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मराठा सरदार महादजी के समय में रामजन्मभूमि जैसे आस्था केंद्रों को वापस हिंदुओं को सौंपे जाने की उम्मीद जगी थी, पढ़ें अयोध्या की संघर्ष गाथा

मराठे 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई की पराजय से उबर कर महादजी सिंधिया के नेतृत्व में अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा को फिर से बढ़ाने में लगे थे। इस अभियान के तहत उन्होंने न केवल दिल्ली पर दबाव बनाया बल्कि काशी विश्वनाथ मंदिर एवं मथुरा स्थित कृष्णजन्मभूमि सहित रामजन्मभूमि जैसे आस्था के शीर्ष केंद्रों को वापस हिंदुओं को सौंपे जाने की संभावना भी जगाई।

By Jagran News Edited By: Jeet KumarUpdated: Tue, 16 Jan 2024 06:30 AM (IST)
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मराठा सरदार महादजी के समय में रामजन्मभूमि जैसे आस्था केंद्रों को वापस हिंदुओं को सौंपे जाने की उम्मीद जगी थी
 रमाशरण अवस्थी, अयोध्या। यह वह दौर था, जब मराठे 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई की पराजय से उबर कर महादजी सिंधिया के नेतृत्व में अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा को फिर से बढ़ाने में लगे थे। इस अभियान के तहत उन्होंने न केवल दिल्ली पर दबाव बनाया, बल्कि काशी विश्वनाथ मंदिर एवं मथुरा स्थित कृष्णजन्मभूमि सहित रामजन्मभूमि जैसे आस्था के शीर्ष केंद्रों को वापस हिंदुओं को सौंपे जाने की संभावना भी जगाई।

मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने 1771 ई. में मुगल बादशाह शाह आलम को परास्त कर उसे अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश किया। बादशाह ने महादजी को पेशवा के प्रतिनिधि के रूप में वजीर उल मुल्क की उपाधि से विभूषित किया। शाहआलम नाममात्र का बादशाह था और मुगल शासन के सारे सूत्र मराठों के हाथ में थे। यह स्थिति करीब 50 वर्ष तक बनी रही।

गुलाम कादिर ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया

1788 में मुगल शासन पर महादजी के प्रभाव में और वृद्धि हुई। उन दिनों वह सामरिक अभियान के संबंध में दक्षिण की यात्रा पर थे। इसी रिक्तता का लाभ उठाकर रुहेल सरदार गुलाम कादिर ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और शाह आलम को नृशंस यातनाएं दीं। यह समाचार सुन कर महादजी पूरी शीघ्रता के साथ दक्षिण भारत से दिल्ली आए और उन्होंने शाह आलम को पुन: सिंहासनासीन कराने के साथ गुलाम कादिर का सिर धड़ से अलग कर दिया।

गोवध बंद कराने का फरमान जारी किया

महादजी के इस उपकार ने शाहआलम को और भी कृतज्ञ बना दिया और मुझे भी। मेरे लिए महादजी नई उम्मीद बनकर सामने आए। एक बार को तो महादजी के रूप में मुझे विक्रमादित्य की छाया दृष्टिगत होने लगी। महादजी के प्रयत्न से 1789 ई. में शाहआलम ने हिंदुओं की भावनाओं के अनुरूप गोवध बंद कराने का फरमान जारी किया। शाहआलम ने 1790 ई. में अयोध्या, काशी और मथुरा के आस्था के केंद्र महादजी के माध्यम से हिंदुओं को सौंप दिए।

पेशवा दरबार के प्रभावशाली मंत्री नाना फडणवीस ने मुगलों से तीर्थ स्थलों को भी छोड़ने की मांग की

महादजी सिंधिया ने सात अगस्त 1790 को यह फरमान स्वीकार किया था। इसे लेकर किसी तरह का प्रतिरोध भी नहीं हुआ और हिंदू-मुस्लिम एकीकरण की संभावना भी प्रशस्त हुई। इसी संभावना के बीच पेशवा दरबार के प्रभावशाली मंत्री नाना फडणवीस ने मुगल सत्ता से उन अन्य तीर्थ स्थलों को भी छोड़ने की मांग की, जिसे मुगलों ने सामरिक अभियान के तहत हस्तगत कर रखा था। यह संभावना फलीभूत होती, इससे पूर्व महादजी सिंधिया, शाहआलम एवं नाना फडणवीस की मृत्यु हो गई।

रामजन्मभूमि मुक्ति का संघर्ष थमा नहीं

इतिहास ने इस पर बहुत गौर भले न किया हो, किंतु मेरे मानस पटल पर अपनी अस्मिता के रक्षक वीरों-बांकुरों की स्मृति अमिट हो गई। वे भले ही रामजन्मभूमि की मुक्ति का स्वप्न साकार नहीं कर सके, किंतु मेरा दिल जीतने में जरूर कामयाब हुए। मैं आशीर्वाद दूंगी कि उनकी पीढ़ियां युगों तक फले-फूलें। उनका प्रयास मुक्ति के संघर्ष में मील का पत्थर स्थापित करने के साथ इसका प्रेरक भी बना। उनके बाद भी रामजन्मभूमि मुक्ति का संघर्ष थमा नहीं।

मुगल सत्ता निरंतर पतनोन्मुख थी। अवध की सत्ता नवाब सआदत अली के हाथ में थी। ... तो रामजन्मभूमि मुक्ति के संघर्ष का संयोजन अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह कर रहे थे। गुरुदत्त सिंह ने भीषण संघर्ष छेड़ा और नवाबों की सेना के छक्के छुड़ा दिए। नवाब ने अंतत: हिंदुओं को रामजन्मभूमि पर पूजा-पाठ की अनुमति दी। यह अनुमति अधिक समय तक प्रभावी नहीं रह सकी और नवाबों के समय कुछ अन्य संघर्ष भी हुए।

हिंदुओं की बड़ी भीड़ ने रामजन्मभूमि पर अधिकार पाने के लिए सैन्य अभियान आरंभ किया

नासिरुद्दीन हैदर के समय मकरही के तालुकेदार के साथ हिंदुओं की बड़ी भीड़ ने रामजन्मभूमि पर अधिकार पाने के लिए सैन्य अभियान आरंभ किया। मोर्चे पर डटी शाही सेना को भाग जाना पड़ा, किंतु अतिरिक्त सहायता के साथ मोर्चे पर वापस लौटी शाही सेना के सामने हिंदुओं को हार माननी पड़ी। अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के बीच यदि एक ओर दिल्ली के मुगल और लखनऊ के नवाब कमजोर हो रहे थे, तो दूसरी ओर हनुमानगढ़ी के बाबा उद्धवदास एवं रामचरणदास तथा गोंडा के राजा देवीबख्श सिंह के नेतृत्व में रामजन्मभूमि मुक्ति का संघर्ष निरंतर प्रभावी हो रहा था।

चबूतरा और छोटा मंदिर बनाने की अनुमति दी

अवध के तत्कालीन नवाब वाजिद अली शाह की उदारता ने भी राम मंदिर से जुड़ी संभावनाएं प्रशस्त कीं। अयोध्या के राजा मान सिंह एवं अवध के दीवान टिकैतराय के प्रयत्न से नवाब ने रामजन्मभूमि के सामने चबूतरा और छोटा मंदिर बनाने की अनुमति दी। कुछ मुल्ला-मौलवियों को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने वाजिद अली को अपना रवैया बदलने का सुझाव दिया, किंतु वाजिद अली धर्मांध नहीं थे और धर्म का मर्म समझने वाले थे, यह समझ वाजिद अली शाह की इस पंक्ति से परिभाषित है, जिसमें वह कहते हैं- हम इश्क के बंदे हैं/ मजहब से नहीं वाकिफ/ काबा हुआ तो क्या/ बुतखाना हुआ तो क्या।

नवाब की इस पंक्ति को ध्यान में रखकर मेरा मन संकोच त्याग कर सच कहने का हो रहा है। मेरा अस्तित्व ही प्रेम का प्रवर्तन करने के साथ सामने आया। जब विष्णु ने करुणा से भर कर मुझे वैकुंठ से धरती पर भेजा। मंदिर निर्माण के साथ अब मैं कहीं अधिक प्रभाव से अपनी विरासत से न्याय कर सकूंगी।

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