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20 साल सजा काटने के बाद दुष्कर्म का आरोपी निर्दोष करार, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सरकार पर की तल्ख टिप्पणी

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कैदियों को 14 साल बाद रिहा करने की शक्तियों का इस्तेमाल न करने पर सरकार के खिलाफ तल्ख टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि यह बेहद दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि गंभीर अपराध न होने के बावजूद आरोपी 20 साल से जेल में हैं।

By Umesh TiwariEdited By: Updated: Mon, 22 Feb 2021 07:08 PM (IST)
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20 साल सजा काटने के बाद दुष्कर्म का आरोपी को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने निर्दोष करार दिया है।
प्रयागराज, जेएनएन। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कैदियों को 14 साल बाद रिहा करने की शक्तियों का इस्तेमाल न करने पर राज्य सरकार के खिलाफ तल्ख टिप्पणी की हैं। हाई कोर्ट ने कहा कि यह बेहद दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि गंभीर अपराध न होने के बावजूद आरोपी 20 साल से जेल में है। राज्य सरकार ने सजा के 14 साल बीतने पर भी उसकी रिहाई के कानून पर विचार नहीं किया। इतना ही नहीं जेल से दाखिल अपील भी 16 साल दोषपूर्ण रही। सुनवाई तब हो सकी, जब विधिक सेवा समिति के वकील ने 20 साल जेल में कैद रहने के आधार पर सुनवाई की अर्जी दी। कोर्ट ने दुष्कर्म का आरोप साबित न होने पर आरोपित को तत्काल रिहा करने का आदेश दिया है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के विधि सचिव को निर्देश दिया है कि वह सभी जिलाधिकारियों से कहें कि 10 से 14 साल की सजा भुगत चुके आजीवन कारावासियों की संस्तुति राज्य सरकार को भेजें। भले ही सजा के खिलाफ अपील विचाराधीन हो। साथ ही मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में निबंधक लिस्टिंग को ऐसी सभी अपीलें खासतौर पर जेल अपीलों को सुनवाई के लिए कोर्ट में भेजें, जिनमें आरोपी 14 साल से अधिक समय से जेल में बंद हैं। यह आदेश न्यायमूर्ति डॉ. केजे ठाकर व न्यायमूर्ति गौतम चौधरी की खंडपीठ ने ललितपुर के विष्णु की जेल अपील को स्वीकार करते हुए दिया है।

मामले के अनुसार 16 वर्षीय विष्णु पर 16 सितंबर, 2000 को दिन में दो बजे घर से खेत जा रही अनुसूचित जाति की महिला को झाड़ी में खींचकर दुष्कर्म करने का आरोप है। सीओ ने विवेचना करके चार्जशीट दाखिल की। सत्र न्यायालय ने दुष्कर्म के आरोप में 10 साल व एससी-एसटी एक्ट के अपराध में आजीवन कारावास की सजा सुनाई। इससे आरोपित वर्ष 2000 से ही जेल में है। जेल अपील दोषपूर्ण दाखिल की गई।

20 साल जेल में बंद होने के आधार पर शीघ्र सुनवाई की अर्जी पर कोर्ट ने देखा कि दुष्कर्म का आरोप साबित ही नहीं हुआ। मेडिकल रिपोर्ट में जबरदस्ती करने के कोई साक्ष्य नहीं थे। उस दौरान पीड़िता पांच माह की गर्भवती थी। रिपोर्ट भी पति व ससुर ने घटना के तीन दिन बाद लिखवायी थी। पीड़िता ने इसे अपने बयान में स्वीकार किया है। कोर्ट ने कहा कि सत्र न्यायालय ने सबूतों पर विचार किये बगैर गलत फैसला दिया।

कोर्ट ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 व 433 में राज्य व केंद्र सरकार को शक्ति दी गयी है कि वह 10 से 14 साल की सजा भुगतने के बाद आरोपित की रिहाई पर विचार करे। राज्यपाल को अनुच्छेद 161 में 14 साल सजा भुगतने के बाद रिहा करने का अधिकार है। आरोपी ने 20 साल जेल में बिताये। यह समझ से परे है कि सरकार ने इसके बारे में विचार क्यों नहीं किया। कोर्ट ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है।

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