Environment Day: पर्स में रुपयों की नहीं, घटती सांसों की करें चिंता; छोटे प्रयासों से मिलेगा स्वच्छ पर्यावरण
आज के समय में कई ऐसे शोध हुए हैं जिनमें सामने आया है कि मां के दूध तक में माइक्रो प्लास्टिक पहुंच चुका है। आज भी जब वह आदिवासी इलाकों में जाते हैं तो वहां के लोग सूखी रोटी नमक के साथ खाकर भी खुश हैं।
नई दिल्ली, जागरण संवाददाता। एनसीआर में रहने वाले लोग बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए सिर्फ अच्छे वेतन और सुख-सुविधाओं को ही महत्वपूर्ण मानते हैं, लेकिन अगर जीवन को वास्तव में अच्छा बनाना है, तो पर्यावरण को बेहतर बनाना होगा।
50 साल के व्यक्ति के फेफड़ों की जांच की जाती है, तो वह जले हुए काले कागज की तरह निकलते हैं। ऐसे में जरूरत है कि हम मोटे पर्स की नहीं, बल्कि प्रदूषण से कम होती घटती सांसों की चिंता करें। हर एक नागरिक के एक छोटे से प्रयास से ही आसपास के वातावरण को बेहतर बनाया जा सकता है।
ये बातें दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इनवायरमेंट मैनेजमेंट आफ डिग्रेडेड इकोसिस्टम्स, बायो डायवर्सिटी पार्क प्रोग्राम के प्रभारी विज्ञानी डॉ. फैयाज ए. खुदसर ने जागरण विमर्श कार्यक्रम के दौरान कहीं।
पर्यावरण दिवस की थीम #BeatPlasticPollution
डॉ. खुदसर सोमवार को दैनिक जागरण के नोएडा कार्यालय में 'पर्यावरण बचाने में लोगों का योगदान' विषय पर आयोजित जागरण विमर्श कार्यक्रम में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने पर्यावरण के लगातार बिगड़ते हालातों को सुधारने के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए।
उन्होंने कहा कि इस बार पर्यावरण दिवस की थीम #BeatPlasticPollution है। वर्ष 1973 में जब पर्यावरण दिवस की शुरुआत हुई तब शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि पर्यावरण के विषय में सोचना इतना महत्वपूर्ण होगा।
आज के समय में कई ऐसे शोध हुए हैं, जिनमें सामने आया है कि मां के दूध तक में माइक्रो प्लास्टिक पहुंच चुका है। आज भी जब वह आदिवासी इलाकों में जाते हैं, तो वहां के लोग सूखी रोटी नमक के साथ खाकर भी खुश हैं और गुणवत्तापूर्ण जीवन जी रहे हैं।
शहरों में नहीं मिल पा रही लोगों को क्वालिटी लाइफ
वहीं, शहरों में तमाम सुख-सुविधाओं के बाद भी लोगों को क्वालिटी लाइफ नहीं मिल पा रही। इसके पीछे कारण यह है कि लोगों को रुपये कमाने की चिंता तो है, लेकिन स्वच्छ वातावरण की नहीं। इसके चलते वह अक्सर बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।
कई बायोडायवर्सिटी पार्क की जरूरत
डॉ. खुदसर ने बताया कि दिल्ली की दो लाइफलाइन हैं। पहली यमुना और दूसरी अरावली पर्वत शृंखला। दोनों के हालात बेहद खराब हैं। जब हमने यमुना को सुधारने के प्रयास शुरू किए, तो यमुना को समझना पड़ा। हर नदी के आसपास कई सौ मीटर की भूमि भी नदी का हिस्सा या वेटलैंड होती है।
ऐसे में उस जमीन को प्राकृतिक तरीके से ढूंढा गया। इसके बाद बिना कोई प्रयोग किए प्राकृतिक रूप से ही उसे विकसित किया गया। यहीं विकसित जमीन आज बायोडायवर्सिटी पार्क बन चुकी है। यह राजधानी ही नहीं, पूरे देश के लिए एक उदाहरण है। यमुना वजीराबाद तक तो कुछ साफ है, लेकिन उसके बाद उसकी हालत खराब है। ऐसे में कई बायोडायवर्सिटी पार्क बनाने की जरूरत है।
बच्चों से सीखें और सिखाएं भी
डॉ. खुदसर ने कहा कि बच्चे आज के समय में बड़ों से ज्यादा जागरूक हैं। पौधे लगाने और प्लास्टिक का प्रयोग न करने को लेकर वे बड़ों को सिखाते हैं। मेरी 13 साल की बेटी को चिंता रहती है कि पांच साल बाद उन्हें दिल्ली में पानी कैसे मिलेगा। ऐसे में हमें भी अपने बच्चों के लिए पानी और हवा के बारे में सोचना होगा। बच्चों के संस्कार में पर्यावरण संरक्षण का संस्कार भी जोड़ें, तभी पर्यावरण को बचाया जा सकेगा। सप्ताह या माह में एक बार यमुना किनारे जाएं, जिससे यह समझ आए कि यमुना के इन हालातों के लिए खुद कितने जिम्मेदार हैं। इन्हें कैसे सुधारा जा सकता है।
कर सकते हैं छोटे-छोटे प्रयास
सिंगल यूज प्लास्टिक का कम से कम प्रयोग करें
घरों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम जरूर बनवाएं
हार्वेस्टिंग सिस्टम चालू रहे, जिससे वर्षा जल संचय हो
सप्ताह में एक-दो घंटा पर्यावरण संरक्षण के लिए दें
पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिकारियों को पत्र लिखकर आवाज उठाएं
सरकार को चाहिए कि नियम तोड़ने वालों पर सख्त कार्रवाई करे