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Shri Ram Mandir Ayodhya: इस बेला में विभोर करने वाली है महंत परमहंस रामचंद्रदास की स्मृति

Shri Ram Mandir Ayodhya मंदिर आंदोलन के पर्याय ही नहीं पहुंचे संत भी थे परमहंस।

By Divyansh RastogiEdited By: Updated: Thu, 23 Jul 2020 05:36 PM (IST)
Shri Ram Mandir Ayodhya: इस बेला में विभोर करने वाली है महंत परमहंस रामचंद्रदास की स्मृति
अयोध्या [रघुवरशरण]। Shri Ram Mandir Ayodhya: रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण की बेला में रामचंद्रदास परमहंस की स्मृति विभोर करने वाली है। वे मंदिर आंदोलन के पर्याय ही नहीं पहुंचे संत भी थे और दोनों आयामों में उन्होंने जो छाप छोड़ी, वह रामनगरी की किसी दुर्लभ धरोहर से कम नहीं हैं। यह सच्चाई उनकी लंबी जीवन यात्रा से बयां है। वह पिछली शताब्दी के तीसरे दशक का पूर्वार्ध था, जब बिहार के छपरा जिला के एक कुलीन परिवार का किशोर अपनी मौज में देश के विभिन्न हिस्सों का भ्रमण करता हुआ अयोध्या आ पहुंचा। उसने धूनी तो रमाई विरक्त आचार्य के संरक्षण में पर उसका रोम-रोम समाज के प्रति अनुरक्त था। समाज के प्रति इसी राग के चलते यह किशोर वैरागी युवा होते-होते किसी परिचय का मोहताज नहीं रह गया।

 कोई भूखा हो, बीमार पड़ा हो या जोर-जुल्म का शिकार हो। रामचंद्रदास हर किसी की मदद में खड़े मिलते थे। वे सामाजिक विषयों के प्रति सजग संवेदनशील सेवाभावी के साथ शास्त्रज्ञ, प्रखर वक्ता और साधना में रमे खांटी साधु भी थे। यह संतुलन उन्हें बेजोड़ बना रहा था। यह आसान नहीं था पर वे किसी और मिट्टी के थे और इसी के चलते उन्हें परमहंस की उपाधि से नवाजा गया। यह उपाधि किसी खास समूह-संगठन ने नहीं दी थी बल्कि समाज की उनके प्रति स्वत:स्फूर्त भावना थी। परमहंस ने भी इस उपाधि से पूरा न्याय किया। वे

भगवान राम के अनन्य उपासक थे, तो उनकी जन्मभूमि के लिए भी पूरी ताकत से खड़े हुए। 

राममंदिर के लिए वे आजादी के पूर्व से ही संघर्षरत रहे और 1949 में रामलला के प्राकट्य प्रसंग के दौरान तो वेकेंद्रीय भूमिका में सामने आए। इसके बावजूद वे सांप्रदायिक नहीं थे। रामलला के लिए संघर्ष उनकी आस्था का सवाल था, तो आस्था की इसी परिधि में सामने वाले से मृदुता और गहरी मित्रता भी थी। इस परिधि में वे हाशिम अंसारी भी शामिल रहे, जो दशकों तक बाबरी मस्जिद के पर्याय बने रहे। परमहंस और हाशिम एक ही इक्के से सिविल कोर्ट जाया करते थे। यह मेल-जोल दोस्ती में बदल गया और हाशिम यदा-कदा परमहंस के आश्रम दिगंबर अखाड़ा भी जाते थे और उनमें जमकर चुहल के साथ अपनत्व-आत्मीयता भी देखने को मिलती थी। 

1984 से 92 तक मंदिर आंदोलन निरंतर तीव्र होता गया और इसी के साथ ही परमहंस का कद भी बढ़ता गया पर उनके पांव कभी जमीन से नहीं डिगे। मंदिर आंदोलन जिन दिनों व्यापक तनाव का सबब बना था, उन दिनों भी वे यह याद दिलाना नहीं भूलते थे कि मंदिर बने पर इस शर्त पर कि हिंदू या मुस्लिम में से किसी का एक बूंद खून न गिरे। वे चांद बीबी, रहीम, रसखान एवं कारू मियां जैसे समरसता के प्रतीकों का भी मंचों से जिक्र कर अपनी भावनाओं का एहसास कराते थे। गो सेवा सहित भांति-भांति के पशु-पक्षियों में भी उनका अनुराग जगजाहिर था और उनका समन्वयवाद 2003 की सावन शुक्ल तृतीया को चिरनिद्रा में लीन होने के समय शिखर पर दिखा, जब इस फक्कड़, यायावरी और हर किसी को अपना बना लेने वाले संत को अंतिम प्रणाम करने तत्कालीन प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति, संघ प्रमुख, विहिप सुप्रीमो, राज्यपाल, केंद्र सरकार के अनेकानेक नुमाइंदों सहित जनसैलाब उमड़ा।

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