समाज-परिवर्तन के सात स्वप्न देखे थे डा. राममनोहर लोहिया ने, यहां पढ़िए- ये खास आलेख
Balidan Diwas सात क्रांतियां समाज-परिवर्तन के सात स्वप्न देखे थे प्रखर समाजवादी डा. राम मनोहर लोहिया ने। जिसे सप्त क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। उनकी जन्मतिथि (23 मार्च) पर पढ़िए इन क्रांतियों पर उनके विचार...
बीसवीं सदी के दो गुण हैं। एक तो यह दुनिया का शायद सबसे बेरहम युग है, बिल्कुल निर्दयी, और दूसरे, अन्याय के खिलाफ जितना यह युग लड़ रहा है, उतना शायद पहले वाला और कोई नहीं लड़ा। एक तरफ निर्दयता में यह सदी बहुत बढ़ी हुई है, तो दूसरी तरफ, न्याय की इच्छा में भी।
निर्दयता के नमूने मुझे ज्यादा नहीं देने हैं। खाली एक तो यह कि आजादी की जो लड़ाइयां हुई हैं, उनमें साम्राज्यशाही देशों ने गुलाम देशों के कितने ही लोगों का खूब बहाया है? करोड़ों की तादाद में! कागो में पिछले 70-80 बरस में, कोई 60 लाख आदमी किसी न किसी रूप में मार डाले गए हैं। इसी तरह साम्राज्यशाही ने और दूसरे तत्वों ने भी शोषण इतना जबरदस्त किया है कि चाहे हिंदुस्तान जैसे देश में तोप-बंदूक से ज्यादा जानें न ली हों, लेकिन जैसे अकाल-एक ही अकाल में, युद्ध के जमाने में बंगाल में, कुछ कहते हैं 50 लाख यहूदियों को, जैसे कोई पदार्थ हो, वस्तु हो, वैसे खत्म किया गया। इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि यह एक बहुत बेरहम सदी है।
अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने में, मैं शुरू में केवल गिनाए देता हूं कि किन-किन चीजों के खिलाफ आज इंसान दुनिया के करीब-करीब हर हिस्से में लड़ रहा है, करीब-करीब एक साथ। पहले तो ऐसा होता था कि किसी एक देश में न्याय की भावना जगती थी और दूसरे देशों में वह दबी हुई रहती थी। अबकी बार ऐसा नहीं है। सभी देशों में न्याय की भावना करीब-करीब एक साथ उमड़ी है, कहीं किसी बारे में कम, कहीं किसी बारे में ज्यादा। एक फर्क यह भी है कि अन्याय कई किस्म का होता है और सब किस्मों के साथ लड़ना पहले कभी नहीं हुआ है। किसी एक सरकार के अन्याय के विरोध में लड़ाई तो पहले भी मनुष्य ने की है, लेकिन अबकी बार सभी प्रकार, जो मनुष्य सोच सकता है या है, उनके खिलाफ एक साथ, कभी इस अन्याय के खिलाफ, कभी उस अन्याय के खिलाफ, एक ही देश में कई अन्यायों के खिलाफ लड़ रहा है।
मोटे तौर से ये सात क्रांतियां हैं। सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आई हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाए कि आज का इंसान सब नाइंसाफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाए कि जिसमें आंतरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाए।
सबसे पहले गरीबी और अमीरी के फर्क से जो अन्याय निकलते हैं, उनको लें। यह जड़ वाला अन्याय है। गरीबी-अमीरी, कुछ पुराने जमाने को छोड़ दें तो हमेशा ही रही है और कुछ रूपों में कभी-कभी किन्हीं देशों में गरीबों का अमीरों के खिलाफ उठना भी हुआ है, लेकिन अबकी बार गरीबी-अमीरी की लड़ाई में बराबरी की भावना बहुत जोरों के साथ आई है। मैं मानता हूं कि यों आदमी में बराबरी की कोई प्राकृतिक भावना है, पूरी न हो, थोड़ी-बहुत हो। कुछ लोग न मानें या इन्कार करें, तो छोटी-मोटी बातों का तो सीधा सा जवाब हो जाता है।
मिसाल के लिए, लोग कह दिया करते हैं कि पांचों अंगुलियां क्या बराबर हैं, या कि नदियों को कभी देखने जाओ तो पता चले कि कृष्णा नदी एक सेकेंड में एक करोड़ 10 लाख घनफीट पानी बहाती है। इस तरह के बहुत से उदाहरण लोग दे दिया करते हैं कि असमता प्रकृति का नियम है, न कि समता। इस पर मैं एक बहुत छोटी सी बात कह देता हूं कि प्रकृति का नियम जो भी हो, मनुष्य का नियम होना चाहिए, समता। मैं जानता हूं कि आदमी में दूसरी विपरीत भावनाएं भी मौजूद हैं। मिसाल के लिए, लोग चाहते हैं कि समाज का, राज का ऐसा संगठन हो जिसमें हर एक आदमी की जगह निश्चित हो ताकि उसमें उतार-चढ़ाव का जोखिम न हो। यह बात लोगों को काफी पसंद आती है, क्योंकि करीब-करीब हर आदमी किसी न किसी के ऊपर होता ही है। जैसे हिंदुस्तान के समाज में बहुत दबे हुए लोगों को भी प्रसन्नता इस बात की रहती है कि उनके नीचे भी तो कोई न कोई है।
समाज का गठन सीढ़ी के हिसाब से बन जाता है, ऊंच-नीच की सीढ़ी और ऊंच-नीच की खाली एक सीढ़ी तो नहीं होती है, हजारों-लाखों सीढ़ियां होती हैं। हिंदुस्तान जैसे समाज में तो 10 लाख सीढ़ियां होंगी, पैसे की आमदनी के हिसाब से भी और समाज में सम्मान के हिसाब से भी। मान लो कोई आदमी छह लाखवीं सीढ़ी पर बैठा हुआ है, तो वह इस बात से इतना नहीं घबराता कि उसके ऊपर इतने लोग बैठे हुए हैं, वह इसी बात से खुश है कि चलो, हमारे नीचे भी कई लाख लोग तो हैं ही। बड़े लोगों को, जो समाज का गठन करते हैं, उसे चलाते हैं, नियंत्रण करते हैं तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हो जाती है। उनके अंदर अफसरों में भी-कोई कम बड़े अफसर, कोई ज्यादा बड़े अफसर, एक बहुत जबरदस्त प्रसन्नता रहती है।
अकबर न सही, मानसिंह हैं, तो मानसिंह को खुशी इस बात की रहती है कि उसकी अपनी एक जगह है। इसी तरह से, जो समाज बहुत गरीब बन जाता है, उसमें बराबरी की भूख इतनी जल्दी नहीं लगती है, क्योंकि उसकी इच्छा और उद्देश्य प्राय: केवल पेट भरने का हो जाता है या पेट भरने से थोड़ा ही ज्यादा हो जाता है। इसलिर्ए ंहदुस्तान जैसे देश में साधारण जनता यानी गरीब आदमी क्रांति को इतना नहीं समझेगा, जितना की राहत वाली राजनीति को। यह बराबरी को इतना नहीं समझेगा, जितना कि बख्शीश को। उसको अगर थोड़ा-बहुत पैसा मिलता रहे, जितने की उसको आकांक्षा है, तो वह इसे ज्यादा पसंद करेगा, चाहे वह पैसा और समाज में उसका स्थान बहुत नीचे दर्जे का हो, लेकिन कुछ मिला तो सही। जहां आदमी बहुत भूखा, बहुत दबा और गिरा हुआ है, वहां वह थोड़ी-बहुत राहत की चीजों से प्रसन्न हो जाता है। उसे बराबरी की इच्छा कोई ऐसी काल्पनिक चीज मालूम होती है कि उसके लिए वह बहुत चिंता या सोच-विचार करने को तैयार नहीं होता। ऐसा देखा गया है, लेकिन यह खाली तुलनात्मक सा सापेक्ष बात कह रहा हूं। समय बीतते-बीतते, ठोकर खाते-खाते दूसरी बातें भी दिमाग में आने लगती हैं।
(‘लोहिया के विचार’ से साभार)