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धवल चांदनी और कृष्ण का गोपियों संग महारास, जानें शरद पूर्णिमा का दिलचस्प इतिहास

गोपियों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए जितनी गोपियां उतने गोविंद रूप में किया था महारास। गोवर्धन का परासौली बना था महालीला का गवाह।

By Prateek GuptaEdited By: Updated: Fri, 19 Oct 2018 12:31 PM (IST)
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धवल चांदनी और कृष्ण का गोपियों संग महारास, जानें शरद पूर्णिमा का दिलचस्प इतिहास
आगरा [रसिक शर्मा]: श्रीकृष्ण चिदानंदघन दिव्य शरीर हैं। गोपियां दिव्य जगत में भगवान की अंतरंग शक्तियां हैं। लीला इनके लिए भावभूमि है। श्रीकृष्ण ने गोपियों की मनोदशा भांपकर शरद पूर्णिमा पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चंद्रमा की धवल चांदनी में महारास का निश्चय किया। मुरली के सुरीले सुर निकले तो गोपियां सब कुछ छोड़कर गोवर्धन के परसौली के हरे-भरे जंगल में दौड़ीं चली आईं। अपने आराध्य के सानिध्य में रसमयी रासक्रीड़ा करने लगीं। मगर, हर गोपी तो अपने प्रभु को सिर्फ और सिर्फ अपने सामीप्य ही चाहती थी। सो, हर गोपी की इच्छा के अनुरूप जितनी गोपियां, उतने ही कान्हा ने रूप धर लिए। आनंदकंद भगवान ने मंडलाकार स्थिति में रासलीला प्रारंभ की। सुखद अनुभूति की पराकाष्ठा ही थी कि चलायमान चंद्रमा भी महारास के लिए छह माह तक ठहर गया।

ब्रजभूमि बन गई राधा कृष्ण के प्रेम की भूमि

ब्रजभूमि यानि राधाकृष्ण के प्रेम की परिभाषा। यूं तो प्रेम को शब्दों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता, बस इसके अहसास को छूने का प्रयास किया जाता है। ब्रज का इतिहास प्रेम के रंग से सराबोर है। महारास प्रेम का उच्चतम और पवित्र शिखर है, जहां कई आत्माओं के एक दूसरे में समाहित होकर भी कामदेव विजय प्राप्त नहीं कर सके। दिव्य स्थलों से सजी ब्रज वसुंधरा का हिस्सा परासौली वही पवित्र भूमि है, जहां सारस्वत कल्प में भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ छह महीने की रात्रि का निर्माण कर महारास रचाया। गोवर्धन से भरतपुर मार्ग पर दो किमी दूर स्थित परासौली महारास स्थली के साथ ही महाकवि सूरदास की साधना स्थली के रूप में भी विख्यात है। भागवत किंकर गोपाल प्रसाद उपाध्याय के अनुसार, ब्रज की प्रत्येक गोपी कन्हैया का सामीप्य पाने की चाहत रखती हैं। भक्तों की प्रत्येक अभिलाषा पूर्ण करने वाले भक्त वत्सल भगवान रास बिहारी ने उनकी मनोदशा समझकर सभी गोपियों को वांसुरी की मधुर तान छेड़कर परासौली में एकत्रित किया।

जितनी गोपियां उतने गोविंद

वांसुरी की धुन गोपियों को इतना झंकृत कर दिया कि वे घर-बार त्याग कर रासमंडल में टेढ़ी टांग पर खड़े कान्हा के पास पहुंच गईं। प्रत्येक गोपी की इच्छा थी कि शरद पूर्णिमा पर धवल चादनी में श्याम सुंदर सिर्फ उसके साथ नृत्य करें। श्रीमद भागवतजी के दशम स्कंध के 29 से 33वें अध्याय तक वर्णित रास पंचाध्यायी में प्रसंग आता है कि रास मंडल में श्रीकृष्ण गोपियों को दस श्लोक में वेद मर्यादा का उपदेश देते हैं। तो, गोपियां अपने प्रेम को परिभाषित करने के लिए ग्यारह श्लोक में श्रीकृष्ण की बात को खंडन कर रास प्रारम्भ करने का आग्रह करती हैं। श्रीकृष्ण रास प्रारम्भ करते हैं। एक रूप में गोपियों की इच्छा पूर्ण न होते देख गोविंद ने गोपियों की गिनती के अनुसार ही अनेक रूप धारण किए और सभी गोपियों को अपने सामीप्य का अहसास कराया। महारास की यही खास बात है कि जितनी गोपियां, उतने कन्हैया के नृत्य करते हुए दर्शन होते हैं।

गोपियों के सौभाग्य के अहंकार को इस तरह किया था दूर

रास के समय उन्मुक्त गोपियों को अपने वस्त्र और आभूषण की सुध नहीं रही तो कन्हैया कभी किसी गोपी को ओढनी उड़ाते तो किसी की पायल बांधते। यह देख गोपियों को सौभाग्य का अहंकार आ गया। अहंकार चूर करने के लिए श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के साथ अंतध्र्यान हो गए। गोपियां उस विरह की अवस्था में मृतप्राय: सी हो गईं। पागल की तरह कन्हैया को खोजने लगीं। पेड़-पौधों से तो कभी जीव-जंतुओं से कान्हा का पता पूछतीं। खोजते समय उन्हें राधारानी मिल गईं। राधारानी के समझाने पर गोपियों ने राधारानी के साथ कन्हैया को दुबारा बुलाने की अभिलाषा से यमुनाजी के किनारे गीत गाया। जो भक्ति के क्षेत्र में गोपी गीत के नाम से जाना जाता है। यह गीत श्रीमदभागवतजी के दशम स्कंध के 31वें अध्याय में है। गीत गाने के बाद भी कन्हैया नहीं आए तो गोपियां बिलखने लगीं। रास बिहारी से गोपियों की यह अवस्था देखी नहीं गई। दुबारा आकर जल रास, वन रास, स्थल रास किया। महारास कोई साधारण लीला नहीं विद्वजन इसको काम विजय लीला के नाम से भी परिभाषित करते हैं। कथा के अनुसार, कामदेव भरसक प्रयास करने के बाद भी गोपियों से घिरे श्रीकृष्ण के मन को चलायमान नहीं कर सके।

ठहर गए थे चंद्रदेव, द्रवित रस से बना चंद्र सरोवर

महारास के दौरान भगवान श्रीकृष्ण की आभा ने तीनों लोकों को मुग्ध कर दिया। भागवत किंकर गोपाल प्रसाद उपाध्याय ने श्रीमद भागवत का उल्लेख करते हुए बताया कि महारास की दिव्यता को देखकर समय ठहर गया। चंद्रमा भी अपने स्थान को नहीं छोड़ पाए। रात्रि ढलने का नाम नहीं ले रही थी। छह महीने तक चंद्रमा अपने स्थान से एकटक महारास को निहारते रहे। चंद्रमा के द्रवित रस से ही परासौली में चंद्र सरोवर का निर्माण हो गया। वाराह पुराण में परसौली का परस्पर वन नाम उल्लिखित है। गर्ग संहिता में चंद्र सरोवर का विशेष महात्म्य बताया गया है।

गोपी बन शिव ने देखा महारास

भगवान श्रीकृष्ण के महारास को देखने भगवान शिव भी यहां आए, लेकिन पुरुष होने की वजह से गोपियों ने भगवान शिव को दरवाजे से यह कहकर लौटा दिया कि महारास में सिर्फ गोपियां ही सम्मिलित हो सकती हैं। भगवान शिव बड़े व्याकुल हुए और इस अदभुत पल को देखने के लिए उन्होंने सखी का रूप धारण कर पहुंच गए। भगवान शिव का यही रूप गोपेश्वर कहलाया।

देखो तो, बलदाऊ खड़े हैं

कान्हा से बड़े होने के कारण बलभद्र महारास में शामिल हो नहीं सकते थे। सो, गोवर्धन पर्वत पर खड़े होकर महारास का दर्शन करने लगे। इसी दौरान किसी गोपी की नजर पड़ी और उसने आवाज लगाई- देखो तो, बलदाऊ खड़े हैं। गोपियां जैसे ही देखने लगीं तो बलदाऊ शेर का स्वरूप धारण कर बैठ गए। सभी भ्रम समझ कर फिर महारास सुचारु हो गया। यह भी मान्यता है कि नारद जी भी गोपी बनकर लीला में प्रवेश कर गए।  

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