RSS प्रमुख मोहन भागवत ने PM मोदी को बताया तपस्वी, धर्म के चार मूल्यों को आत्मसात कर राष्ट्र-कर्म में रत होने की दी सीख
भागवत बोले-आज का आनंद शब्दों में वर्णनातीत है। आज अयोध्या में रामलला के साथ भारत का स्व लौट आया है। संपूर्ण विश्व को त्रासदी से राहत देने वाला एक नया भारत खड़ा होकर रहेगा। उसका प्रतीक यह कार्यक्रम बन गया है। ऐसे समय में आपके उत्साह-आनंद का वर्णन कोई नहीं कर सकता। हम यहां जो अनुभव कर रहे पूरे देश में यही वातावरण है।
विकाश पाण्डेय, अयोध्या। भगवान रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के समारोह में शामिल हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत अपने संबोधन के दौरान भावुक हुए बिना न रह सके और उन्होंने रामराज्य की अवधारणा को व्याख्यायित करते हुए भविष्य के कर्तव्य पथ की भी चर्चा की। कोई राष्ट्र सबल कैसे हो सकता है, इसे भी बताया।
भागवत बोले-आज का आनंद शब्दों में वर्णनातीत है। आज अयोध्या में रामलला के साथ भारत का स्व लौट आया है। संपूर्ण विश्व को त्रासदी से राहत देने वाला एक नया भारत खड़ा होकर रहेगा। उसका प्रतीक यह कार्यक्रम बन गया है। ऐसे समय में आपके उत्साह-आनंद का वर्णन कोई नहीं कर सकता। हम यहां जो अनुभव कर रहे, पूरे देश में यही वातावरण है। सबमें उत्साह है।संघ प्रमुख ने कलह के दुष्परिणामों को भी रेखांकित किया।
उन्होंने कहा कि अयोध्या में रामलला आए हैं। अयोध्या से बाहर क्यों गए थे? अयोध्या में कलह हुआ। अयोध्या उस पुरी का नाम है, जिसमें कोई कलह, द्वंद्व और दुविधा के लिए स्थान नहीं। रामजी 14 वर्ष के लिए वनवास गए और दुनिया के कलह को मिटाकर वापस आए। आज पांच सौ वर्षों बाद रामलला वापस आए हैं, जिनके त्याग व तपस्या से हम यह स्वर्ण-दिवस देख रहे हैं। उनका स्मरण प्राण-प्रतिष्ठा के संकल्प में हम लोगों ने किया, आपने सुना होगा। उनके त्याग, तपस्या व परिश्रम को शत बार, सहस्र बार, कोटि बार नमन है।
इस युग में रामलला के वापस आने का इतिहास जो-जो श्रवण करेगा, वह राष्ट्र के लिए कर्म-प्रवत्त होगा। उसके राष्ट्र का सब दुख हरण होगा। ऐसा इस इतिहास का सामर्थ्य है, परंतु उसमें हमारे लिए कर्तव्य का आदेश भी है।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को तपस्वी बताते हुए उन्होंने कहा कि प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में पधारने से पहले उन्होंने कठोर व्रत रखा। जितना कठोर व्रत रखने को कहा था उससे कई गुणा अधिक कठोर व्रत-आचरण उन्होंने किया। अब हमको भी तप करना है। रामराज्य के लिए तप करना है।
इसके साथ ही उन्होंने मानस की चौपाइयों से रामराज्य की व्याख्या की-दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।
भागवत बोले-यह रामराज्य के सामान्य नागरिकों का वर्णन है। हम भी इस गौरवमय भारतवर्ष की संतानें हैं। उसका जयगान करने वाले कोटि-कोटि कंठ हमारे हैं। हमको इस प्रकार का व्यवहार रखने का सदाचरण करना पड़ेगा। हमको भी सारे कलह को विदाई देनी पड़ेगी।
छोटे-छोटे परस्पर मत रहते हैं। छोटे-छोटे विवाद रहते हैं। इसको लेकर लड़ाई करने की आदत छोड़नी पड़ेगी। रामराज्य के सामान्य नागरिक कैसे थे, निर्दंभ (दंभ से दूर)। प्रामाणिकता से आचरण करने वाले। केवल बातें करने वाले नहीं और बातें करके उसका अहंकार पालने वाले नहीं थे। काम करते थे। आचरण करते थे और अहंकार नहीं था। वे धर्मरत भी थे।भागवत ने कहा कि इस पर कठिन भाषा में प्रवचन लंबा हो सकता है, लेकिन थोड़े में समझ सकते हैं।
श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि धर्म के चार मूल्य हैं, जिनकी चौखट पर धर्म है। सत्य, करुणा, शुचिता, तपस। उसका आज हमारे लिए युगानुकूल आचरण क्या है? सत्य कहता है कि सब घटों में राम हैं। ब्रह्म सत्य है, वही सर्वत्र है तो हमको यह जानकर आपस में समन्वय से चलना होगा। परस्पर समन्वय रखकर व्यवहार करना यह धर्म का पहला आचरण है।करुणा दूसरा कदम है। उसका आचरण है सेवा और परोपकार। सरकार की कई योजनाएं गरीबों को राहत दे रही हैं। सब हो रहा है, लेकिन हमारा भी कर्तव्य है कि जहां पीड़ा-दु:ख दिखे, वहां दौड़ जाएं। सेवा करें। दोनों हाथों से कमाएं। अपने लिए न्यूनतम आवश्यक रखकर बाकी वापस दें। यही आज करुणा का अर्थ है। शुचिता पर चलें। यानी पवित्रता होनी चाहिए। पवित्रता के संयम चाहिए।
उन्होंने कहा कि सब अपनी इच्छाएं, सब अपने मन, सब अपनी बातें ठीक होंगी ही, ऐसा नहीं है। ठीक होंगी तो भी अन्य के भी मत हैं। अन्य की भी इच्छाएं हैं। इसलिए अपने आपको संयम में रखते हैं तो सारी पृथ्वी सभी मानवों को जीवित रखेगी।संघ प्रमुख ने महात्मा गांधी की उक्ति से अपनी बात आगे बढ़ाई- द वर्ड हैज एनफ फार एवरीवन नीड, बट नाट एनफ फार एवरीवन ग्रीड। लोभ नहीं करना।संयम में रहना और अनुशासन का पालन करना। अपने कुटुंब, समाज में अनुशासन का पालन करना। भगिनी निवेदिता कहती थीं, स्वतंत्र देश में नागरिक संवेदना रखना और नागरिक अनुशासन का पालन करना, यही देशभक्ति का रूप है। इससे जीवन में पवित्रता आती है। तपस्या का तो मूर्तिमान उदाहरण आपके सामने दिया गया। व्यक्तिगत तपस तो हम करेंगे।
सामूहिक तपस क्या है-संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। हम साथ चलेंगे। बोलेंगे आपस में, उसमें से एक सहमति का संवाद निकालेंगे। एक ही भाषा बोलेंगे। वह वाणी मन, वचन, कर्म समन्वित होगा और मिलकर चलेंगे। अपने देश को विश्वगुरु बनाएंगे। यह तपस हम सबको करना है।
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