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Akbar Allahabadi Death Anniversary: अंग्रेजियत के खिलाफ की तंज-व्यंग्य की शायरी और तोड़ा था मिथक

Akbar Allahabadi Death Anniversary शायर इम्तियाज अहमद गाजी कहते हैं कि सरकार ने अकबर इलाहाबादी को भुला दिया है। यही कारण है कि उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर याद करने वाला कोई नहीं है। प्रयागराज के हिम्मतगंज मोहल्ला में काला डांडा कब्रिस्तान में स्थित उनकी कब्र भी उपेक्षित है।

By Ankur TripathiEdited By: Updated: Thu, 08 Sep 2022 03:49 PM (IST)
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कभी शराबो-शबाब और राजाओं की जी-हुजूरी तक सीमित रहने वाली शायरी के मिथक को अकबर ने तोड़ा।
प्रयागराज, जागरण संवाददाता। दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं। बाजार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं ...। जैसी रचनाओं से हर किसी की अंतरात्मा को झकझोरने वाले शायर थे अकबर इलाहाबादी। तंजो-मिजाह शायरी में अकबर का मुकाम सरे-फेहरिस्त है। कभी शराबो-शबाब और राजाओं की जी-हुजूरी तक सीमित रहने वाली शायरी के मिथक को अकबर ने तोड़ा। उन्हें शायरी में तंज कसना अच्छे से आता था। जब सर सैयद अहमद खां ने अंग्रेजियत को अपनाने की मुहिम छेड़ी तो उसका जवाब अकबर इलाहाबादी ने तंज-व्यंग्य की शायरी से दिया। वो अंग्रेजी पढ़ने के खिलाफ नहीं थे, बल्कि उसकी संस्कृति के विरोध थे।

1846 को बारा में जन्मे और 1921 में हुआ निधन

16 नवंबर 1846 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के बारा नामक कस्बे में जन्मे अकबर का नाम सैयद हुसैन था। इनके पिता सैयद तफ्फजुल हुसैन व्याकरण और गणित की पढ़ाई में आगे बढ़ाना चाहते थे, लेकिन 14 वर्ष की उम्र में अकबर को अंग्रेजी पढ़ने का शौक जागा। उन दिनों अरबी, फारसी जानने वालों की खासी तादाद थी, लेकिन अंग्रेजी जानने और पढ़ने वालों की संख्या नाम मात्र की थी। उन्होंने 1867 में वकालत की परीक्षा पास की, इसके दो वर्ष बाद नायब तहसीलदार हो गए। 1881 में उन्हें मुंसिफ का पद मिला। वह 1888 में सदर-उल-सदूर पद पर नियुक्त कर दिए गए। 1892 में अदालत खफीफा के जज नियुक्त हुए और 1894 में डिस्ट्रिक सेशन जज तक का सफर तय किया। उन्हें 1898 में सरकार ने 'खान बहादुर की पदवी से नवाजा। नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद 1910 में उनकी पत्नी का निधन हो गया। इसके कुछ दिनों बाद उनके बेटे हाशिम की मृत्यु हो गई। पत्नी और बेटे की मौत का दु:ख उन्होंने धैयपूर्वक सहन किया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी शायरी के माध्यम से जोरदार मुखालफत की। नौ सितंबर 1921 को उनका प्रयागराज में निधन हो गया। आलोचक प्रो. अली अहमद फातमी कहते हैं कि अकबर इलाहाबादी की प्रासंगिता आज भी कायम है, उन्होंने जिस संस्कृति व सभ्यता को संरक्षित करने को आवाज उठाई थी वो आज सामने नजर आता है।

अकबर को भुलाना कष्टकारी

शायर इम्तियाज अहमद गाजी कहते हैं कि सरकार ने अकबर इलाहाबादी को भुला दिया है। यही कारण है कि उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर याद करने वाला कोई नहीं है। प्रयागराज के हिम्मतगंज मोहल्ला में काला डांडा कब्रिस्तान में स्थित उनकी कब्र भी उपेक्षित है।

यादगारे हुसैनी इंटर कालेज है घर

कोतवाली के पास स्थित यादगारे हुसैनी इंटर कालेज अकबर इलाहाबादी का असली घर है। यादगारे हुसैनी इंटर कालेज की स्थापना 1942 में हुई। तब यह कालेज रानीमंडी मोहल्ले में था। देश का बंटवारा होने के बाद अकबर के परिवार के कुछ सदस्य पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन उनके बेटे मोहम्मद मुसलिम यहीं रुके रहे। वही कालेज को अपनी कोठी में ले आए। बाद में मोहम्मद मुसलिम भी पाकिस्तान चले गए। इसके बाद 50 हजार वर्गमीटर जमीन कस्टोडियन में चली गई। कुछ सामाजिक लोगों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलकर कालेज की जमीन कस्टोडियन से वापस कराने की मांग की। इसके बाद यह मिल्कियत 'यादगारे हुसैनी सोसाइटी के नाम से दर्ज करा दी गई।

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