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बरेली: HIV का तीन मिनट में चलेगा पता, भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिकों के नैनो बायो सेंसर को मिला पेटेंट

एचआइवी संक्रमण की रोकथाम के लिए देश में गंभीर प्रयास चल रहे हैं। इसके परिणाम भी दिखने लगे हैं। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2021 के बीच देश में वार्षिक नए संक्रमण में करीब 43 प्रतिशत की कमी देखी गई है।

By Jagran NewsEdited By: Yogesh SahuUpdated: Tue, 06 Jun 2023 06:11 PM (IST)
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भारतीय व अमेरिकी विज्ञानियों के गहन शोध से एचआइवी की रोकथाम के नए द्वार खुल सकते हैं।
रजनेश सक्सेना, बरेली। एचआइवी संक्रमण की रोकथाम के लिए देश में गंभीर प्रयास चल रहे हैं। इसके परिणाम भी दिखने लगे हैं।

राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2021 के बीच देश में वार्षिक नए संक्रमण में करीब 43 प्रतिशत की कमी देखी गई है।

संक्रमण की रोकथाम के लिए समय पर एचआइवी की पहचान बेहद अहम है। इसी क्रम में भारतीय व अमेरिकी विज्ञानियों के गहन शोध से एचआइवी की रोकथाम के नए द्वार खुल सकते हैं।

आठ वर्ष चले इस शोध के आधार पर बने नैनो बायो सेंसर से एचआइवी की पहचान सिर्फ तीन मिनट में हो सकेगी। अमेरिकी स्वास्थ्य एवं मानव सेवा विभाग सेंसर का सफल परीक्षण कर चुका है।

भारत की ओर से शोध में महात्मा ज्योतिबाफुले रुहेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो केपी सिंह व उनकी टीम शामिल रही।

फरवरी में सेंसर को पेटेंट मिल गया। अब जांच के लिए सेंसर आधारित डिवाइस बाजार में उतारने की तैयारी है।

दो भाग में हुआ शोध

विभिन्न देशों के साथ समय-समय पर संयुक्त शोध कार्य किए जाते हैं। इसी के अंतर्गत वर्ष 2016 में रुहेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. केपी सिंह को इंडो-अमेरिका रिचर्स प्रोजेक्ट मिला।

बायोफिजिक्स में शोध कर चुके प्रो. सिंह ने बताया कि संयुक्त शोध के दो भाग थे। पहला यह कि अमेरिका की टीम ने ग्लाइकोप्रोटीन-140 एमएस तैयार किया।

दूसरे भाग के अनुसार, ग्लाकोप्रोटीन-140 एमएस की सहायता से एचआइवी की पहचान के लिए नैनो बायो सेंसर मुझे तैयार करनी थी।

चार वर्ष तक इस सेंसर पर काम हुआ, इसके बाद विभिन्न क्षेत्रों में परीक्षण किया गया। शोध कार्य के दौरान उनकी टीम में उनके छात्र डा. अनुज नेहरा भी शामिल थे।

इस तरह काम करती है डिवाइस

प्रो. सिंह ने बताया कि अमेरिकी विज्ञानियों ने ग्लाइकोप्रोटीन-140 एमएस तैयार किया, जो कि एचआइवी के लिए मोनोक्लोनल एंटीबाडी की तरह काम करता है।

यह एचआइवी वायरस के संपर्क में आते ही उसकी पहचान कर लेता है। इस पहचान को सिग्नल के रूप में देखने के लिए डिवाइस की जरूरत थी।

इसे बनाने के लिए पॉलीकार्बोनेट (मैटेरियल) की बेहद पतली झिल्ली और ग्रैफीन नामक कार्बन मैटीरियल का इस्तेमाल कर नैनो बायो सेंसर तैयार किया गया है।

इस सेंसर के अंदर ग्लाइकोप्रोटीन-140 एमएस का लेप लगाया गया है। जैसे ही इस लेप पर एचआइवी संक्रमित रक्त की बूंद डाली जाती है तो ग्लाइकोप्रोटीन-140 एमएस उसकी पहचान कर लेता है।

इस पहचान को बायो सेंसर परख लेता है और सिग्नल देना शुरू कर देता है। इस पूरी प्रक्रिया में तीन से चार मिनट तक का समय लगता है।

अभी तक यह है व्यवस्था

इस समय एचआइवी की पहचान के लिए आरटीपीआर जांच होती है। इसमें वायरस की कई कार्बन कापी कर दी जाती हैं, जिसके बाद पहचान होती है।

इस प्रक्रिया में कम से कम 24 घंटे लगते हैं। यही कारण है कि आरटीपीआर जांच रिपोर्ट आने में दो दिन का समय लग जाता है।

प्रो. सिंह बताते हैं कि इस नैनो बायो सेंसर का लाभ पूरी दुनिया को मिल सकेगा। अमेरिका और भारत की संयुक्त टीम ने इसका पेटेंट कराया है।

अब कंपनियां अपने अनुसार तय करेंगी कि डिवाइस किस प्रकार सिग्नल को प्रदर्शित करें। जैसे, मलेरिया जांच के दौरान किट में एक लाइन दिखने पर गैरसंक्रमित एवं दो लाइनें दिखने पर संक्रमित की पहचान होती है।

संभव है कि कंपनी इस डिवाइस का सिग्नल भी इसी प्रकार दे या कोई अन्य तरीका अपनाए।

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