Ram Mandir: जलालशाह के विश्वासघात से गिराया गया राम मंदिर, बाबर कई बार आया था अयोध्या; काटे गए थे पुजारियों के सिर
जलालशाह ने एक दिन ख्वाजा कजल अब्बास से कहा कि इस मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवानी होगी। इस पर ख्वाजा ने कहा कि अगर ऐसा हो गया तो भारत में इस्लाम की जड़ जम जाएगी। फतेहपुर सीकरी में बाबर और राणा सांगा में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में बाबर राणा सांगा के हाथों से आहत होकर भाग निकला और अयोध्या आकर जलालशाह की शरण ली।
रमाशरण अवस्थी, अयोध्या। नाम से ही काफी कुछ स्पष्ट होने लगता है। अयोध्या भी अपने नाम से स्वयं में निहित अपार संभावनाओं एवं सभी प्रकार के युद्ध से ऊपर अपनी अखंडता, अमरता एवं अहिंसा व्यक्त करती है। इस विरासत के अनुरूप यह न केवल रामानुरागियों, बल्कि मानव मात्र की आस्था के केंद्र में रही है और यहां से सभी को राम कृपा का प्रसाद मिलता रहा। यद्यपि अयोध्या के इस अप्रतिम अवदान का दुरुपयोग भी हुआ।
स्वयं रामजन्मभूमि इस विडंबना की परिचायक है। विश्वास न हो तो एक मार्च 1528 ई. को रामजन्मभूमि पर निर्मित मंदिर तोड़े जाने के पूर्व के घटनाक्रम पर गौर करें। रामजन्मभूमि के इतिहास पर पहली प्रामाणिक कृति छह दशक पूर्व प्रस्तुत करने का श्रेय रामगोपाल पांडेय ‘शरद’ को जाता है।इसके अनुसार ‘भारत पर मुगलों का अधिकार हो गया और सम्राट बाबर दिल्ली के राज सिंहासन पर बैठा। उस समय रामजन्मभूमि महात्मा श्यामानंद के अधिकार में थी। वह उच्चकोटि के सिद्ध महात्मा थे। उनके हृदय में ऊंच-नीच का भेद-भाव नहीं था। उनके समय में ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकाना यहां आए और महात्मा श्यामानंद के साधक शिष्य हो गए।
जन्मभूमि पर ख्वाजा की अपार श्रद्धा हो गई
उनके सत्संग से ख्वाजा साहब को रामजन्मभूमि का प्रभाव विदित हुआ और जन्मभूमि पर ख्वाजा की अपार श्रद्धा हो गई। एक दिन ख्वाजा ने श्यामानंद से प्रार्थना की, कि अपनी सिद्ध का थोड़ा सा प्रसाद इस गुलाम को भी बख्श दीजिए। श्यामानंद ने कहा कि हिंदुओं के जितनी पवित्रता तुम रख नहीं सकते और यदि तुम्हें कहा जाय कि हिंदू धर्म स्वीकार लो, तो भी वह पवित्रता तुममें नहीं आ सकती, जो जन्म-जन्मांतरों के संस्कार से मनुष्य को प्राप्त होती है।
अतएव तुम इस्लाम धर्म के अनुसार अपने ही मंत्र ‘लाइलाह इल्लिल्लाह’ का नियमपूर्वक अनुष्ठान करो। ख्वाजा ने इस सुझाव को स्वीकार किया और इस मंत्र का अनुष्ठान कर महान सिद्धि प्राप्त की। इसी बीच में जलालशाह नामक एक दूसरा फकीर भी आ गया और ख्वाजा कजल की भांति स्वामी श्यामानंद का शिष्य बन कर रहने लगा।
जलालशाह को जब इस स्थान का महत्व विदित हुआ, तो उसे इस स्थान को खुर्द मक्का और सहस्रों नबियों का निवास स्थान सिद्ध करने की सनक सवार हुई । उसके प्रयत्न से लंबी-लंबी कब्रें बनवाई गईं। दिव्य-दैवी जिंदगी पाने के उद्देश्य से सुदूर देशों तक से मुसलमानों के शव यहां लाए जाने लगे। भगवान की पूरी कब्रों से पाट दी गई।
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