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सांप्रदायिक सौहार्द को नहीं तोड़ सकी थी अंग्रेजी हुकुमत

रामानुज बागपत : अंग्रेज हुक्मरान जब हिन्दुस्तान पर अपना आधिपत्य स्थापित कर रहे थे तो वह भारत की सामा

By Edited By: Published: Sat, 09 May 2015 11:49 PM (IST)Updated: Sat, 09 May 2015 11:49 PM (IST)

रामानुज बागपत : अंग्रेज हुक्मरान जब हिन्दुस्तान पर अपना आधिपत्य स्थापित कर रहे थे तो वह भारत की सामाजिक समरसता के साथ धार्मिक एवं सांस्कृतिक रीढ़ को भी तोड़ने को उद्धत थे ताकि ¨हदू-मुस्लिम एकता को तहस नहस कर दिया जाए। लेकिन हिन्दुस्तान की हजारों वर्ष पुरानी सांस्कृतिक विरासत और सांप्रदायिक सहिष्णुता को हिला पाना ब्रितानी शासन व उसकी फौज के लिए दुष्कर साबित हुआ। वह भारत के अटूट भाईचारे के बंधन और सांप्रदायिक सौहार्द की दीवार को हिला तक नहीं सके। इसकी नींव तक पहुंचना तो बहुत दूर की कौड़ी थी। फिरंगियों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बिरादरियों की एकता व भाईचारे में सांप्रदायिक जहर घोलने के लिए तमाम कुत्सित प्रयास किए ,लेकिन उनके मंसूबे कामयाब नहंीं हो सके।

ब्रितानी फौज,बागपत के रास्ते देश की राजधानी दिल्ली पहुंचने में तो किसी तरह कामयाब हो गयी थी, लेकिन ¨हदू-मुसलमानों की समस्त बिरादरियों ने एक साथ अंग्रेजों का न केवल डटकर मुकाबला किया बल्कि उनको मुंहतोड़ जवाब भी दिया था। बागपत के हीरो और शेर बाबा शाहमल के नेतृत्व में जहां आजादी के परवानों (जाटों,रवा राजपूतों,मुसलमानों और गुर्जरों तथा अन्य बिरादरियों) ने एक होकर अंग्रेजी फौज के दांत खट्टे कर दिए थे, वहीं महान क्रांतिकारी बाबा शाहमल ने बड़ौत तहसील पर कब्जा कर लिया था और गंगा बिशन सिंह पंवार को बड़ौत का तहसीलदार नियुक्त कर दिया था।

इस गदर में रवा राजपूतों की बिरादरी ने अंग्रेजों को मिटाने में खुद को न्योछावर कर दिया था। समाज के बड़े-बड़े जमींदार घराने और बिरादरी के तमाम लोग खत्म हो गए थे। उनके घरों को जला दिया गया था। फसलें उजाड़ दी गई थीं। वह लोग अपने परिवार के साथ इधर-उधर भाग रहे थे। कुछ लोग यहां से पलायन भी कर गए थे,हालांकि आजादी के बाद वे लोग वापस आ गए थे। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार 1857 का गदर रवा राजपूतों की आहुति के लिए भी प्रसिद्ध है। 1857 की क्रांति में पश्चिमी उप्र के लोगों ने जिस जज्बे,ताकत, आत्मबल और बेमिशाल एकता के साथ लड़ाई लड़ी, उससे अंग्रेजों के हौसले पस्त हो गए थे।

ब्रिटिश अत्याचार भी न डिगा सकाहौसले-

यह भारतीय मिट्टी और यहां की सकारात्मक सोच ही थी,जो अंग्रेजों के तमाम अत्याचार और दमन के तरीके भी न तो हिन्दुस्तानियों को डिगा सके और न ही क्रांतिकारियों के हौसलों को तोड़ सकी। ब्रिटिश सरकार जितना सख्त हो रही थी,उससे कहीं अधिक भारतीय क्रांतिकारी ताकतवर हो रहे थे। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद अंग्रेज सरकार ने इस क्षेत्र में सभी विद्रोही नेताओं व उन तमाम गांवों पर जबर्दस्त अत्याचार किए। उनको लाचार बना दिया गया,जिन्होंने क्रांति में सहयोग किया था। बड़ौत तहसील के तहसीलदार व रवा राजपूत नेता ठाकुर गंगा बिशन सिंह पंवार को पकड़ लिया गया और उन्हें फांसी दे गई। फांसी के समय उनकी एक आवाज थी 'मात हवे रहौंगो पर मातहत रहौंगे ना'। आज इन शहीद रवा राजपूत ठाकुर गंगा बिशन को विस्मृत कर दिया गया है।

बहादुर शाह के समक्ष पेश हो गए थे बाबा-

10 मई 1857 को रविवार के दिन मेरठ में सैनिकों ने अंग्रेजों खिलाफ बिगुल बजा दिया था। मेरठ के विद्रोही सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों की हत्या व लूटपाट कर 11 मई को प्रात: दिल्ली में मुगलबादशाह बहादुर शाह जफर के समक्ष उपस्थित हुए थे। इस घटनाक्रम की जानकारी देश भर में आग की तरह फैल गई थी। शाहमल ने सर्वप्रथम 12 व 13 मई को अपने साथियों को लेकर फिरंगीपरस्त बंजारे व्यापारियों के दल पर आक्रमण कर दिया। इस लूटपाट में उन्हें काफी संपत्ति मिली थी। इसके बाद शाहमल व उनके साथियों ने बड़ौत तहसील व पुलिस चौकी पर हमला बोला था और वहां लूटपाट कर तोड़फोड़ कर दी थी।

पट्टी चौधरान हवेली में बनती योजना-

84 गांव के चौधरी श्योसिंह की विशाल एवं भव्य हवेली में उनकी कोर्ट लगती थी। यह क्रांतिकारियों का कार्यालय था। यहीं चौधरी श्योसिंह, बाबा शाहमल तथा चौधरी अचल सिंह गुर्जर अंग्रेजों के विरुद्ध योजना बनाते थे। श्योसिंह ने बाबा को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया था। क्रांति की असफलता के पश्चात अंग्रेजों ने विशाल एवं भव्य हवेली को भूमिसात कर पूरी तरह से नष्ट कर दिया और श्योसिंह को पत्थर के कोल्हू से पेरवा दिया था। बड़ौत तहसील को भी समाप्त कर दिया। बड़ौत के एक इलाके में क्षेत्र के सभी बिरादरियों के चौधरी रहते थे। इस कारण से एक पट्टी को चौधरान पट्टी कहा जाता था। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार बावली निवासी श्योसिंह और बाबा शाहमल ने गांव में एक बार विशाल पंचायत की थी, जिसकी अध्यक्षता स्वामी महर्षि दयानंद सरस्वती ने की थी, इसमें आजादी की लड़ाई पर वृहद चर्चा हुई थी।

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डाक बगले में क्रांतिकारी रखते गोला-बारूद

सरूरपुर गांव स्थित डाक बंगला अंग्रेजी फौज का संचार का बड़ा केंद्र था। क्रांतिकारियों ने संघर्ष कर इस डाक बंगले को अंग्रेजी फौज से छीन लिया था। वहां लोग यहां पर रहते और अपनी गोरिल्ला योजना बनाने के साथ गोला-बारूद भी रखते थे। लेकिन कुछ दिनों बाद अंग्रेजों ने इसे फिर से अपने कब्जे में ले लिया था।

तालाब में छिपे क्रांतिकारियों को उतारा था मौत घाट

क्रांतिकारी गांव के नाम प्रसिद्ध मुस्लिम बाहुल्य बसौद गांव क्रांतिकारियों के लिए हर तरह से सुरक्षित था। इससे सहज ही हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को समझा जा सकता है। बाबा शाहमल आजादी के परवानों के लिए यहीं पर भारी भरकम राशन की व्यवस्था रखते थे। इसकी जानकारी पर अंग्रेजों ने गांव में आक्रमण कर दिया तो वहां पर क्रांतिकारियों ने फिरंगी फौज का डटकर सामना किया। तमाम क्रांतिकारी बचने के लिए गांव के तालाब में भी छिप गए थे,लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें भी नहीं बख्शा और अपनी अंधाधुंध गोलियों से 87 देशभक्तों को मौत के घाट उतार दिया था।


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