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और बदल गई स्वाधीनता संग्राम की तस्वीर

चौरी चौरा कांड ने स्वाधीनता संग्राम को नया मोड़ दे दिया था। क्रांतिकारियों व अंग्रेज सिपाहियों के बीच हुई झड़प ने न सिर्फ महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को गतिहीन कर दिया बल्कि कांग्रेस की विचारधारा में भी अनिश्चितता व दरार ला दी थी।

By Pragati ChandEdited By: Updated: Sat, 09 Apr 2022 04:51 PM (IST)
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चौरी-चौरा की घटना पर प्रोफेसर निधि चतुर्वेदी का आलेख। (फाइल)
गोरखपुर। करीब एक शताब्दी पूर्व गोरखपुर के चौरी-चौरा कस्बे में असहयोग आंदोलन में शामिल क्रांतिकारियों और अंग्रेज सिपाहियों के बीच हुई हिंसक मुठभेड़ ने स्वाधीनता संग्राम को नया मोड़ दे दिया था। इसने न सिर्फ महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को गतिहीन कर दिया बल्कि कांग्रेस की विचारधारा में भी अनिश्चितता व दरार ला दी थी। यहां पढ़ें- प्रोफेसर निधि चतुर्वेदी का आलेख...

चार फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा की घटना ने जलियांवाला बाग से प्रारंभ हुई वेदनाओं का प्रत्युत्तर दिया, परंतु चौरी-चौरा क्रांति असहयोग को समाप्त करते हुए कांग्रेस के भीतर ही वैचारिकियों के टकराव को जन्म दे देगी, यह अनुमान से कुछ अधिक ही था। शायद इसलिए क्योंकि असहयोग आंदोलन ने एक वर्ष के भीतर जिस स्वराज का स्वप्न 1920 में दिया था, वह मूल में तो अस्पष्ट था ही अपितु आंदोलन वापसी से वह अधिकांश लोगों को क्रिया में भी असफल दिखा। खासकर युवा राष्ट्रवादी, जो कांग्रेस के आंदोलन से जुड़े थे और जो मातृभूमि हेतु सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर थे, दोनों की ही प्रतिक्रिया असहयोग आंदोलन को वापस लिए जाने एवं स्वराज के स्वप्न पर तीखी थी। देश की मनोस्थिति ऐसे भी समझी जा सकती है कि असहयोग उपरांत 1922 में महात्मा गांधी की गिरफ्तारी पर उबाल व उभार तक देखने को नहीं मिला।

पुन: संगठित हुआ आंदोलन

चौरी-चौरा क्रांति से साइमन कमीशन के आगमन तक के घटनाक्रम का यदि सूक्ष्म अन्वेक्षण किया जाए तो प्रथम दृष्टतया आंकड़े यह इंगित करते हैं कि मार्च 1923 में कांग्रेस की सदस्यता में भारी गिरावट आई, जैसा कि उसकी 20 में से 16 प्रांतीय समितियों की रिपोर्ट दर्शाती है। इसके अतिरिक्त खिलाफत-असहयोग का मेल 1922-23 के भीषण सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ गया। जिस प्रकार स्वदेशी आंदोलन के व्यापक प्रश्नों को लेकर कांग्रेस में 1907 में बंटवारे के परिणामस्वरूप क्रांतिकारी आंदोलन उत्पन्न हुआ था, कुछ उसी प्रकार असहयोग आंदोलन की वापसी से गांधी मार्ग को छोड़ते हुए युवा क्रांतिकारी आंदोलन पुन: संगठित रूप से उत्पन्न हुआ। स्वराज के प्रश्न को लेकर सर्वाधिक दुखी युवाजन थे। इसके अतिरिक्त असहयोग आंदोलन की वापसी ने किसी हद तक आधुनिक समाजवादी चिंतन को भी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में पदार्पण की भूमि उपलब्ध कराने में सहायक की भूमिका अदा की।

विभक्त हो गई कांग्रेस

अब प्रश्न आता है कि कांग्रेस के भीतर क्या हुआ, जो असहयोग वापसी ने कांग्रेस को दो खेमों में विभक्त कर दिया। एक खेमा महात्मा गांधी के मूल कार्यक्रमों में बदलाव नहीं चाहता था। इस कार्यक्रम में सबसे बड़ा मुद्दा था 1919 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा प्रदत्त नई परिषदों के चुनाव के बहिष्कार को जारी रखना, जो 1923 नवंबर में होने थे। ज्ञातव्य हो कि असहयोग आंदोलन के कार्यक्रमों में यह प्रस्ताव बड़ी मुश्किल से पारित हो पाया था कि 1920 के परिषदीय चुनाव का बहिष्कार किया जाए, जैसा कि कांग्रेस की प्रांतीय परिषदों के प्रस्तावों से समझ में आता है।

असहयोग आंदोलन के उपरांत परिषदीय चुनाव पुन: नवंबर 1923 में होने थे। 1922 में कांग्रेस के एक घटक का यह मानना था कि परिषदों के चुनाव को लड़ना चाहिए और अंग्रेजी सरकार का विरोध परिषदों के भीतर जाकर किया जाना चाहिए। इस मुद्दे ने कांग्रेस को परिवर्तनवादी और अपरिवर्तनवादी वैचारिकी में विभक्त कर दिया। जहां सी. राजगोपालाचारी और कस्तूरी रंगा अयंगर महात्मा गांधी के कार्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं चाहते थे, वहीं दूसरी ओर मोतीलाल नेहरू, सी. आर. दास और विट्ठल भाई पटेल 1923 के परिषदीय चुनाव को लड़ने के पक्षधर थे तथा सरकार के विरुद्ध असहयोग को इस नए रूप में जीवित रखना चाहते थे। इसी दौरान चित्तरंजन दास ने ‘स्वराज’ को पुन: परिभाषित करते हुए कहा था - ‘स्वराज जनमानस को संबोधित होना चाहिए न कि मात्र कुछ विशेष वर्गों को’।

परिषदीय चुनावों में भागीदारी करने का प्रस्ताव कांग्रेस के 1922 सत्र में रखा गया परंतु यह पारित नहीं हो सका। तदोपरांत मोतीलाल नेहरू एवं चित्तरंजन दास द्वारा स्वराज दल की घोषणा कर दी गई, जो 1923 के चुनाव में भागीदारी करेगी और औपनिवेशिक सरकार का विरोध संवैधानिक तरीकों से परिषद के भीतर चलाएगी। निश्चित ही इस बहस को लेकर कांग्रेस बंटवारे के कगार पर पहुंच चुकी थी, परंतु देश में चल रहे कौमी दंगों के माहौल में अंततोगत्वा कांग्रेस के काकीनाडा सत्र (दिसंबर, 1923) में यह समझौता हुआ कि जो कांग्रेसी चाहे वह स्वराज दल के बैनर तले 1923 का चुनाव लड़ सकते हैं।

अर्हता के खिलाफ निंदा प्रस्ताव

रहा प्रश्न महात्मा गांधी का, तो वे इस समय जेल में थे। परंतु 1924 में रिहा होने के उपरांत उन्होंने स्वराज दल को प्रारंभ में स्वीकार नहीं किया। जून, 1924 के अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अहमदाबाद अधिवेशन में तीन प्रस्ताव रखे गए, जो कांग्रेस के भीतर की तस्वीर अधिक स्पष्ट करते है, ये प्रस्ताव थे-

1- कांग्रेस की सदस्यता लेने के लिए चरखा चलाना एक न्यूनतम अर्हता होनी चाहिए।

2- जो स्वराज दल के बैनर पर चुनाव लड़ रहे हैं उन्हें कांग्रेस के पार्टी पदों से हटाया जाए।

3- बंगाल के क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा पर आलोचना प्रस्ताव पारित किया जाए।

प्रथम दो प्रस्ताव पारित नहीं हो पाए और गोपीनाथ साहा के मामले पर तीखी बहस के उपरांत, जिसमें सी.आर. दास तथा बंगाल के प्रदेश कांग्रेस कमिटी द्वारा इसका प्रचंड विरोध किया गया और यह निंदा प्रस्ताव मात्र 78 बनाम 70 मतों से पारित हो पाया। इस घटनाक्रम पर महात्मा गांधी ने तीन जुलाई, 1924 को ‘यंग इंडिया’ अखबार में प्रतिक्रिया की- ‘मैं इस पराजय को विनम्रता से स्वीकारता हूं।’ अंतत: नवंबर, 1924 में गांधी जी द्वारा स्वराजियों को स्वीकार्यता प्रदान कर ही दी गई। बदले में कांग्रेस की सदस्यता हेतु गांधी जी के चरखे की अर्हता को कांग्रेस में स्वीकार कर लिया गया। गांधी जी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वर्ष 1926 उनका मौन वर्ष रहेगा। यहां यह भी जानना समीचीन होगा कि 1923 में ही अली बंधुओं द्वारा कांग्रेस में वंदेमातरम् गीत का भी मुद्दा उठाया गया था जो देश के कौमी मिजाज को दर्शाने के लिए पर्याप्त उदाहरण है।

वार्ता में शामिल हुए भारतीय

अब प्रश्न आता है स्वराज दल ने इस दौरान क्या किया? जैसी कि संभावना थी कुछ स्वराजी तो सरकार के साथ उत्तरदायी स्वराजी बन गए परंतु मुख्य नेतृत्व ने संवैधानिक सुधारों पर परिषदों के अंदर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। इसको ऐसे समझा जा सकता है कि स्वराजियों के दबाव का ही परिणाम था कि भारत में संवैधानिक सुधारों के लिए संसदीय कमीशन को वर्ष 1929 में भारत आना था जैसा कि 1919 के भारत सरकार अधिनियम में व्यवस्था थी कि 10 वर्ष के पश्चात भारत में संवैधानिक स्थिति का पुन: अवलोकन किया जाएगा। परंतु संवैधानिक सुधारों हेतु कमीशन को 1927 में ही भेज दिया गया, जिसे हम साइमन कमीशन के नाम से जानते है। इसके अतिरिक्त स्वराजियों ने ही यह भी सिद्धांत स्थापित किया कि भारत के संविधान सुधार का कार्य मात्र ब्रिटिश संसद द्वारा नहीं किया जाना चाहिए।

किसी भी संवैधानिक सुधार के लिए भारतीयों के साथ बैठकर वार्ता होनी चाहिए। इसी का परिणाम था आगे चलकर गोलमेज सम्मेलन शुरू हुआ, जिसमें प्रथम बार भारतीयों को संवैधानिक ढांचे की वार्ता में शामिल किया गया। साइमन के विरोध से मातृभूमि के लिए बलिदान हुए लाला लाजपत राय का प्रत्युत्तर दिया राष्ट्रभक्त भगत सिंह इत्यादि ने। साइमन की चुनौतियों से ही जन्म हुआ ‘नेहरू रिपोर्ट’ का भी जो भारतीयों द्वारा तैयार किया गया महत्वपूर्ण संवैधानिक दस्तावेज माना जाता है और ब्रिटिश सरकार द्वारा इसको अस्वीकार किया जाना सविनय अवज्ञा आंदोलन का बड़ा कारण बना।

(लेखिका दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग की पूर्व अध्यक्ष हैं)

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