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Azadi Ka Amrit Mahotsav: शिवजी की अनन्य भक्त अहिल्याबाई होल्कर राजमाता से कैसे बनीं लोकमाता, यहां जानें

माँ अहिल्या परम शिव भक्त थीं तथा राजाज्ञाओं पर ‘श्री शंकर आज्ञा’ लिखा रहता था। लेकिन यह उनकी अंधभक्ति नहीं थी और जैसा कि प्रख्यात चिंतक काशीनाथ त्रिवेदी कहते हैं कि उनका मत था कि सत्ता मेरी नहीं सम्पत्ति भी मेरी नहीं जो कुछ है भगवान का है।

By Shaswat GuptaEdited By: Updated: Fri, 10 Sep 2021 09:15 AM (IST)
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शिवजी की अनन्य भक्त रानी अहिल्याबाई होल्कर की सांकेतिक फोटो।

कानपुर, [नर्मदा प्रसाद उपाध्याय]। लोकमाता देवी अहिल्याबाई होल्कर केवल स्वप्न दृष्टा ही नहीं, बल्कि संकल्प सृष्टा थीं। उन्होंने जो भी संकल्प लिए उन्हें पूरा किया। शिवजी की अनन्य भक्त देवी अहिल्या न केवल कुशल शासक थीं, बल्कि उनकी सैन्य प्रतिभा भी अतुलनीय थी। 

 हमारा इतिहास ऐसी दो महान घटनाओं का साक्षी है जब पत्थर प्राणवान हो उठे थे। एक तो तब जब भगवान राम के संस्पर्श से पाषाणी अहिल्या जीवंत हुईं और दूसरी तब जब दासता के शाप से अभिशप्त पाषाण हुए लोक ने, दैवीय संवेदना के स्पर्श से उस पवित्र वत्सलता को जन्म दिया जिसे पीढ़ियां लोकमाता अहिल्या के नाम से संबोधित करती आई हैं। अहिल्या माँ साब, जगत के मातृत्व की पर्याय हैं। वे राजमाता नहीं लोकमाता हैं। उनका जन्म महाराष्ट्र के चांडी में वर्ष 1725 में व निधन महेश्वर में वर्ष 1795 में हुआ।

लोकमाता अहिल्या की प्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह नहीं है कि उन्होंने देशभर के तीर्थों, चारों धामों, बारह ज्योतिर्लिंगों व अनेक मंदिरों में पुनरुद्धार के कार्य कराए, अन्न क्षेत्र आरंभ किए, धर्मशालाएं बनवाईं, नदियों पर बांध बंधवाए, वृक्षारोपण कराया, सड़कें व बावड़ियां बनवाईं और मस्जिदों तथा पीर दरगाहों को भी मदद की बल्कि लोक उन्हें इसलिए पूजता है क्योंकि उन्होंने स्वयं को एक ऐसे उदाहरण के रूप में स्थापित किया जिसका सब कुछ था लेकिन स्वयं के लिए कुछ भी नहीं था। जो कुछ भी था वह लोक के लिए था। उन्होंने अपनी निजता को समग्रता के लिए न्यौछावर कर दिया था। उनके निजस्व की धारा समग्रता के सागर में विलीन हो गई थी और इसी कारण वे सरिता नहीं रहीं समुद्र हो गईं। संसार में सरिताएं तो बहुतेरी हैं लेकिन समुद्र गिने चुने।

उनका अवदान यह तथ्य रेखांकित करता है कि एक सूत्रबद्धता क्या होती है और साधन भले सीमित हों लेकिन यदि साध्य पवित्र हो तो स्वाभिमान के साथ अपनी स्वतंत्रता को कैसे बरकरार रखते हुए विकास के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है। यदि उनके कृतित्व को देखें तो पाएंगे कि उसके दो पक्ष हैं। पहला पक्ष तो उनकी धार्मिक और न्यायिक वृत्ति का है।

उन्होंने महेश्वर जैसे छोटे से गांव को अपनी राजधानी बनाकर वहां से पूरे तीस वर्षों तक धार्मिक और न्यायिक रीति-नीति से न केवल पूरे मालवा पर शासन किया अपितु बद्रिकाश्रम से रामेश्वर और द्वारिका से भुवनेश्वर तक मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया। उन्होंने जहां एक ओर गया में विशाल विष्णुपद मंदिर का निर्माण कराया वहीं दूसरी ओर काशी में नर्मदा के शिवलिंग, नर्मदेश्वर की विश्वनाथ के रूप में स्थापना की।

लोकमाता अहिल्या ने सरयू, नर्मदा, गंगा और गोदावरी के तटों पर चैंतीस घाटों का निर्माण करवाया, अयोध्या से नेमावर तक के मंदिरों में पूजा व्यवस्था कराई तथा सात बड़े नगरों में अन्न क्षेत्र स्थापित किए। यह सूची भी केवल एक झांकी है। उनका यह कृत्य आदिगुरु शंकराचार्य के उस महान कृत्य का स्मरण कराता है जिसका उद्देश्य भारत के चारों शीर्षों तक पवित्र धामों की स्थापना कर समूचे भारत को एक सूत्रता में आबद्ध करना था तथा निश्चय ही उन्हें यह प्रेरणा महेश्वर के निकट स्थापित ओंकारेश्वर से मिली होगी जहां आदिगुरु शंकराचार्य ने गुरु दीक्षा ली थी तथा महेश्वर आकर मण्डन मिश्र से  शास्त्रार्थ किया था।

उनके दरबार के सभा पंडित खुशालीराम, ने देवी अहिल्या के गुणों का वर्णन करते हुए ‘अहल्या कामधेनु’ नामक ग्रंथ लिखा जो ‘देवी अहिल्या कामधेनु’ के नाम से प्रसिद्ध है। इन श्लोकों में उनके सर्वधर्म सर्वज्ञ होने तथा उनकी सर्वोदयी भावना के ग्राम दान व भू दान के रूप में प्रगट होने का उल्लेख है।

माँ अहिल्या परम शिव भक्त थीं तथा राजाज्ञाओं पर ‘श्री शंकर आज्ञा’ लिखा रहता था। लेकिन यह उनकी अंधभक्ति नहीं थी और जैसा कि प्रख्यात चिंतक काशीनाथ त्रिवेदी कहते हैं कि उनका मत था कि सत्ता मेरी नहीं, सम्पत्ति भी मेरी नहीं जो कुछ है भगवान का है और उसके प्रतिनिधि स्वरूप समाज का है। इस प्रकार उन्होंने समाज को भगवान का प्रतिनिधि माना और उसी को अपनी समूची सम्पदा सौंप दी। वे अपने समय में ही इतनी श्रद्धास्पद बनीं कि समाज ने उन्हें अवतार मान लिया। 8 मार्च 1787 के ‘बंगाल गजट ने यह लिखा कि देवी अहिल्या की मूर्ति भी सर्वसामान्य द्वारा देवी रूप से प्रतिष्ठित व पूजित की जाएगी।

देवी अहिल्या का दूसरा पक्ष उनके सुशासन और दूरदर्शिता का है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि उनके धार्मिक कृत्यों के कारण सुशासन पर विपरीत प्रभाव पड़ा लेकिन स्वयं अभिलेख ही इसका खंडन करते हैं। देवी अहिल्या के पास खासगी व सरंजामी नामक दो कोष थे। इसमें खासगी उनका निजी कोष था जो उन्हें उनके ससुर से विरासत में मिला था। इस कोष में सोलह करोड़ रुपए उस समय उन्हें मिले थे साथ ही नियमित आय भी इस ट्रस्ट के अंतर्गत आने वाले गांवों से प्राप्त होती थी जबकि सरंजामी कोष से प्रशासन व सेना का खर्च चलता था। उन्होंने अपने निजी कोष के समस्त धन को भी सार्वजनिक हित में ही लगा दिया।

‘महेश्वर दरबार ची बातमी पत्रे’ की पत्र संख्या 251 के पत्र में उन्होंने लिखा कि, ‘‘मैं जो अन्न ग्रहण कर रही हूं वह भी उस धन का नहीं है। सरंजामी दौलत में एक कौड़ी भी मेरी तरफ जमा निकले तो मैं एक की पांच कौड़ी दूंगी। उनका जीवन लोक न्याय को समर्पित जीवन था तथा वे इतनी न्यायप्रिय थीं कि उन्होंने इकलौते पुत्र को भी मृत्यु दण्ड देने संबंधी निर्णय लेने में एक क्षण का भी विलम्ब नहीं किया। माता अहिल्या को उनके श्वसुर मल्हारराव होल्कर ने सैन्य प्रशिक्षण भी दिया था। इसी का परिणाम था कि उन्होंने वर्ष 1771 में रामपुरा में चन्द्रवतों के विरुद्ध युद्ध का संचालन कर उन्हें परास्त किया।

उनकी सैन्य प्रतिभा के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। उनकी सफल कूटनीति का साक्ष्य यह है कि विशाल सैन्य बल से सज्ज आक्रमण की नीयत से आए राघोबा को उन्होंने अकेले पालकी में बैठकर उनसे मिलने आने के लिए उसे विवश कर दिया। डाकुओं और भीलों को उन्होंने समाज की मुख्य धारा में लाने का यत्न किया तथा समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा को उन्होंने ईश्वर की सेवा माना। उनकी व्यावसायिक दूरदृष्टि का उदाहरण महेश्वर का वह वस्त्रोद्योग है जहां आज भी सैकड़ों बुनकरों को आजीविका मिलती है तथा यहां की साड़ियां विश्वप्रसिद्ध हैं। वे अद्भुत दृष्टि सम्पन्न विदुषी थीं।

शास्त्र और व्याकरण से लेकर वैद्यक और पूजाकर्म तक में पारंगत बीस पंडितों को उन्होंने आमंत्रित किया तथा हस्तलिखित ग्रंथ तैयार करवाए। उन्होंने परदा नहीं किया तथा स्त्रियों के अधिकार के लिए कानून में बदलाव किए जिसके कारण विधवाओं को पति की सम्पत्ति पर तथा पुत्र को गोद लेने का अधिकार मिला। अहिल्या देवी नेे डाक व्यवस्था आरंभ की तथा सन् 1783 में पदमसी नेनसी नामक कम्पनी को महेश्वर से पूना तक डाक ले जाने का कार्य सौंपा।

उन्होंने अंग्रेज़ों की कुटिल चालों की तुलना रीछ की चालों से की जो अपने शत्रु पर सीधा वार नहीं करता अपितु उसे आलिंगन में लेकर मार डालता है। इसलिए वे कहतीं थीं कि उसके सिर पर प्रहार करना चाहिए। अंग्रेज़ों के विरुद्ध उन्होंने सभी की एकता का आव्हान किया तथा उनके प्रवेश को रोकने के लिए घाटों को बंद करने का भी आव्हान किया। माता अहिल्या की भूरि-भूरि प्रशंसा देश और विदेश के विद्वानों, इतिहासकारों तथा राजनीतिज्ञों ने की है। श्रीमती ऐनी बेसेन्ट ने लिखा कि उनकी दृष्टि में हिन्दू और मुस्लिम समान थे। पं. नेहरू ने उनकी संत शासिका के रूप में प्रशस्ति की।

प्रख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने उन्हें प्रथम श्रेणी की राजनीतिज्ञ माना। जाॅन मालकम ने उन्हें देवी कहा, जाॅन कीस ने उन्हें दार्शनिक महारानी की उपाधि दी तथा जाॅन बेली ने सन् 1849 में उन पर एक सुंदर कविता लिखी। हाल ही में इन्दौर की यशस्वी सांसद तथा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन ने ‘मातोश्री’ नामक नाटक लिखा जो देवी अहिल्या के गुणों का प्रतिबिम्ब है तथा इसमें उनके जीवन की पन्द्रह प्रमुख घटनाओं को वर्णित किया गया है।

लोकमाता अहिल्या के व्यक्तित्व और कृतित्व के संबंध में बहुत लिखा गया है वह क्षितिज की तरह है जिसे मापने के पैमाने अभी तक नहीं बने। हम उन स्वप्न दृष्टाओं का सम्मान करते हैं जिन्होंने बंद आंखों से जो सपने देखे उन्हें साकार कर खुली आंखों से देखा। लेकिन माता अहिल्या स्वप्न दृष्टा नहीं थीं वे संकल्प सृष्टा थीं। उन्होंने जो संकल्प लिया उसे अपने कर्म से पूर्ण कर दिया। सपने देखने के लिए आंखों को बंद करने का धैर्य उन्होंने नहीं रखा। हम जय, पराजय और उनके इतिहास में दर्ज करने को लेकर चिंतित रहते हैं कि इतिहास कहीं हमारी पराजय को अपने पन्नों में न लिख ले लेकिन माँ अहिल्या जैसे बिरले व्यक्तित्व इतिहास में गिने-चुने हैं जिन्होंने अपने कर्म से केवल जय ही अर्जित की और इतिहास की इसलिए चिंता नहीं की क्योंकि उन्होंने स्वयं को अपने इतिहास के रूप में प्रतिष्ठित कर लिया।

उन्हें दैवीय कहा गया किन्तु सच यह है कि उनके कृतित्व से देवत्व के शीर्ष पर मनुष्यता विराज गई। माता अहिल्या देवत्व के हिमालय की गौरीशंकर हैं। इन दिनों जब हम अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तब इस अमृता का स्मरण होना चाहिए। उनकी स्मृति कहीं हमें स्वप्न दृष्टा नहीं संकल्प सृष्टा बनाएगी। ऐसी संकल्प सृष्टा को अर्पित करने के लिए असंख्य अंजुरियों में भरे अगणित प्रणाम भी बहुत थोड़े हैं।

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