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किताबघर में पढ़िए महाभारत का आधुनिक और मानवीय परिदृश्य और मयूरपंख में आत्मकथात्मक और मार्मिक आख्यान

हम लगातार आपके पास किताबों के संग्रह से कुछ ऐसी किताबों की समीक्षा आपके बीच लाते हैं जो आपको जानकारी देने के साथ सोचने को मजबूर करती हैं। आज दो पुस्तकों भैरप्पा की पर्व और शरतचंद्र की श्रीकान्त के अंश आपके बीच लेकर आए हैं।

By Abhishek VermaEdited By: Updated: Sat, 04 Jun 2022 05:48 PM (IST)
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भैरप्पा की पर्व और शरतचंद्र की श्रीकान्त के अंश पढ़िए।
किताबघर

महाभारत का आधुनिक और मानवीय परिदृश्य

(यतीन्द्र मिश्र)

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सृजन की कुछ ऐसी मौलिक कृतियों का पिछले वर्ष से हम मूल्यांकन करते आ रहे हैं, जिन्होंने हमारे समाज और संस्कृति के निर्माण, पुनर्जागरण में महती भूमिका निभाई है। अब हम उन किताबों की चर्चा करने जा रहे हैं, जो हिंदी से इतर अन्य भाषाओं में रची गईं और जिनका व्यापक प्रभाव लक्ष्य किया गया। ऐसे मेंर्, ंहदी में अनुवाद के माध्यम से उपलब्ध किताबों की अमर सूची से चुनकर, उदाहरण के तौर पर कुछ की विवेचना प्रस्तुत है, जिनका जिक्र इस हीरक जयंती समारोह को और भी प्रासंगिक बनाता है। कन्नड़ के बहुपठित रचनाकार भैरप्पा की एक प्रतिनिधि पुस्तक ‘पर्व’ की चर्चा से भारतीय भाषाओं की इस झांकी की शुरुआत हो रही है।

 1966 में महाभारत की कथा को नए ढंग से कहने का विचार जब भैरप्पा के मन में उठा, तो उसको मूर्त रूप में लाने से पूर्व उन्होंने 1975 में उन सभी स्थलों की यात्रा संभव की, जहां से इस पौराणिक ऐतिहासिक कथा के प्रमाण मिलते हैं। फिर, इसे लिखते हुए उन्होंने आगे के सालों में स्पष्ट किया- ‘मैं महाभारत के पात्रों की कथा नहीं लिख रहा हूं। मानव के अनुभवों के विविध आयाम, रूप, मानव के संबंधों के रूप और विवेचन लिख रहा हूं, यह प्रज्ञा अंत तक मेरे मन में बनी रही।’

भैरप्पा, महाभारत की कालजयी महाकाव्यात्मक कहानी की पुनर्संरचना करते हुए ‘पर्व’ का एक नया आधुनिक आख्यान सिरजते हैं। उन्होंने मिथक और इतिहास को एक वेणी की तरह गूंधते हुए उसका नया मिथकीय अंदाज रचने का प्रयास किया है, जो कारगर रहा है। एक तरह से देखें, तो हमें इस आधुनिक महाभारत में उस समाज और जीवन की दर्शना होती है, जिस पर विज्ञानी ढंग से भी नए युग में विश्वास किया जा सकता है। मसलन, वे कृष्ण को अर्जुन को उपदेश देते समय उनके विराट विश्वव्यापी स्वरूप का दर्शन नहीं कराते, बल्कि एक मनोचिकित्सक के तौर पर उभारते हैं, जो अपने शिष्य को उसके संशयों से उबरने के तर्क समझाता है। वे अतिमानव की तरह नहीं दिखते, वरन एक ऐसे बड़े किरदार में रूपायित होते हैं, जिसकी समग्र दृष्टि से एक भटके हुए मन को सही मार्ग सूझता है। ठीक इसी चलन पर उन्होंने गंगा, भीष्म, भीम, युधिष्ठिर और गांधारी के चरित्रों को नए ढंग से प्रस्तुत किया है। उनकी रची हुई द्रौपदी भी इसी कारण दुर्योधन की सभा में एक साधारण स्त्री न होकर, एक ऐसी दृष्टिसंपन्न आधुनिक नारी की तरह उभरती है, जो विपरीत परिस्थिति में भी अपना विवेक संयत रखते हुए दुर्योधन से डटकर मुकाबला करती है और अपने आत्मबल के चलते उसके कुत्सित इरादों को विफल बनाती है, जिससे चीर हरण प्रसंग, आधुनिक कलेवर वाली तीव्रता अर्जित करता है।

कहा जा सकता है कि भैरप्पा इस उपन्यास में अतीत के पारंपरिक मिथक को पीछे छोड़ते हुए एक नया मिथक गढ़ते हैं, जो उनका अपना सुचिंतित मामला है। इस कारण भी, ढेरों आधुनिक तर्कों के हवाले से ‘पर्व’ ज्यादा अपना, व्यावहारिक और तर्कपूर्ण नजर आता है। कन्नड़ भाषा के इस महान उपन्यास के साथ ही, महाभारत के आधार पर रची गईं कृतियों में मराठी में दुर्गा भागवत का ‘व्यास पर्व’, अंग्रेजी में चित्रा बनर्जी दिवाकरुणी का ‘पैलेस आफ इल्यूजन’ और्र ंहदी में वासुदेवशरण अग्रवाल की ‘भारत सावित्री’ ध्यान में आती है। भैरप्पा जानते हैं कि पुरातन और सनातन की बहुस्तरीय अनुगूंजों को बिना आधुनिक संदर्भ, भाषा और विन्यास दिए हुए महाभारत की अंतर्वस्तु को नई पीढ़ी को समझाया नहीं जा सकता। शायद, यही कारण है कि यह उपन्यास पुराने दौर और नए समय के बीच पुल का काम करता है। एक ऐसे वैचारिक साझे मंच का कथानक, जिसमें डूबते हुए हम वर्तमान समय की विसंगतियों को लक्ष्य कर सकते हैं। वैसा ही संधान, जैसा आधुनिक अर्थों के संग, महाभारत को लेकर धर्मवीर भारती ने ‘अंधा युग’ लिखा था।

‘पर्व’ के सारे चरित्र इसी कारण वो ऊंचाई हासिल करते हैं, जो मूल महाभारत में वर्णित है, मगर इस उपन्यास में वो शिखर, साधारण मनुष्य के असाधारण कर्मों के कारण उभरकर सामने आता है, जो यथार्थ की जमीन पर विकसित हुआ है। इस तरह भैरप्पा, एक बड़े महाकाव्य को डिकोड करते हुए नायकों के किरदारों को सलीके से बुनने के फेर में उनकी असहायता, कमजोरी, आत्मसंशय, चालाकी, दुराग्रह, ताकत और नैतिकता के सभी सीमांतों पर पैनी निगाह रखते हैं। कोई भी चरित्र अकारण ही सुपर ह्यूमन का रुतबा नहीं पाता, जो उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है। भारतीय भाषाओं के रंग-बिरंगे परिसर से चुनी हुई महत्वपूर्ण कृतियों में सहज ही भैरप्पा के ‘पर्व’ की गणना होती है। ऐसे लेखन का कद इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि हम वर्तमान में एक मिथक कथा का शानदार और सार्थक पुनर्सृजन संभव होता हुआ देखते हैं। पाठकों के लिए यह उपन्यास अपनी रोचक शैली, सदाबहार कथानक पर तार्किक ढंग से विकसित किए गए आख्यान में प्रभावी बन गया है, जिससे होकर गुजरना भारतीय समाज और संस्कृति के पुराने ताने-बाने को समझने की युक्ति प्रदान करता है।

पर्व

भैरप्पा

अनुवाद: बी. आर. नारायण

उपन्यास

पहला संस्करण, 1979

पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2021

अमरसत्य प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य: 450 रुपए

मयूरपंख

आत्मकथात्मक और मार्मिक आख्यान

(यतीन्द्र मिश्र)

बांग्ला भाषा के अमर शिल्पी शरतचंद्र का ‘श्रीकांत’ एक हद तक उनका आत्मकथात्मक उपन्यास माना जाता है, जो 1917 से 1933 के मध्य चार भागों में प्रकाशित हुआ था। स्त्री मन और उसके मनोविश्लेषण को सूक्ष्मता से उभारने में शरतचंद्र अग्रणी रहे हैं। भारतीय भाषाओं के बड़े परिसर में उन्हें व्यास शैली में लिखे गए ढेरों उपन्यासों- ‘मंझली दीदी’, ‘विप्रदास’, ‘परिणीता’, ‘बिराज बहू’ और ‘देवदास’ के लिए ख्याति हासिल है, जिनमें अधिकांश पर बांग्ला और्र ंहदी में कई चर्चित फिल्मों का निर्माण हुआ।

‘श्रीकांत’ एक ऐसे किरदार के निकट बुना गया आख्यान है, जो अपनी प्रेयसी राज्यलक्ष्मी या प्यारी के नेह से बंधा है, मगर परिस्थितियां उन्हें अलग कर देती हैं। उपन्यास बड़े फलक पर चलते हुए गंगामती गांव, सुदूर बर्मा की यात्रा, प्लेग की बीमारी, अन्यान्य चरित्रों के साथ अंतरंगता से जुड़कर किस्सागोई का दिलचस्प पाठ बनाता है। लेखक की सूक्ष्म दृष्टि से देखी गई यह यात्रा अद्भुत और मार्मिक है। यह कृति, भारतीय उपन्यासों के प्रतिनिधि साहित्य का आदर्श उदाहरण है।

श्रीकांत

शरतचंद्र

उपन्यास

पहला संस्करण, 1933

पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2020

मनोज पब्लिकेशंस, दिल्ली

मूल्य: 120 रुपए

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