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तुलसी जयंती विशेष: रामचरित मानस के दर्शन से कटते हैं कष्ट, चित्रकूट में सुरक्षित हैं अयोध्याकांड की पांडुलिपियां

चित्रकूट के राजापुर में तुलसीदास जी की जन्मस्थली में मानस मंदिर में हस्तलिखित 447 साल पुरानी अयोध्याकांड की पांडुलिपियां आज भी सुरक्षित रखी है। तुलसी जयंती पर विशेष कार्यक्रमों की धूम रहती है और पूरा वातावरण राममय हाे जाता है।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Updated: Sun, 15 Aug 2021 01:57 PM (IST)
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जन्मस्थली राजापुर के मानस मंदिर में सुरक्षित है पांडुलिपि।
चित्रकूट, [हेमराज कश्यप]। गोस्वामी तुलसीदास की जयंती पर उनकी जन्मस्थली राजापुर राममय है। वृंदावन से संत रामदास महाराज की ओर से छह अगस्त से नवान्ह पारायण का पाठ निरंतर चल रहा है। रविवार को तुलसी जन्मोत्सव मनाया जाएगा। देश के कोने-कोने से रामभक्त तुलसीदास की जन्मस्थली में पहुंच रहे हैं। मानस मंदिर में तुलसीदास की हस्तलिखित रामचरित मानस के दर्शन कर धन्य हो रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य ऊधौ के वंशज और मानस मंदिर के महंत रामाश्रय त्रिपाठी बताते हैं कि हस्तलिखित रामचरित मानस के दर्शन मात्र से लोगों को कष्ट कट जाते हैं।

वह बताते हैैं कि यहां मानस की 447 साल पुरानी अयोध्याकांड की पांडुलिपियां रखी हैं। गोस्वामी जी ने संवत 1631 में श्रीरामचरित मानस की रचना शुरू की थी। इसे लिखने में दो साल सात माह और 26 दिन का समय लगा। संवत 1633 के अगहन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को यह ग्रंथ पूरा हुआ था। तुलसीदास ने लकड़ी की कलम और खुद की बनाई स्याही मानस की पांडुलिपियां लिखी थीं।

अयोध्या कांड की पांडुलिपियां मात्र है सुरक्षित

महंत के मुताबिक तुलसीदास की रामचरित मानस को लेकर कहानी प्रचलित है कि एक पुजारी धन कमाने के लालच में पांडुलिपियां लेकर भाग रहा था। काला-कांकर घाट पर वह गंगा नदी नाव से पार कर रहा था। लोग उसका पीछा कर रहे थे। उसने डर के कारण पांडुलिपियां नदी में फेंक दी थीं। काला-कांकर के राजा हनुमंत ङ्क्षसह ने पांडुलिपियां नदी से निकलवाई थीं। भीगने की वजह से सभी कांड खराब हो गए थे। सिर्फ अयोध्याकांड सुरक्षित बचा था। वर्ष 1948 में पुरातत्व विभाग ने इसे विशेष केमिकल से संरक्षित किया। वर्ष 1980 में कानपुर के राम भक्तों ने लेमिनेशन करवाया। वर्ष 2004 में भारत सरकार ने इस जापानी केमिकल लगवाया था।

अलग तरीके से लिखे हैैं हिंदी के 15 अक्षर

इस कांड की शुरुआत में श्री गणेशाय नम: और जानकी वल्लभो विजयते लिखा है। तब और आज के हिंदी अक्षरों में काफी अंतर हैं। करीब 15 अक्षर बिल्कुल अलग तरीके से लिखे हैं।

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