बहुत से रोगों में आयुर्वेदिक सर्जरी कारगर, बेवजह किया जा रहा है विरोध
आयुर्वेद में सर्जरी की अनुमति मिलने के विरोध में देश भर के आइएमए से संबद्ध एलोपैथी डॉक्टर प्रदर्शन कर रहे हैं। वहीं दैनिक जागरण ने राजकीय आयुर्वेदिक कॉलेज बरेली के मेडिकल सर्जन डॉ.मनोज कुरील से इस बाबत बात की।
By Sant ShuklaEdited By: Updated: Thu, 10 Dec 2020 01:20 PM (IST)
बरेली, जेएनएन। आयुर्वेद में सर्जरी की अनुमति मिलने के विरोध में देश भर के आइएमए से संबद्ध एलोपैथी डॉक्टर प्रदर्शन कर रहे हैं। वहीं, दैनिक जागरण ने राजकीय आयुर्वेदिक कॉलेज, बरेली के मेडिकल सर्जन डॉ.मनोज कुरील से इस बाबत बात की। उन्होंने कई नियम, कानून और शिक्षा का हवाला देते हुए सर्जरी को पूरी तरह वैध बताया। साथ ही कई नियमपूर्ण कारक बताते हुए कहा कि सर्जरी की इस अनुमति को खिचड़ी या मिक्सौपेथी बताना अफसोसजनक है।
उन्होंने बताया कि आयुर्वेद में मेडिकल सर्जन की डिग्री के लिए देश भर में कुल 150 से 200 के आसपास ही सीट होंगी। इसके लिए नौ साल की मेडिकल की पढ़ाई और प्रशिक्षण का समय लगता है। केंद्र सरकार ने केवल उन्हेंं ही गजट नोटिफिकेशन द्वारा गिनती की शल्य चिकित्सा के लिये अधिकृत किया है जो पहले से ही सर्जरी कर रहे हैैं। इनमें से केवल गिनती के कुछ ही लोग निजी चिकित्सक होते हैं,अधिकांश लोग विभिन्न सरकारी आयुर्वेदिक कॉलेज में सेवाएं देते हैैं। डॉ.मनोज कुरील बताते हैैं कि कुछ सौ लोग ही मेडिकल सर्जन हैैं। वहीं, नए गजट नोटिफिकेशन के बावजूद मुश्किल से सौ लोग ही 58 प्रकार की सर्जरी करेंगे।
सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के मूल सिद्धांत
आचार्य सुश्रुत काशीराज दिवोदास धन्वंतरि के सात शिष्यों में प्रमुख थे। उन्होंने काशी (वाराणसी) में शल्य चिकित्सा सीखकर आयुर्वेद के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक सुश्रुत संहिता लिखी। यह शल्य चिकित्सा के मूल सिद्धांतों पर उपयोगी जानकारी देती है। इसमें उन्होंने कई शल्य चिकित्साओं से जुड़ी कारगर विधि और तकनीक के बारे में लिखा। उन्होंने छह विभिन्न श्रेणियों में 100 से अधिक विकसित चिकित्सीय औजार और विभिन्न शल्य क्रियाओं में इस्तेमाल होने वाले 20 प्रकार के धारदार सर्जिकल उपकरण विकसित किए।
यहां सर्जरी में दिखती है दक्षता
मेडिकल सर्जन डॉ.मनोज बताते हैैं कि राइनोप्लास्टी यानी क्षतिग्रस्त नाक फिर से बनाना, लोबुलोप्लास्टी यानी कान की लौ फिर ठीक करना, मूत्र थैली की पथरी निकालना, लैपरोटोमी और सिजेरियन सेक्शन, टूटी हड्डी जोडऩा, आंतरिक फोड़ा, आंत और मूत्र थैली के छिद्रों से जुड़े उपचार, प्रोस्टेट बढऩा, बवासीर, फिस्टुला आदि उपचार की कारगर विधि खोजने जैसे विषय शल्य चिकित्सा में आयुर्वेद की दक्षता को दर्शाते हैं।
अंग्रेजों के समय में घटा आयुर्वेद का प्रचलन आयुर्वेद में सर्जरी का प्रचलन अंग्रेजों के आने के बाद कम होता चला गया। आजादी के बाद विश्वविद्यालयों में 1964 में आयुर्वेद में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई की शुरुआत हुई। अब आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा के प्रयोग का दौर आरंभ हुआ। कई प्रसिद्ध आयुर्वेदिक सर्जन विश्वविद्यालय से जुड़े और आयुर्वेद में शल्य प्रणाली के शिक्षण, प्रशिक्षण, शोध एवं उपयोग के क्षेत्र में सराहनीय योगदान दिया। उनमें से बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के संस्थापक एवं निदेशक प्रोफेसर केएन उडुपा का विशेष योगदान रहा है। प्रोफेसर उडुपा 1959 में बीएचयू के साथ आयुर्वेद कॉलेज के प्रिंसिपल और सर्जरी के प्रोफेसर के रूप में जुड़े। जिसके बाद 1970 से आयुर्वेद और आधुनिक मेडिसिन, दोनों का ही भरपूर विकास हुआ।
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