Chaurichaura Kand: चौरी चौरा शताब्दी महोत्सव: अफीम, अनाज और शराब के नीचे सुलग रही थी चिंगारी
Chaurichaura Kand आजाद होने की जो आग चौरीचौरा में भड़की थी उसकी चिंगारी अफीम अनाज गुड़ और शराब के नीचे सुलग रही थी। चौरीचौरा बाजार रेलवे लाइन से जुड़ा होने की वजह से उस समय व्यावसायिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण था।
By Satish chand shuklaEdited By: Updated: Thu, 04 Feb 2021 07:21 PM (IST)
रजनीश त्रिपाठी, गोरखपुर। 04 फरवरी 1922 का जन विद्रोह ब्रिटिश हुकूमत ही नहीं उन जागीरदारों के नेतृत्व को भी चुनौती थी, जिनकी ज्यादतियों से आमजन न केवल ऊब बल्कि थक चुका था। रियासतें रईस और गरीब कंगाल हो रहा था। खेतों को अपने खून से सींच कर फसल उगाने वाले गरीब किसान लगान की मार से मर रहे थे तो छोटे-छोटे व्यापारी बेहिसाब कर और चुंगी से कराह रहे थे। चौरीचौरा के आसपास जबरिया कराई जा रही अफीम की खेती हो अनाज कारोबार की प्रतिस्पर्धा। शराब के ठेकों से लेकर अंग्रेजों के लिए लगान वसूलने वाले जमींदारों के आपसी विवाद की भेंट अगर कोई चढ़ रहा था वह डुमरी खुर्द, चौरी चौरा, मुंडेरा और भोपा बाजार के आसपास का साधारण भारतीय था।
'आजाद होने की जो आग चौरीचौरा में भड़की थी उसकी चिंगारी अफीम, अनाज, गुड़ और शराब के नीचे सुलग रही थी। चौरीचौरा बाजार रेलवे लाइन से जुड़ा होने की वजह से उस समय व्यावसायिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण था। डुमरी खास के सिख जमींदार ने रेलवे स्टेशन के पास अच्छा खासा बाजार विकसित कर रखा था। वहीं से कुछ दूरी पर सरैया में गन्ने और तेल की पेराई के लिए भाप शक्ति से चलने वाली आधुनिक मशीनें लगी थी। चौरीचौरा का भोपा बाजार चमड़ा व्यापार का मुख्य केंद्र था जो शनिवार को लगता था। यहां से चमड़े का कारोबार कानपुर और कलकत्ता तक होता था। मुसलमान और अनुसूचित जाति के लोग ही इसका क्रय विक्रय करते थे। चमड़े की प्रचुर उपलब्धता के कारण ही प्रथम विश्व युद्ध के बाद गोरखपुर में सैनिकों के जूतों के लिए एक हजार जोड़ी जूते बनाने वाली मशीन लगाई गई थी। डुमरी कला में शराब, गांजा, अफीम के अलावा ताड़ी की भी कई दुकानें थीं।
मुंडेरा बाजार यहां का दूसरा बड़ा और समृद्ध व्यापारिक केंद्र था। यहां की गुड़ और अनाज मंडी की होड़ विशुनपुर बाजार से लग रही थी। मुंडेरा बाजार में अरहर दाल का बड़ा कारोबार था तो इसके आसपास बड़े पैमाने पर अफीम की खेती होती थी, जिसका ठेका हरदेव कलवार और संत बख्श सिंह के पास मिलाजुला कर रहा। अनाज की दुकानें ङ्क्षहदुओं की थीं। 1911 में 311 एकड़ क्षेत्रफल वाले चौरीचौरा इलाके से जहां 301 रुपये की लगान वसूली होती थी वहीं 1709 एकड़ के डुमरी खुर्द का लगान 2156 रुपये जमा होता था। यह स्थिति तब थी जब मांस दो आना और मछली चार-छह पाइस प्रति सेर था। चौरा और मुंडेरा जैसे महत्वपूर्ण बाजार दो अलग-अलग जागीरों के स्वामित्व में थे इसलिए प्रतिद्वंद्वता स्वरूप उनमें कई बार विवाद हो जाते थे। 1903 में बाबू संत बख्श सिंह और सरदार हरचरन सिंह के बीच हुआ विवाद न्यायालय भी पहुंचा था। ऐसे विवादों की बलि गरीब मजदूर और किसान ही चढ़ते थे। खेती से लेकर मजदूरी और व्यापार तक में हुकूमत की दमनकारी नीतियों से परेशान आमजन को असहयोग आंदोलन ने एक राह दिखाई थी, जिस पर चलकर उनमें मुक्ति पाने की उम्मीद जगी थी। इतिहासकार सुभाष चंद्र कुशवाहा ने भी अपनी पुस्तक चौरी चौरा 'विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलनÓ में इस बात का जिक्र किया है कि चौरीचौरा विद्रोह का संबंध सीधे तौर पर डुमरी खुर्द के किसानों और वहां चार फरवरी को बुलाई गई किसान सभा से है, वहीं डुमरी का संबंध उस क्षेत्र के जागीरदार से है। विद्रोह की पृष्ठभूमि में 1857 की क्रांति की ऊर्जा थी तो ब्रिटिश हुकूमत के बेइंतहा जुल्मों का जवाब भी था।
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