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कई हिंदू परिवारों में गंगा किनारे शव दफन करने की परंपरा, जानें- सनसनी फैलाने वाली तस्वीरों का सच

प्रयागराज में गंगा किनारे दफनाए गए शवों को हालिया करार देते हुए इंटरनेट मीडिया पर हो-हल्ला मचाने वालों को यह पुरानी तस्वीर गौर से देखनी चाहिए। उस समय न कोरोना जैसी आपदा थी और न शवों को दफन करने की कोई मजबूरी। बस थी तो परंपरा।

By Umesh TiwariEdited By: Updated: Wed, 26 May 2021 03:06 PM (IST)
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प्रयागराज में कोरोना नहीं था, फिर भी तीन साल पहले ऐसी ही थी गंगा किनारे की तस्वीर।
प्रयागराज, जेएनएन। संगमनगरी प्रयागराज में गंगा किनारे दफनाए गए शवों को हालिया करार देते हुए इंटरनेट मीडिया पर हो-हल्ला मचाने वालों को यह पुरानी तस्वीर गौर से देखनी चाहिए। यह तस्वीर 18 मार्च, 2018 की है, जब कुंभ 2019 के क्रम में तीर्थराज प्रयाग के शृंगवेरपुर का कायाकल्प हो रहा था। इसे अपने कैमरे में कैद किया था दैनिक जागरण के फोटो जर्नलिस्ट मुकेश कनौजिया ने। उस समय न कोरोना जैसी आपदा थी और न शवों को दफन करने की कोई मजबूरी। बस थी तो एक परंपरा, जो कई हिंदू परिवारों में पुरखों से चली आ रही है। एक ऐसी परंपरा जो बहुत पुरानी है, लेकिन गंगा की निर्मलता के लिहाज से उचित नहीं है।

प्रयागराज में शृंगवेरपुर और फाफामऊ घाट पर अरसे से शव दफनाने की परंपरा रही है। अब के हालात को समझने दैनिक जागरण प्रयागराज के संपादकीय प्रभारी राकेश पांडेय के साथ श्याम मिश्रा, पंकज तिवारी, अफजल अंसारी और फोटो जर्नलिस्ट मुकेश शृंगवेरपुर सहित गंगा किनारे के करीब एक दर्जन गांवों में पहुंचे। 70 किलोमीटर से अधिक की इस यात्रा में टीम ने अंतिम संस्कार के लिए शव लेकर आए लोगों व गांव के बुजुर्गों से लेकर घाट के पंडा समाज तक से बात की।

85 वर्ष के पंडा राममूरत मिश्रा कहते हैं कि मैं तो शृंगवेरपुर में अपने बचपन से ही शवों को जलाने के साथ ही दफनाने का सिलसिला देखता आ रहा हूं। 'सफेद दाग और सांपकटा तो दफनावै जात रहेन। छह-सात जिलन से संपन्न से लेकर गरीब परिवार तक भी शव लेकर आवत हैं। उनकेरे यहां दफनावै कै परंपरा बा।' ऐसा ही कुछ कहना है ननकऊ पांडेय का। वह बताते हैं कि पुरखों से चली आ रही परंपरा के तहत कुष्ठ रोगियों व अकाल मौतों से जुड़े शव को जलाया नहीं बल्कि दफनाया जाता है।

प्रतापगढ़ जिले के कानूपुर से आए करीब 50 साल के पंकज बताते हैं कि 'हमार चाचा तो आपन जगह अपने जितबै तय कर दिए रहे। वा टीला की ओर दफनावा गै रहा। उनकै अम्मा कै भी यहीं माटी दीन (दफनाया) रही। आज भी दफनाने के लिए आए रहे, लेकिन दफनावै नाही देहेन।'

इस बार कोरोना संक्रमण काल में कई लोगों ने शवों को घाटों पर दफनाया। रोर गांव से आए शैलेंद्र दुबे बताते हैं कि हम लोग गांव से शव लेकर शृंगवेरपुर आए थे, लेकिन नंबर में बहुत देर थी तो यहीं घाट किनारे दफन कर दिए। इसके अलावा बिहार, बाबूगंज, उमरी, पटना, मोहनगंज, सेरावां, शकरदहा आदि गांव के लोगों ने भी शव को दफन करना परंपरा या पर्याप्त संसाधनों की मजबूरी बताया।

एक ही गांव के 50 लोगों की मौत पर 35 के शव दफनाए गए : शृंगवेरपुर से महज तीन किलोमीटर दूरी पर है गांव मेंडारा। यहां दस अप्रैल से लेकर दस मई तक करीब 50 लोगों की मौत हुई। नवनिर्वाचित ग्राम प्रधान महेश्वर कुमार सोनू का कहना है कि इनमें से करीब 35 शव गंगा की रेती पर परंपरा के तहत दफनाए गए। मरने वालों में कोई कैंसर से पीडि़त था तो किसी की अस्थमा या हार्ट अटैक से मौत हुई। इनमें अधिकतर लोग 60 वर्ष से अधिक की उम्र के थे। हां, यह भी सच है कि किसी की कोरोना जांच नहीं हुई थी।

अरसे से है परंपरा : प्रयागराज के जिलाधिकारी भानुचंद्र गोस्वामी ने बताया कि शृंगवेरपुर और फाफामऊ घाट पर हिंदू परिवारों द्वारा शव दफन करने की परंपरा अरसे से है। हमें परंपरा को भी ठेस नहीं पहुंचानी है और न ही पर्यावरण की अनदेखी करनी है। ऐसे में बीच का रास्ता निकालने की कोशिश है। शव दफनाने वालों से आग्रह किया जा रहा है कि वे दाह संस्कार करें, गरीब परिवारों को इसके लिए आर्थिक मदद भी दी जा रही है।

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