आजादी की समर गाथा में अमर हो गई 'महुआ डाबर' की शहादत
बस्ती के महुआ डाबर गांव ने खूब तरक्की की थी। मनोरमा नदी के किनारे महुआ डाबर की बसावट से नावों से कारोबार का होना बहुत आसान हो गया था। 1857 में गुलामी की बेड़ियों में जकड़े अपने वतन की आजादी की चाह में रणबांकुरों ने मोर्चा खोल दिया था।
By Rahul SrivastavaEdited By: Updated: Fri, 13 Aug 2021 04:25 PM (IST)
गोरखपुर, जागरण संंवाददाता : अंग्रेज सरकार का अवध इलाके में अधिकाधिक लगान वसूलना मकसद था। ब्रिटिश हुकूमत की इस कुनीति ने किसानों और कारोबारियों को पूरी तरह से तबाह कर दिया था। कंपनी राज के शोषण के कारण ही 1857 में अवध में जबरदस्त जनविद्रोह हुआ, जिसमें समाज के हर तबके ने हिस्सा लिया। महुआ डाबर बस्ती जिले का एक कस्बा था, जहां 1830 में मुर्शिदाबाद में अंग्रेजों के अत्याचारों से तंग आकर रेशम के कारीगर आकर बस गए थे। यह एक बहुत ही संपन्न कस्बा था, जिसमें दो मंजिला मकानों की अच्छी खासी तादाद थी और शिक्षित वर्ग की भी ठीक-ठाक उपस्थिति भी। अपनी मेहनत और लगन की बदौलत महुआ डाबर ने खूब तरक्की कर ली थी। मनोरमा नदी के किनारे महुआ डाबर की बसावट से नावों से कारोबार होना बहुत आसान हो गया था।
आजादी की चाह में रणबांकुरों ने खोल रखा था मोर्चा1857 में गुलामी की बेड़ियों में जकड़े अपने वतन की आजादी की चाह में रणबांकुरों ने मोर्चा खोल रखा था। मेरठ से 9-10 मई, 1857 से बगावत की आग सुलगनी शुरू हो गयी। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना के जुल्म व सितम से तंग आकर सबक सिखाने की ठानी। संयोग से वह मौका भी जल्द हाथ आ गया। धानेपुर तालुका से पूर्व सेनापति रहे पिरई खां की अगुवाई में क्रांतियोद्धाओं ने अंग्रेजी हुकूमत को परेशान करके रख दिया। अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ इस इलाके को रणभूमि में तब्दील कर दिया।
अंग्रेज अफसर को तब तक मारा, जब तक नहीं चली गई जानक्रांतिवीर पिरई खां की अगुवाई में उनके इंकलाबी साथी देश पर मर मिटने पर आमादा हो गए। 10 जून,1857 को अंग्रेजी सेना के लेफ्टिनेंट लिंडसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट काकल व सार्जेंट बुशर फैजाबाद (अयोध्या) से बिहार के दानापुर (पटना) जा रहे थे। इधर पिरई खां के नेतृत्व में उनके गुरिल्ला क्रांतिकारी साथियों ने अंग्रेजी सेना के कुख्यात अफसरों की घेराबंदी करके तब तक मारा, जब तक उनकी मौत नहीं हो गई। अंग्रेजी सेना के छह अफसरों के मौत के बाद सार्जेंट बुशर घायल अवस्था में किसी तरह से अपनी जान बचाकर भाग निकला और अंग्रेजी हुकूमत के उच्च अधिकारियों को सारी घटना की जानकारी दी।
अफसरों की मौत से बौखलाएं अंग्रेजों ने जला दिया था महुआ डाबर गांव कोअपने छह सैन्य अफसरों की मौत से बौखलाई अंग्रेजी सेना ने 20 जून,1857 को बस्ती के तत्कालीन मजिस्ट्रेट पेपे विलियम्स ने घुड़सवार फौजियों की मदद से पांच हजार की आबादी वाले महुआ डाबर गांव को घेरकर जलाकर राख कर दिया। पूरे कस्बे को तहस नहस करने के बाद 'गैरचिरागी' घोषित कर दिया। यहां पर अंग्रेजों के चंगुल में आए निवासियों के सिर कलम कर दिए गए। इनके शवों के टुकड़े-टुकड़े करके दूर ले जाकर फेंक दिया गया। इतना ही नहीं अंग्रेज अफसरों की हत्या के अपराध में जननायक पिरई खां का भेद जानने के लिए गुलाम खान, गुलजार खान पठान, नेहाल खान पठान, घीसा खान पठान और बदलू खान पठान आदि क्रांतिकारियों को 18 फरवरी 1858 सरेआम फांसी दे दी गई। महुआ डाबर गांव के अस्तित्व को मिटाने के लिए पेपे विलियम्स को ब्रिटिश सरकार ने सम्मानित भी किया था।
गौरवशाली विरासत को संजोने की जरूरतमहुआ डाबर की वीरानी देख ऐसा लगता था कि यहां कभी कोई चहल-पहल थी ही नहीं। भले ही यह घटना भारत के स्वतंत्रता संग्राम की एक अप्रतिम घटना रही हो, जो कि आज भी प्रेरणा देती है। आजाद भारत में तमाम प्रयासों के बावजूद महुआ डाबर के क्रांतिवीरों को बिसरा दिया गया। पुरातत्व विभाग की तरफ से यहां दो बार खुदाई हो चुकी है। आज भी महुआ डाबर पहचान को तरस रहा है। वहीं क्रांतिकारी पिरई खां के नाम से स्मारक का लोग आज भी इंतजार कर रहे हैं।
भगत सिंह के भांजे लिख रहे इतिहासदेश की आजादी का हीरक वर्ष शुरू हो गया है। शहीद-ए-आजम भगत सिंह के भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह महुआ डाबर पर दस्तावेजों के हवाले से पुस्तक लिख रहे हैं। क्रांतिवीर पिरई खां स्मारक समिति वर्षों से विभिन्न आयोजनो के जरिये महुआ डाबर के गौरवशाली विरासत को नई पीढ़ी से परिचित कराने की अलख जगाती रही है।
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