लिखा गधापाड़ा देख एकबारगी आप ठिठक जाएंगे। इस स्थान का नाम ही गधापाड़ा है। हालांकि अब यहां दूर-दूर तक गधे दिखाई नहीं देते। यहां इससे जुड़ा कोई कारोबार भी नहीं होता।

By Prateek GuptaEdited By: Updated: Fri, 01 Jan 2021 04:41 PM (IST)
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आगरा में मुगलकाल में मालगोदाम रोड को गधा पाड़ा का नाम दिया गया था।
आगरा, जागरण संवाददाता। अक्‍सर यदि कोई व्‍यक्ति काम ठीक से नहीं करता तो उसे 'गधे' की उपाधि से अलंकृत कर दिया जाता है। लोग हास-परिहास में इस शब्‍द का प्रयोग करते हैं। लेकिन आगरा में यमुना किनारे घूमते हुए एक नाम आपको चौंका देगा। वाटर वर्क्स से जीवनी मंडी के रास्ते पर एक जगह नजर ठिठक जाती है। यहां लिखा गधापाड़ा देख एकबारगी आप ठिठक जाएंगे। इस स्थान का नाम ही गधापाड़ा है। हालांकि अब यहां दूर-दूर तक गधे दिखाई नहीं देते। यहां इससे जुड़ा कोई कारोबार भी नहीं होता। यह नाम कब पड़ा इसका कोई लिखित दस्तावेज तो नहीं है। मगर, यह कोई आम मुहल्ला नहीं है। इसका अपना एक इतिहास है जो मुगलकाल से जुड़ता है।

मशहूर उपन्यासकार कृष्‍ण चंदर ने गधों की महिमा पर तीन उपन्यास लिखे। गधों ने उन्हें खूब मशहूर किया। कवि भवानी प्रसाद मिश्र की मैं गंवार हूं और गधा हूं कविता खूब चर्चा में रही और व्यंग्य कवि प्रदीप चौबे के गधे मंच को खूब गुदगुदाते रहे। मगर, आगरे का यह गधापाड़ा कुछ जुदा है। यह मेहनतकशों के पसीने से रची बस्ती है जो गधों के नाम पर इतिहास में दर्ज हो गई। दरअसल, आज जहां गधापाड़ा है वहां ब्रिटिश काल में रेलवे का मालगोदाम था। पास में ही जोंस की मिलें थीं। मालगोदाम अब यमुना ब्रिज रेलवे स्टेशन के पास पहुंच गया है। उस समय यमुना में बड़ी बड़ी नावें चलती थीं। इनमें दिल्ली से कोयला आता था। इसे ढोने के लिए आसपास गधे पालने वाले रहते थे।

इस स्थान से माल ढुलाई और गधे पालने का संबंध मुगल काल से भी जुड़ता है। इतिहासकार राजकिशोर राजे अपनी पुस्तक तवारीख-ए-आगरा में लिखते हैं कि मुगलकाल में सड़क मार्ग के साथ ही यमुना में जलमार्ग से भी व्यापार होता था। नदी से एक कैनाल निकली थी। नावों के जरिए यमुना से माल लाया ले जाया जाता था। इसके लिए गधे पालने वाले लोग बड़ी संख्या में यहां रहते थे। धीरे-धीरे इस स्थान का नाम गधापाड़ा पड़ गया। 1868 में जब यहां मालगोदाम बनाया गया तो नाम हो गया मालगोदाम गधापाड़ा। मोहम्मद हुसैन आजाद की पुस्तक अकबरी दरबार में जिक्र है िक अकबर के समय यमुना नदी की चौड़ाई और गहराई बहुत अधिक थी। इससे जल परिवहन खूब होता था।

गधापाड़ा के निवासी महावीर कहते हैं कि जब से पैदा हुए यही नाम सुनते आए हैं। पत्र व्यवहार भी इसी पते से होते हैं। बुजुर्ग रामकुमार का कहना है कि वह बाप-दादा से भी इसी नाम को सुनते आए हैं। कहते थे कि कभी यहां पहले बड़ी संख्या में गधे पालने वाले रहते थे। आज यह मुहल्‍ला प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र है। यह व्यापारियों का गढ़ है। आसपास बेलनगंज, फ्रीगंज में आज भी बड़े-बड़े गोदाम हैं। गधापाड़ा में गधे तो नहीं रहते अलबत्ता मेहनतकशों की मौजूदगी है। यहां कई पीढ़ी से जाटव बिरादरी के लोग चेन-कुप्पी का काम करते हैं। ट्रकों से आने जाने वाले सामान की लोड़िंग-अनलोडिंग का काम भी यही लोग करते हैं।

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