आग उगल चुकी तोपों को अपने अतीत की तलाश, गांधी स्मृति वाहन के पीछे कबाड़खाने में फेंकी गई हैं ऐतिहासिक तोपें
इलाहाबाद संग्रहालय में आठ तोपें भी कबाड़खाने में पड़ी हैं उनका इतिहास बताने वाला कोई नहीं है। इन तोपों ने कभी दुश्मनों पर गोले बरसाए होंगे और अब धूल धूसित अपने अतीत को तलाश रही हैं। संग्रहालय से इन तोपों के सभी रिकॉर्ड गायब हैं। जी हां संग्रहालय में एक-दो नहीं बल्कि आठ तोंपें गांधी स्मृति वाहन कक्ष के पिछले हिस्से में कबाड़ का हिस्सा हो चुकी हैं।
By Jagran NewsEdited By: Abhishek PandeyUpdated: Thu, 10 Aug 2023 08:24 AM (IST)
अमरदीप भट्ट, प्रयागराज: प्रयागराज को जानने के लिए अभी इतिहास के कई पन्नों को पलटने की आवश्यकता है। सेंगोल की तरह अभी कई ऐतिहासिक गौरव हमारे यहां दफन हैं, जिनकी जानकारी लोगों को नहीं है।
यह दुर्भाग्य हमारे ही बीच के कुछ जिम्मेदार लोगों की वजह से है। जिस तरह से सोने की ऐतिहासिक छड़ी सेंगोल आजादी के बाद से इलाहाबाद संग्रहालय में उपेक्षा के साथ एक कोने में पड़ी थी और उसे नई ससंद में शीर्ष पर स्थान मिला। देश-दुनिया उसके इतिहास को लेकर रोमांचित हुई, स्वर्णिम परंपरा की पुरानी यादें फिर से ताजा हो उठीं।
कबाड़खाने में पड़ी हैं आठ तोपें
ठीक उसी तरह से इलाहाबाद संग्रहालय में आठ तोपें भी कबाड़खाने में पड़ी हैं, उनका इतिहास बताने वाला कोई नहीं है। इन तोपों ने कभी दुश्मनों पर गोले बरसाए होंगे और अब धूल धूसित अपने अतीत को तलाश रही हैं।संग्रहालय से इन तोपों के सभी रिकॉर्ड गायब हैं। जी हां, संग्रहालय में एक-दो नहीं बल्कि आठ तोंपें गांधी स्मृति वाहन कक्ष के पिछले हिस्से में कबाड़ का हिस्सा हो चुकी हैं। प्रयागराज में इन तोपों की मौजूदगी जाहिर करती है कि इसी धरा पर विभिन्न कालखंड में हुए युद्धों में इनका इस्तेमाल हुआ होगा।
इतिहासकारों के पास नहीं है जवाब
तोपों की बनावट, उनके गोलों के आकार और नाल से स्पष्ट है कि इनसे दागे गोलों की आकाशीय बिजली जैसी गर्जना हुई होगी। इलाहाबाद संग्रहालय के अधिकारी इनके गौरवशाली इतिहास से अनभिज्ञ तो हैं ही, यहां के इतिहासकारों को भी इनकी अधिक जानकारी नहीं है।संग्रहालय के रिकॉर्ड रूम में इनसे संबंधित प्रपत्र नहीं हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रक्षा विभाग से सेवानिवृत्त प्रो. आरके टंडन के कुछ प्रयास से पता चला कि यह तोंपें 19वीं शताब्दी की हैं और लोहे व ब्रास से निर्मित हुई थीं। इन्हें घोड़ों या बैलगाड़ी से घसीटा जाता था और पहाड़ पर ले जाने के लिए ट्रॉली (कैरेज) का सहारा लिया जाता था, ट्रॉली लापता है।
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