फांसी के फंदे पर झुलने से पहले बिस्मिल के मुंह से निकला था यह शेर, अंतिम क्षण तक जगाते रहे देशभक्ति का जज्बा
Pandit Ram Prasad Bismil गोरखपुर जेल की दीवारों पर पं. राम प्रसाद बिस्मिल नाखून से जोश भरने वाले शेर लिख डाले थे। शेर के जरिए पंडित राम प्रसाद बिस्मिल आजादी मिलने तक क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन करते रहे।
By Jagran NewsEdited By: Pragati ChandUpdated: Mon, 19 Dec 2022 09:39 AM (IST)
गोरखपुर, डॉ. राकेश राय। 'मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूं न मेरी आरजू रहे' फांसी के लिए जाने से पहले महान क्रांतिकारी पं. राम प्रसाद बिस्मिल के मुंह से निकला यह शेर आजादी के दीवानों का तबतक मार्गदर्शन करता रहा, जब तक वह मिल नहीं गई। यह शेर इस बात का भी प्रमाण है कि देश के लिए जीवन न्यौछावर करने से पहले तक बिस्मिल आजादी की पटकथा लिखते रहे। यह शेर उन अशआर की कड़ी है, जिसे बिस्मिल ने फांसी से पहले जेल की काल कोठरी की दीवारों पर अपने नाखूनों से उकेरा था। बिस्मिल के वह शब्द आज भी एकबारगी देशभक्ति का जज्बा जगा देते हैं।
जेल की कोठरी से गढ़ दिए कई शेर
दरअसल काकोरी ट्रेन एक्शन पं. बिस्मिल एक गंभीर शायर भी थे, इसलिए उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ-साथ अपने अशआर के जरिये भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी। समय-समय अशआर के जरिये आजादी को लेकर वह न केवल अपने जज्बात जाहिर करते रहे बल्कि उससे क्रांतिकारियों में जोश भी भरते रहे। यह जंग उन्होंने फांसी की सजा घोषित होने के बाद भी जारी रखी। जेल की कोठरी में उन्होंने ऐसे बहुत से शेर गढ़ दिए, जो क्रांतिकारी योजनाओं का आधार बन गए।
बिस्मिल ने फांसी से पहले गोरखपुर जेल में गुजारे 123 दिन
फांसी के पहले उन्होंने गोरखपुर जेल के कोठरी नंबर सात में 123 दिन गुजारे। इस कोठरी को उन्होंने साधना कक्ष के रूप में इस्तेमाल किया। इस बात की तस्दीक बिस्मिल अंतिम समय के उद्गार से होती है- 'मुझे इस कोठरी में आनंद आ रहा है। मेरी इच्छा यह थी कि किसी न किसी साधु की गुफा पर कुछ दिन निवास करके योगाभ्यास किया जाता। साधु की गुफा न मिली तो क्या, साधना की गुफा तो मिल गई। बड़ी कठिनता से यह अवसर प्राप्त हुआ है।' चूंकि जेल में बिस्मिल के पास लिखने-पढ़ने की कोई सामग्री नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने जज्बात को शेर के जरिये कोठरी की दीवार पर नाखून से ही उकेर दिया। उन्हें फांसी देने अंग्रेजों ने उनकी मूल लिखावट तो मिटा दी लेकिन उन शेरों को लोगों के दिल से नहीं मिटा सके।आज भी दिवारों पर अंकित है शेर
आज भी वह शेर जेल के उस हिस्से की दीवारों पर देखे जा सकते हैं, जहां बिस्मिल को देश की स्वाधीनता के लिए फांसी के फंदे पर झूलना पड़ा था। जेल में उनके वह दो शेर भी एक शिलापट्ट पर उल्लिखित है, जिसे उन्होंने फांसी से पहले लिखे अपने अंतिम पत्र में इस जोश भरे इस वाक्य के साथ लिखा था कि 'मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा मातृभूमि तथा उसकी दीन संपत्ति के लिए उत्साह व ओज के साथ काम करने के लिए शीघ्र फिर लौट जाएगी।'
शेर जो जेल की दीवारों पर दर्ज हैं
यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहत्रों बार भी।तो मैं भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी।हे ईश, भारत वर्ष में शत बार मेरा जन्म हो।कारण सदा ही मृत्यु का, देशोपकारक कर्म हो।।मरते बिस्मिल, रोशन, लहर, अशफाक अत्याचार से।होंगे पैदा सैकड़ों उनकी रुधिर धार से।
उनके प्रबल उद्योग से उद्धार होगा देश का।तब नाश होगा सर्वदा दुख शोक के लवलेश का।
कुछ आरजू नहीं है, आरजू तो ये है,रख दे जरा सी कोई खाके तन कफन पे।वक्त आने दे हम बता देंगे ऐ आसमां,हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है।
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