Ayodhya Ram Mandir: राम मंदिर आंदोलन ने समाज को एक साथ खड़ा होने का दिया बड़ा आधार
Ayodhya Ram Mandir अयोध्या में श्रीराम मंदिर का प्रस्तावित प्रारूप। नई पीढ़ी को यह बताया जाना जरूरी है कि राममंदिर आंदोलन ने ही समाज को एक साथ खड़ा होने का बड़ा आधार दिया। निधि संग्रह के दौरान ऐसे सभी सकारात्मक प्रयासों को याद करना जरूरी है। फाइल
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 18 Jan 2021 12:44 PM (IST)
उमेश चतुर्वेदी। इंटरनेट मीडिया के हस्तक्षेपी युग में राम मंदिर निर्माण के लिए निधि संग्रह का अभियान शुरू हो और इस पर टीका-टिप्पणी न हो, तभी हैरत होती। इस पर टीका-टिप्पणी करने वाला समूह यह काम करता रहेगा। लेकिन निधि संग्रह अभियान के बहाने राम मंदिर आंदोलन के प्रभावों का आकलन करना भी जरूरी है। राममंदिर आंदोलन को एक वर्ग द्वारा भारत की कथित सहिष्णु परंपरा को तोड़ने की बात अब अनजानी नहीं रही। इस विचार के बरक्स राष्ट्रवादी विचारधारा इस आंदोलन को राष्ट्र के गौरवबोध के जागरण से जोड़कर भी देखती है। विरोधी इसे हिंदुत्व का गौरवबोध बताते नहीं थकते, लेकिन हकीकत यह है कि लोक जागरण की यह भावना हिंदुत्व की बजाय राष्ट्रबोध को ज्यादा प्रतिबिंबित करती है।
आधुनिक युग में राममंदिर के लिए आंदोलन की शुरुआत 1853 से मानी जाती है। लेकिन उसे निर्णायक परिणति तक पहुंचाने वाला आंदोलन 1989 में शुरू हुआ, जिसे मुख्य रूप से विश्व हिंदू परिषद ने नेतृत्व दिया। हालांकि विश्व हिंदू परिषद ऐसा दावा नहीं करती, बल्कि आधिकारिक रूप से वह मानती है कि सही मायने में यह जन आंदोलन था, बस लोक जागरण में उसकी भूमिका रही। लेकिन इस लोक जागरण ने राष्ट्र को एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक जोड़ दिया। आजादी के समूचे आंदोलन का लक्ष्य सिर्फ विदेशी दासता से भारत भूमि को मुक्ति दिलाना ही नहीं रहा, बल्कि लोक जागरण के जरिये हर भारतीय के मन में राष्ट्रीयता की सोच को ठोस आधार देना भी रहा। लोक जागरण के लिए सनातनी सोच को ही आधार बनाया गया।
साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में लोक जागरण के लिए भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का जिस तरह बंकिमचंद, भारतेंदु, सुब्रमण्यम भारती आदि ले रहे थे, राजनीति के क्षेत्र में वही काम बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय ने भी किया। तिलक ने पारिवारिक स्तर पर होने वाले गणपति पूजन को सार्वजनिक बना दिया। यही स्थिति बंगाल के दुर्गा पूजा की रही। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक यह पूजा सिर्फ बंगाली जमींदारों के अहाते में या कतिपय सामथ्र्यवान बंगाली परिवारों तक सीमित थी। लेकिन बंगाल के तत्कालीन सामुदायिक नेताओं ने उसे सार्वजनिक पूजा बना दिया। कुछ वैसी ही भूमिका उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बाल गंगाधर तिलक ने पूर्व मराठा साम्राज्य में निभाई।
इसी तरह लाला लाजपत राय ने देश के पश्चिमी हिस्से में भी लोक जागरण के लिए स्थानीय सांस्कृतिक प्रतीकों का सहारा लिया। उन्होंने आर्य समाज के जरिये वेद और वैदिक विद्यालयों की पंजाब में स्थापना की। इसके जरिये उन्होंने पश्चिमी भारत में वैदिक संस्कृति की न सिर्फ प्रतिष्ठा की, बल्कि इसके माध्यम से उन्होंने लोक जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अतीत के प्रति उनकी आस्था व उसके जरिये भविष्य निर्माण की दृष्टि को उनके इस कथन में देखा-समझा जा सकता है। आजाद भारत में विकसित संकुचित राजनीतिक दर्शन ही है कि राम मंदिर आंदोलन को कभी आजादी के आंदोलन की इन परंपराओं के साथ न तो जोड़ा गया और न देखा गया।
गुलाम भारत में लोक जागरण और भारत की भावी व्यवस्था के लिए जिन सांस्कृतिक व्यक्तित्वों और प्रतीकों को पैमाने के तौर पर स्वीकार किया गया, वे व्यक्तित्व और परंपराएं आजाद भारत की राजनीति और संस्कृति में अस्वीकार्य हो गए। आजाद भारत में वैचारिकता का जो तानाबाना विकसित हुआ, उसमें धर्म का अर्थ संकुचित होता चला गया। वह संप्रदाय में बदलता गया। धार्मिकता को सांप्रदायिकता के नकारात्मक खांचे में फिट कर दिया गया। ऐसे माहौल में राममंदिर आंदोलन भी लोक जागरण का प्रतीक न रहकर सांप्रदायिकता का ही एक रूप बन गया।
सवाल उठ सकता है कि राममंदिर आंदोलन ने किस तरह देश को एक किया। याद कीजिए 1990 की दीपावली को। तब विश्व हिंदू परिषद ने सनातन समाज को जगाने के लिए रोशनी के इस त्योहार का सहारा लिया था। विश्व हिंदू परिषद ने तय किया था कि एक दीपक से पूरे देश के सनातनी घरों का दीप जलाएंगे। इस तरह देश को एकता के सूत्र में जोड़ने में इस अभियान ने अहम भूमिका निभाई। इस अभियान में जातियों की सीमा टूट गई थी। खुद को उच्च बताने वाली जातियों के कार्यकर्ता भी दलितों और पिछड़ों के घर पहुंचे थे।
इसके बाद की तमाम घटनाओं की पृष्ठभूमि में वर्तमान में एक वर्ग ऐसा भी उभरा, जिसने गर्वीली घटनाओं में भी नकारात्मक संदेश देखना शुरू किया। लिहाजा राममंदिर के लिए शुरू हुए निधि संग्रह अभियान पर सवाल उठना ही था। लेकिन इस बीच राममंदिर आंदोलन को सांप्रदायिकता के खांचे से अलग राष्ट्रीयता के उभार और भारतीय स्वाभिमान एवं मनीषा के जागरण के प्रतीक के रूप में भी देखा जाने लगा। इस सोच को जनता के बड़े हिस्से का जैसे-जैसे समर्थन बढ़ता गया, वैसे-वैसे राममंदिर आंदोलन को लेकर उसके विरोधियों का भी विचार बदला है। [वरिष्ठ पत्रकार]
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