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Shaheed Diwas 2022: जानें, कौन हैं शिव वर्मा जो भगत सिंह के क्रांतिकारी आंदोलन में सच्चे साथी साबित हुए थे

Shaheed Diwas 2022 स्वतंत्रता संग्राम सेनानी क्रांतिकारी शिव वर्मा किशोरावस्था में ही देशप्रेम में ओतप्रोत होकर असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे। भगत सिंह के क्रांतिकारी आंदोलनों में सच्चे साथी साबित हुए शिव वर्मा पर डा. ए. एन. अग्निहोत्री का आलेख...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Wed, 23 Mar 2022 11:29 AM (IST)
Shaheed Diwas 2022: जानें, कौन हैं शिव वर्मा जो भगत सिंह के क्रांतिकारी आंदोलन में सच्चे साथी साबित हुए थे
Shaheed Diwas 2022: ब्रिटिश सत्ता को झकझोर देने वाली कई क्रांतियों में शिवदा ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

डा. ए. एन. अग्निहोत्री Shaheed Diwas 2022 उन्नत ललाट, दुबला-पतला शरीर, धैर्यवान, गंभीर व्यक्तित्व, अल्पभाषी परंतु अत्यंत सहृदय और आत्मीयता से परिपूर्ण ऊर्जावान शिवदा अर्थात शिव वर्मा से मेरा प्रथम परिचय वर्ष 1978 में हुआ था। उस समय वह अपने अनुज डा. जनेश्वर वर्मा के कानपुर स्थित घर में भतीजे योगेंद्र वर्मा के साथ शतरंज की बिसात और काफी की चुस्कियों के साथ प्रसन्न मुद्रा में बैठे थे। शिवदा की लेखन व अध्ययन कार्य में गहरी रुचि थी। वह सूटरगंज मोहल्ले के एक मकान में प्रथम तल पर रहते थे, जिसके भूतल पर समाजवादी साहित्य सदन नाम से प्रिंटिंग प्रेस तथा प्रकाशन का कार्य होता था। यहां डा. लक्ष्मी सहगल, दुर्गा भाभी, बाबा पृथ्वी सिंह आजाद, डा. गयाप्रसाद जैसे अनेक क्रांतिकारियों का आना-जाना लगा रहता था।

जिला हरदोई के ग्राम खोतली निवासी आर्य समाजी कन्हैयालाल वर्मा के मंझले पुत्र शिव वर्मा का जन्म एक मध्यम आयवर्गीय ग्रामीण परिवार में नौ फरवरी, 1904 को हुआ। क्रांतिकारी साथियों के बीच उन्हें शिवदा, शिव, प्रभात नाम से जाना जाता था। वर्ष 1931 के दौरान विद्यार्थी जीवन में ही वे असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हो गए थे। हरदोई जिले में मदारी पासी के नेतृत्व में चलाए जा रहे किसान आंदोलन, जिसे एका आंदोलन के नाम से भी जाना गया, में सक्रिय तौर पर भाग लिया। गणेश शंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ का नियमित पठन उन्हें स्वाधीनता संग्राम से जोड़ता चला गया और विद्यार्थी जी की प्रेरणा से वह कानपुर मजदूर सभा से सक्रियता से जुड़ गए। 1926 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की विधिवत सदस्यता ग्रहण की और वायसराय के भारत आगमन पर उसे मारने में जयदेव कपूर, बटुकेश्वर दत्त और राजगुरु का साथ दिया।

दिल्ली से स्थान बदलकर वह साथी डा. गयाप्रसाद व जयदेव के साथ सहारनपुर में बम बनाने का कार्य करने लगे। यहीं 13 मई, 1929 को सभी साथी बमों के साथ रंगे हाथों गिरफ्तार हुए और लाहौर के बोस्र्टल जेल में रखे गए। यहीं बाद में सुप्रसिद्ध लाहौर षड्यंत्र केस के अभियुक्त बनाए गए। इसी बहुचर्चित मामले में सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई थी और शिवदा व उनके साथियों को आजन्म काला पानी की सजा के चलते अंडमान भेज दिया गया था। लाहौर केंद्रीय कारागार में सरदार भगत सिंह से आखिरी मुलाकात के समय उन्होंने शिवदा से बड़े आत्मीयतापूर्ण शब्दों में कहा था, ‘भावुक बनने का समय अभी नहीं आया है प्रभात। मैं तो कुछ ही दिनों में सारे झंझटों से छुटकारा पा जाऊंगा, लेकिन तुम लोगों को लंबा सफर पार करना पड़ेगा। मुझे विश्वास है कि उत्तरदायित्व के भारी बोझ के बावजूद उस लंबे अभियान में तुम थकोगे नहीं, पस्त नहीं होंगे और हार मानकर रास्ते में बैठ नहीं जाओगे।’ इन्हीं शब्दों की प्रेरणा और वचन को निभाने में शिवदा कर्मनिष्ठ तपस्वी का जीवन जीते रहे। जेल में भूख हड़तालें कीं और पाशविक अत्याचार सहे। इस दौरान एक आंख में गलत दवा डाल दिए जाने से भी ताउम्र पीड़ित रहे। 14 वर्ष का आजीवन कारावास पूरा करने के बाद भी उन्हें हरदोई जेल में रखा गया और 21 फरवरी, 1946 को रिहा किया गया।

रिहा होने के बाद भी वे कम्युनिस्ट पार्टी में विधिवत कार्य करते रहे। शस्त्र और शास्त्र दोनों पर समान अधिकार रखने वाले शिवदा पत्रकारिता व लेखन कार्य से जीवनभर जुड़े रहे। उन्होंने प्रयागराज से प्रकाशित होने वाली ‘चांद’ पत्रिका के ‘फांसी अंक’ में विभिन्न नामों से क्रांतिकारियों पर अनेक लेख लिखे। ‘शहीद भगत सिंह की संकलित रचनाएं’ ग्रंथ की रचना की तथा ‘मौत का इंतजार’ में कैदियों के संस्करणात्मक रेखाचित्र प्रकाशित किए। विप्लव पथ के दधीचि शिवदा 93 के वयोवृद्ध नवयुवक के रूप में हमारे सामने रहे और 10 जनवरी, 1997 को चिरलोक सिधार गए।