Firaq Gorakhpuri Birth Anniversary: आनंद भवन में पंडित नेहरू के न बुलाने पर भड़क गए थे फिराक
Firaq Gorakhpuri Birth Anniversary 2022 यह संस्मरण दिसंबर 1947 का है। पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रयागराज (पुराना इलाहाबाद) आए थे। उर्दू के प्रसिद्ध शायर फिराक गोरखपुरी उनसे मिलने आनंद भवन गए। वहां रिसेप्शनिस्ट ने पर्ची में आर. सहाय लिखकर अंदर भेजवा दिया। बुलावा नहीं आया तो फिराक भड़क शोर मचाने लगे।
By Brijesh SrivastavaEdited By: Updated: Sat, 27 Aug 2022 01:47 PM (IST)
प्रयागराज, जागरण संवाददाता। फक्कड़ स्वभाव, बेलौस व निर्भीक अंदाज रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी की पहचान थी। वे ऐसे रचनाकार थे, जिन्हें स्वयं के कारनामों पर नाज था। कहीं स्वयं की अनदेखी होने की अनुभूति होती तो विरोध जताने में नहीं चूकते थे। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी उनकी नाराजगी झेल चुके हैं।
नेहरू बोले...मैं 30 वर्षों से तुम्हें रघुपति सहाय के नाम से जानता हूं : यह संस्मरण दिसंबर 1947 का है। पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रयागराज (पुराना इलाहाबाद) आए थे। उर्दू के प्रसिद्ध शायर फिराक गोरखपुरी उनसे मिलने आनंद भवन गए। वहां रिसेप्शनिस्ट ने पर्ची में आर. सहाय लिखकर अंदर भेजवा दिया। जब 15 मिनट बीतने पर बुलावा नहीं आया तो फिराक भड़क शोर मचाने लगे। शोर सुनकर नेहरू बाहर आ गए। माजरा समझने के बाद नेहरू बोले, 'मैं 30 साल से तुम्हें रघुपति सहाय के नाम से जानता हूं, मुझे क्या पता ये आर. सहाय कौन है? फिर नेहरू उन्हें प्यार से अंदर ले गए।'
गोरखपुर में जन्मे फिराक की कर्मभूमि प्रयागराज थी : 28 अगस्त 1896 में बसगांव गोरखपुर में जन्मे फिराक गोरखपुरी की कर्मभूमि प्रयागराज रही है। वे 1913 में मैट्रिक की परीक्षा पास करके इलाहाबद आए और यहीं के होकर रह गए। तब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था। देश को आजाद कराने के लिए महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू के साथ आंदोलन में हिस्सा लेने लगे। साथ ही साहित्यिक व राजनीतिक वातावरण में पूरी तरह से रम गए थे।
रघुपति सहाय से कैसे नाम फिराक गोरखपुरी हुआ : शायरी करते-करते उनका नाम फिराक गोरखपुरी पड़ गया। राष्ट्रवादिता का जुनून ऐसा सवार था कि आइसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेस) नौकरी मिलने के बावजूद 1921 में उसे त्याग कर महात्मा गांधी के साथ आंदोलन में सक्रिय हो गए। अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। जेल में रहते हुए मुशायरा किया करते थे। जेल में रहकर 'अहले जिंदा की यह महफिल है, सुबूत इसका फिराक' की रचना कर डाली। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग के शिक्षक रहे फिराक गोरखपुरी ने तीन मार्च 1982 को उन्होंने दिल्ली में अंतिम सांस ली।
ठुकरा दी थी राज्यसभा की सदस्यता : सरस्वती पत्रिका के संपादक रविनंदन सिंह बताते हैं कि पद और पुरस्कार फिराक गोरखपुरी को कभी लुभा नहीं पाए। जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं तो उन्होंने नेहरू के मित्र फिराक गोरखपुरी को राज्यसभा में जाने का प्रस्ताव भेजा था। उस प्रस्ताव को बड़ी शालीनता से फिराक गोरखपुरी ने ठुकरा दिया। उन्होंने प्रस्ताव पर शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि 'मेरे लिए यही सबसे बड़ी सौगात है जो आपने मेरे बारे में सोचा। आप इसी तरह ख्याल रखती रहें।'
गजल को दी नई शैली : शायर मंजू पांडेय उर्फ महक जौनपुरी कहती हैं कि फिराक ने गजल और रुबाइयों को एक नई शैली और स्वर दिया। उसमें अतीत की परिस्थितियों की अनुगूंज है तो वर्तमान का वैकल्य। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा व हिंदू संस्कृति के गहन अध्येयता थे। उनकी शायरी में हिंदुस्तान की सोंधी माटी की महक जन-जन को आत्मीय बना लेती है। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रुमानियत, रहस्य व शास्त्रीयता में निबद्ध है। जहां पर जन-जीवन और प्रकृति के चित्रण का प्राय: अभाव होता है। फिराक की शायरी में जाग्रत भारत का दर्शन होता है।
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