शहीद क्रांतिकारी बाबू गुलाब सिंह जिनके नाम से प्रतापगढ़ में है एक कस्बा, पढ़िए उनकी वीरता पर यह गाथा
मानधाता का तरौल गांव। यहां के निवासी रहे तालुकेदार बाबू गुलाब सिंह ने अपने भाई मेदनी सिंह और छोटी सी सेना के साथ क्रांति के दौरान इलाहाबाद से लखनऊ जा रहे अंग्रेजी सैनिकों पर बकुलाही नदी के पास घेरकर हमला कर दिया था। दर्जनों अंग्रेजी सैनिक मारे गए थे।
By Ankur TripathiEdited By: Updated: Wed, 25 Aug 2021 08:32 AM (IST)
प्रयागराज, जागरण संवाददाता। आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान अवध के हिस्से प्रतापगढ़ के ऐसे दो वीरों का पराक्रम आपको रोमांचित कर सकता है, जिन्होंने 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेजी सैनिकों को मौत के घाट उतार कर नदी में बहा दिया था। अपने पराक्रम के जरिए देश की आजादी के लिए नई चेतना जगाई थी बाबू गुलाब सिंह और उनके भाई मेदिनी सिंह ने। दोनों भाइयों के नाम पर कस्बे जरूर आबाद हैै, लेकिन किसी की प्रतिमा तक नहीं लगी है, कोई कार्यक्रम भी जन्मतिथि अथवा पुण्यतिथि पर नहीं होता। डेढ़ सौ वर्षों में उनकी यादों, गाथाओं को सहेजने की कोई पहल नहीं की गई।
बकुलाही नदी के पास हमले में मारे थे अंग्रेज सैनिक जिले के दक्षिणांचल में है मानधाता का तरौल गांव। यहां के निवासी रहे तालुकेदार बाबू गुलाब सिंह ने अपने भाई मेदनी सिंह और छोटी सी सेना के साथ क्रांति के दौरान इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से लखनऊ जा रहे अंग्रेजी सैनिकों पर बकुलाही नदी के पास घेरकर हमला कर दिया था। दर्जनों अंग्रेजी सैनिक मारे गए थे। दोनों भाई इस संघर्ष में घायल हुए थे। गुलाब सिंह तीसरे दिन वीरगति को प्राप्त हो गए और उनके भाई बाबू मेदिनी कुछ दिनों बाद।
जनराजा के रूप में सम्मानित रहे हैं बाबू गुलाब सिंह
बाबू गुलाब सिंह अपनी रियासत के राजा से कहीं अधिक जनराजा के रूप में सम्मानित थे। तरौल से करीब तीन किमी की दूरी पर बकुलाही के किनारे भयहरणनाथ धाम है। यह महाभारत काल का प्रसिद्ध शिवालय है। यहां हर दिन बाबू गुलाब सिंह अपने घोड़े से आते थे। दर्शन करते थे। मंदिर के विकास पर अपनी रियासत से सहयोग करते थे। मंदिर के आसपास लोग रहें, इसी मकसद से उन्होंने अपने द्वारा ही कटरा बसाया था। इनके भाई के नाम पर कटरा मेदनीगंज आबाद हुआ, लेकिन लेकिन नई पीढ़ी को छोडि़ए पुरानी पीढ़ी को भी पराक्रम की गाथा ज्यादा नहीं पता है। जिले के इतिहासकार डा. पीयूषकांत शर्मा बताते हैं कि गुलाब सिंह का जनता पर बहुत प्रभाव था। उन्होंने जब क्रांति का बिगुल फूंका तो जनता उसमें शामिल होने को खुद ही आगे आने लगी। उसी के बल पर उनकी सेना को शक्ति मिली। आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान इनकी दास्तां अक्षुण्ण रखने की पहल की जानी चाहिए।
भयहरणनाथ धाम के महासचिव सोशल वर्कर डा. समाज शेखर कहते हैं कि उस दौर को कौन भूल सकता है जब 1857 में देश में अंग्रेजों के खिलाफ सामूहिक विद्रोह की आग भड़क उठी थी। प्रतापगढ़ के कई तालुकेदार और राजे-रजवाड़े अंग्रेजों के विरोध के लिए आगे नहीं आए, लेकिन तरौल के गुलाबसिंह ने अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके। उन्होंने इनका खुलकर विरोध किया। कोठी में जो सेना थी, उसका पुनर्गठन किया तो उसमें तमाम ग्रामीण लड़ाकू शामिल हो गए। बाबू गुलाब सिंह की यादों को जीवंत रखने का प्रयास करते हुए भयहरण नाथ धाम में उनके नाम पर अभिलेखागार की स्थापना की गई है।
पुरातत्वविद् लोकभाषा कवि डा.निर्झर प्रतापगढ़ी बताते हैं कि कटरा एक फारसी शब्द है, जिसका अर्थ होता है पुरवा। बाबू गुलाब सिंह के नाम पर कटरा गुलाब सिंह बाजार है। मेदिनी सिंह के नाम पर कटरा मेदनीगंज की स्थापना हुई, जो बाद में नगर पंचायत बना। वहां भी इनका कोई नामलेवा नहीं है। नई पीढ़ी तो शायद जानती भी न होगी कि कटरा मेदनीगंज किसके नाम पर रखा गया है। पुरानी पीढ़ी के लोग भी से अनजान ही हैं। 62 साल के राम प्रसाद पुष्पाकर से चर्चा हुई तो वह कहने लगे कि मेदनीगंज का क्या मतलब होता है, नहीं जानते, बस एक बाजार है।
कोलकाता संग्रहालय तक खोजी क्रांतिकारी की मूर्ति महान क्रांतिकारी बाबू गुलाब सिंह को कोई चित्र या मूर्ति उपलब्ध नहीं है। तरौल के पास ढेमा गांव के वरिष्ठ शिक्षाविद् विनोद सिंह बताते हैं कि घोड़े पर सवार बाबू गुलाब सिंह धड़ाधड़ अंग्रेजी सैनिकों को मारते जा रहे थे। इसके बाद अंग्रेज सैनिकों ने घेरकर उन पर भी हमला कर दिया, जिससे वह लहूलुहान हो गए व उनका घोड़ा लंगड़ा हो गया। इसके बावजूद वह उसी घोड़े से भागे और तीन दिन बाद वीरगति को प्राप्त हुए थे। उनके भाई मेदिनी सिंह को अंग्रेजों की सेना ने घेरने का प्रयास किया तो वह शहर की ओर भागे। उनको कटरा के पास घेरकर मार दिया गया। वह लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ जाने वाले बाबू गुलाब सिंह की अदद मूर्ति इस जिले में नहीं लग सकी। उनका कोई स्मारक और समाधि भी आज तक निर्मित नहीं हो पाई। लोगों को इस बात का मलाल है कि जिन लोगों का संग्राम में कोई योगदान नहीं रहा उनकी गाथा गाई जाती है और असली वीरों को भुला दिया गया। उनके इतिहास को दबा दिया गया। उनकी मूर्ति की खोज में लोग कोलकाता संग्रहालय तक गए, पर नहीं मिली।
गांव में मिट रहे कोठी के अवशेष तरौल गांव में राजा गुलाब सिंह के परिवार का कोई नहीं है। अंग्रेजों से युद्ध के बाद ही सब चले गए थे। कोठी धीरे-धीरे खंडहर होकर अपना अस्तित्व खोने लगी। अब तो इसके अवशेष भी बहुत कम हैं। नींव की चंद ईंटें और कुछ दीवारें ही नजर आती हैं। एक पुराना कुआं भी है, जो अब उपयोग में नहीं है। गांव के लोग भी इसके महत्व के बारे में नहीं जानते। इतिहास के कुछ विद्यार्थी कभी-कभार यहां जरूर नजर आ जाते हैं। उनको भी गांव वालों से गुलाब सिंह के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाती।
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