Akbar Allahabadi Birth Anniversary: प्रयागराज में जन्मे उर्दू के प्रख्यात शायर ने शायरी की आज भी प्रासंगिकता है
Akbar Allahabadi Birth Anniversary अकबर इलाहाबादी की शायरी से पहले उर्दू शायरी का जो रूप बना है उसमें शराबो-शबाब और राजाओं की जी-हुजूरी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उर्दू शायरी की इस मिथक को अकबर इलाहाबादी ने सबसे पहले तोड़ा।
By Brijesh SrivastavaEdited By: Updated: Tue, 16 Nov 2021 09:15 AM (IST)
प्रयागराज, जागरण संवाददाता। हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती। तेवर से भरी उक्त पंक्तियां उर्दू के प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी की हैं। सामाजिक कुरीतियों पर शायरी के जरिये कटाक्ष करते हुए लिखी गई अकबर की इन पंक्तियों की प्रासंगिकता आज भी कायम है। हर किसी की जुबां पर होती। अकबर इलाहाबादी ने अपनी शायरी के दम पर कई तंज कसे हैं। तंजो-मिजाह शायरी में अकबर इलाहाबादी का मुकाम सरे-फेहरिस्त है।
अकबर इलाहाबादी ने इस मिथक को तोडा अकबर इलाहाबादी की शायरी से पहले उर्दू शायरी का जो रूप बना है, उसमें शराबो-शबाब और राजाओं की जी-हुजूरी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। बल्कि बिना किसी विवाद के कहा जाता रहा है कि उर्दू शायरी इश्को-माशूक के आसपास ही घूमती नजर आती है। उर्दू शायरी की इस मिथक को अकबर इलाहाबादी ने सबसे पहले तोड़ा। सिफर तोड़ा ही नहीं बल्कि राजाओं के दरबारों में उपस्थित होकर उनका गुणगान करने वाले शायरों की शायरी के समक्ष नजीर पेश किया। अंग्रेजों की हुकूमत में न्यायालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग में नौकरी करते हुए अंग्रेजों की बखिया उधेड़ कर रख दी।
उर्दू का कोई दूसरा शायर वहां तक नहीं पहुंच सका : इम्तियाज अहमद गाजी साहित्यकार इम्तियाज अहमद गाजी कहते हैं कि तंजो-मिजाह की कसौटी पर आज अकबर इलाहाबादी की शायरी जहां खड़ी दिखाई देती है, वहां आजतक उर्दू का कोई दूसरा शायर नहीं पहुंच सका है। उनका मशहूर शेर है 'बेपर्दा नजर आयीं जो कल चंद बीवियां, अकबर जमीं पे गैरते कौमी से गड़ गया। पूछा जो उसने आपका बर्दा वो क्या हुआ, कहने लगीं कि अक्ल पे मर्दों के पड़ गया।'
इलाहाबाद के बारा कस्बे में हुआ था इस महान शायर का जन्म 16 नवंबर 1846 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के बारा कस्बे में जन्मे अकबर के पिता सैयद तफज्जुल हुसैन उन्हें व्याकरण और गणित की पढ़ाई में आगे बढ़ाना चाहते थे। हालांकि 14 वर्ष की उम्र में अकबर को अंग्रेजी पढऩे का शौक जागा। उन दिनों अरबी, फारसी जानने वालों की खासी तादाद थी, लेकिन अंग्रेजी जानने और पढऩे वालों की संख्या नाम मात्र की ही थी। उन्होंने 1867 में वकालत की परीक्षा पास की, इसके दो वर्ष बाद ही वे नायब तहसीलदार हो गए। 1881 में उन्हें मुंसिफ का पद मिला। उनकी योग्यता और ईमानदारी को देखकर सरकार काफी प्रभावित हुई। वह 1888 में सदर उल सदूर पद पर नियुक्त कर दिए गए। 1892 में अदालत खफीफा के जज नियुक्त हुए और 1894 में डिस्टिृक्ट सेशन जज तक का सफर तय किया। 1898 में सरकार ने उन्हें 'खान बहादुर' की पदवी से नवाजा।
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी शायरी के माध्यम से मुखालफत कीनौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद 1910 में उनकी पत्नी का निधन हो गया और इसके कुछ ही दिनों बाद उनका जवान बेटा हाशिम भी इस दुनिया से रुखसत हो गया। पत्नी और बेटे की मौत का दुख उन्होंने धैयपूर्वक सहन किया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी शायरी के माध्यम से जोरदार मुखालफत की। नौ सितंबर 1921 को उनका निधन हो गया। निधन के पहले उन्होंने उर्दू साहित्य के लिए जो अशआर दिया है, उस तरह की बानगी और कहीं देखने को नहीं मिलती। अंग्रेजों की देखा-देखी भारतीय मुसलमान भी दाढ़ी और मूंछ साफ करवाने लगे, आज यह आम बात जरूर हो गई है, मगर उन दिनों यह चर्चा का विषय बना। अलीगढ़ में मुसलमानों में सबसे पहले अब्दुल गफूर खान ने दाढ़ी साफ कराई। एक बार अकबर ने गफूर को दोस्तों के बीच बैठा पाया। बोले 'देख अब्दुल गफूर खां की तरफ, मर्दे खुशहाल इसको कहते हैं। बाल अबरु का यां सफाया है, फारिग-उल-बाल इसको कहते हैं।' 'फारिग-उल-बाल' शब्द खासतौर पर ध्यान देने योग्य है। उर्दू मुहावरे में फारिग-उल-बाल उस मनुष्य को कहते हैं, जिसे किसी प्रकार की फिक्र न हो। लेकिन फारिग-उल-बाल का लफ्जी मायने यह होता है कि जिसके बाल न हों।
भुला दिए गए अकबर इलाहाबादी मनमोहन सिंह तन्हा कहते हैं कि अकबर की जन्मतिथि और पुण्य तिथि पर ठीक ढ़ंग से उन्हें याद करने वाला भी कोई नहीं है। आज तक किसी सरकारी या गैर सरकारी संस्था ने उनके नाम पर कोई काम ठीक ढंग से नहीं किया। इलाहाबाद के हिम्मतगंज काला डांडा कब्रिस्तान में स्थित उनकी कब्र पर और उसके आसपास बच्चे खेलते हुए अक्सर ही नजर आ जाते हैं। सिर्फ कुछ साहित्यकारों को ही पता है कि यहां अकबर इलाहाबादी की कब्र है। इलाहाबाद के कोतवाली के निकट स्थित यादगारे हुसैनी इंटर कालेज ही अकबर इलाहाबादी का असली घर है। अकबर का परिवार पाकिस्तान चला गया था।
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