Move to Jagran APP

Gandhi Jayanti 2022: हापुड़ में गांधी जी के चरखे को मिला रोजगार का ‘आशीष’, महिलाएं चरखे से सूत कात रहीं

By Manoj TyagiEdited By: GeetarjunUpdated: Sun, 02 Oct 2022 02:27 PM (IST)
Hero Image
हापुड़ में गांधी जी के चरखे को मिला रोजगार का ‘आशीष’, महिलाएं चरखे से सूत कात रहीं
हापुड़, जागरण संवाददाता। गांधी जी ने कहा था कि कोई भी चीज इतनी जल्दी लोगों को अपने पैरों पर खड़ा नहीं कर सकती है जितनी जल्दी चरखा कर सकता है। चरखा भारत की जीवन रेखा है। इसी सिद्धांत को आशीष सिंह त्यागी ने अपने जीवन में उतारा और पारंपरिक तरीके से कपड़ा तैयार कर रहे हैं।

इतना ही नहीं उन्होंने लुप्त हो चले देसी कपास के बीजों को तलाश कर अपने खेतों में बोया और उससे कपास तैयार की। देसी बीज से उत्पादित कपास में कीटनाशक का प्रयोग नहीं होता है। कीटनाशक का प्रयोग होने से हाईब्रिड कपास जनमानस की सेहत के लिए बहुत ही हानिकारक है।

दूसरा देसी कपास में अन्य कपास के मुकाबले सोखने की क्षमता 20 गुना अधिक होती है। और इसे हाइब्रिड कपास के मुकाबले बाजार में अच्‍छी कीमत भी मिलती है। तभी जापान में इस कपड़े से तैयार एक पतलून की कीमत 25 हजार रुपये है। जरूरी है कि किसान अपने उत्पाद की सही से ब्रांडिग करें।

उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले के गांव असौड़ा के रहने वाले आशीष बताते हैं कि कपास से चरखे पर सूत तैयार कराते हैं और हाथ से चलने वाली मशीन पर कपड़ा तैयार करते हैं। इस काम में उनके साथ तीस महिलाएं चरखे पर सूत कातकर धागा तैयार करती हैं और फिर तीन परिवार उस धागे से कपड़ा तैयार करते हैं। वर्ष 2019 में इस कपड़े को लैक्मी फैशन वीक में भी प्रदर्शित किया गया था।

देसी कपास का होता हाईब्रिड से ज्‍यादा अच्‍छा उत्‍पादन

मूल रूप से आर्गेनिक खेती कर रहे आशीष के अनुसार उन्हें गांधी जी के साहित्य को पढ़ते समय चरखे के उपयोग के बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने अपने फार्म पर देसी कपास उगाने का निर्णय किया। इसके लिए जरूरत थी देसी बिनौले की। इसके लिए उन्होंने उन्नत खेती करने वाले कई किसानों से संपर्क साधा।

कई जगह प्रयास करने के बाद पता चला कि पुराने बीजों को संरक्षित करके रखा गया है। उन्होंने उन बीजों को थोड़ा प्रयास कर उपलब्ध कर लिया। उन्हें यह भी जानकारी मिली कि जो कपास के बीज इस समय बोए जा रहे हैं, उन पर देश में तैयार होने वाला कीटनाशक का 54वां हिस्सा अकेले कपास को कीड़े से बचाने पर किया जाता है। देसी कपास के लिए किसी दवाई की आवश्कता ही नहीं है।

देसी कपास कई मायने में शरीर के लिए लाभकारी होती है। इसके बने कपड़े से कभी भी त्वचा रोग नहीं होता है। दूसरे धागे से बने कपड़े से त्वचा रोग का खतरा रहता है। शुरुआती दौर में जमीन के एक छोटे टुकड़े पर बीजारोपण किया गया। करीब चार कुंतल कपास हुई जबकि जहां हाईब्रिड नरमा कपास का उत्पादन एक एकड़ में किया गया तो केवल दो कुंतल ही हुआ। यानी इसका उत्‍पादन भी अधिक होता है।

महिलाओं को मिल रहा घर बैठे रोजगार

चरखे से धागा तैयार करने के लिए कई गांवों में जाकर संपर्क किया। पुरानी महिलाएं चरखे से धागा तैयार करने के लिए आगे आईं। धीरे-धीरे और ज्यादा महिलाएं जुड़ती चली गईँ। अधिकांश के पास पुराना चरखा ही था। उन्होंने उसे दुरुस्त कराकर सूत कातना शुरू किया। पुराने जुलाहों से संपर्क कर उनसे धागे से कपड़ा तैयार कराया।

कपड़ा तैयार होने के बाद जब बाजार में उसे भेजा तो जो लोग कपड़े के कद्रदान थे उन्हें एक ही पल में कपड़ा भा गया, खारीदा। इसी से मेरा मनोबल बढ़ गया। इसके बाद तो फसल की पैदावार बढ़ाई और दूसरे किसानों को भी इससे जोड़ा। लेकिन किसानों को अभी इसका महत्‍व ठीक से नहीं पता यही कारण है उनका हाईब्रिड कपास उत्‍पादन की ओर ज्‍यादा झुकाव रहता है। उन्‍हें इसके आर्थिक और स्‍वास्‍थ्‍य लाभ को समझना होगा। हाईब्रिड बीज से तैयार फसल में कीटनाशक दवाइयों पर ज्यादा पैसा खर्चा करना पड़ता है और देसी कपास उगाने में कीटनाशक छिड़कने की आवश्यकता ही नहीं होती है।

2019 में इसे मुंबई फैशन वीक में प्रदर्शित किया। जहां इसे हाथों हाथ लिया गया। अभी मेरे साथ 30 महिलाएं चरखे से सूत कातने का काम कर रही हैं। तीन परिवार धागे से हैंडलूम मशीन पर कपड़ा तैयार कर रहे हैं। अभी तक पांच से छह किसान ही मेरे साथ इस काम में जुटे हैं। मुझे उम्मीद है कि आने वाले समय में और अधिक लोग इसका उत्पादन करेंगे। जब लोग बिना कीटनाशक दवाई के उपयोग किए तैयार होने वाले कपड़े पहनेंगे, तो बीमार कम होगी लोग स्वस्थ रहेंगे। मैने अपने उत्पाद का नाम हापुड़ जैविक फार्म दिया है।

चरखा चलाने वाली राजवती ने बताया कि हमने तो बहुत दिन पहले चरखा चलाना छोड़ दिया था। पर जब हमसे कहा गया कि चरखे पर सूत कातना है, तो हमें लगा कि घऱ पर रहकर ही काम करना है तो बुराई भी किया है। घर पर रहते हैं जब समय मिलता है तो चरखा चलाने बैठ जाते हैं। आमदनी भी हो जाती है।

चरखा चलाने वाली कुसुम कहती हैं कि सूत बारीक कातने में दिक्कत आती है। इसमें ज्यादा बारीक सूत कातने की जरूरत ही नहीं है। मोटा सूत काता जाता है। दिन में 300 से 600 ग्राम सूत कत जाता है। घर बैठे एक दिन में तीन सौ रुपये तक मिल जाते हैं। जब मैं घर से बाहर मजदूरी करती थी तो उसमें दो सौ रुपये मिलते थे। इससे अच्छा क्या काम हो सकता है।

आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।