कौशांबी में अंतिम सांस ले रही लोक कला नौटंकी, नहीं रही अब लोगों की दिलचस्पी
नाटक और नृत्य का चलन कबसे शुरू हुआ यह तो ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है। लेकिन राजदरबारों में नृत्य का उल्लेख हिंदू धर्मग्रंथों किस्सों और कहानियों में भी मिलता है। महाकवि कालीदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम विक्रमोर्वशीयम और मालविकाग्निमित्रं तीन प्रचीन नाटक कहा जा सकता है।
प्रयागराज, जेएनएन। भारतीय लोक संस्कृति का हिस्सा रहा नाटक-नौटंकी आज अंतिम सांसें गिन रहा है। 80-90 का वह दौर था जब पूस की रात में भी लोई-कंबल ओढ़ कर कुछ लोग शमियाना में तो कुछ लोग उसके बाहर तक बैठ कर पूरी रात नाटक-नौटंकी देखा करते थे। इसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि अपना गांव छोड़कर कोस डेढ़ कोस के भी गांवों में लोग नाच देखने जाया करते थे। लेकिन, अब बदलते समय के साथ यह सब बस यादों में सिमट कर रह गया है।
कहानियों में है जिक्र
नाटक और नृत्य का चलन कबसे शुरू हुआ यह तो ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है। लेकिन राजदरबारों में नृत्य का उल्लेख हिंदू धर्मग्रंथों, किस्सों और कहानियों में भी मिलता है। महाकवि कालीदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम, विक्रमोर्वशीयम और मालविकाग्निमित्रं तीन प्रचीन नाटक कहा जा सकता है। हिंदी में खड़ीबोली के नाटकों की शुरूआत भारतेंदु हरिशचंद्र से माना जाता है।
कई नाम से जाना जाता है नाटक-नौटंकी
नाटक शैली का ही दूसरा नाम है। लोक नाट्य परम्परा में महाराष्ट्र तमाशा का कुड्डियाटम, असम का ओज पाली, कश्मीर का भांड-पत्थर, हरियाणा, पंजाब का स्वांग, उत्तर प्रदेश बिहार की नौटंकी आदी राज्यों में अलग-अलग नाम होता है ।
गद्य और पद का सुमेल है नौटंकी
नाटक और नौटंकी दोनो के मंचन का तरीका एक जैसा है। नाटक में जहां गद्य और दोहे जाते हैं। वहीं नौटंकी में गद्य और पद होते है। यानि, बहरत, दोहा, सोरठा और गद्य में इसके डॉयलॉग बोले जाते हैं। नौटंकी आल्हा-ऊदल, सुल्ताना डाकू, भक्त पूरनमल, शोले, विदेशिया, राजा भरथरी, हरिश्चन्द्र, सती बिहुला, अंधेर नगरी, मोरोध्वज, अमर सिंह राठौर जैसे नाटकों का मंचन पद में होता था।
1980-90 का वह समय जब नाच, नौटंकी, रामलीला में ढोल और नगाड़े की थाप जब लाउडस्पीकर से क्षेत्र दूर तक सुनाई देती थी। उस समय लालटेन, पुआल आदि लेकर गर्मी हो या सर्दी शाम से लेकर सुबह तक नौटंकी या नाटक देखते थे। पहले गांवों में इस कला से जुड़े लोगों की टीम होती थी जो शादी, जन्मोत्सव, मेला आदि जगहों पर कार्यक्रम करने के लिए महीना दो महिना पहले से बुकिंग हो जाता था। प्रत्येक गांव के लोग इस कला से जुड़ते थे, जो अपने गांव की पहचान हुआ करते थे।
मशहूर थी कानपुर, लखनऊ, बनारस और गोरखपुर और म्योहर की नौटंकी
नौटंकी कंपनी के प्रबंधक रहे सुरेंद्र सिंह कहते हैं किसी जमाने में लोगों के नौटंकी देखने का उत्साह देखने को बनता था। फतेहपुर, प्रयागराज, बनारस जैसे जिलों में नौटंकी के कलाकार थे लेकिन आज इस कला के कद्रदान नहीं है। अलबत्ता नाटक और नौटंकी से जुड़े कलाकार और इनका परिवार भुखमरी के कगार पर आ गया है। इसके साथ ही सदियों से चली आ रही लोककला खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी है। हालत यह है कि इससे जुड़े लोग रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
कलाकार करने लगे नौकरी
भारतीय लोक कला संघ के जिला अध्यक्ष अशोक रशिया कहते हैं कि नाटक के कलाकार अब अपनी विधा को छोड़कर कर अपना जीवन यापन करने के बाहर प्रदेश मे जाकर काम कर रहे हैं। भारतीय लोक कला महासंघ अपनी परम्परा और और अपनी भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए नौटंकी कलाकारों को प्रोत्साहित करता रहता है हमारी मांग है कि जैसे सरकार को इस विधा को संरक्षित के लिए प्रोसाहन राशि दें। राष्ट्रीय अध्यक्ष भारतीय लोक कला संघ अतुल कहते हैं कि हमारे भारतीय लोक कला संघ की तरफ से समय समय पर हम अपनी तरफ लोक संगीत कला के कलाकारों को प्रशिक्षण दिया करते है । और अपनी संस्था मे पंजीकृत कर उनको राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए तैयार करते रहते हैं ।