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कानपुर में ट्राम से शुरू सफर अब मेट्रो पर.., डोम वास्तुकला बढ़ाती खूबसूरती, यहां पढ़ें सेंट्रल रेलवे स्टेशन का रोचक इतिहास

कानपुर में रेलवे का सफर 163 वर्ष पूरे कर चुका है यहां सीएनबी यानी कानपाेर नार्थ बैरेक्स से लेकर कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन और ट्राम से मेट्रो तक पहुंच चुका है। यहीं से कई प्रमुख ट्रेनों का भी संचालन शुरू हुआ।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Updated: Sun, 17 Jul 2022 05:57 PM (IST)
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कानपुर में रेलवे का सफर और इतिहास।
ई कंपू (कानपुर) है भइया, जहां 'कानपुर कनकैया, ऊपर चलै ट्रेन का पहिया, नीचे बहतीं गंगा मैया' की कहावत से हर कनपुरिया बखूबी परिचित है। कनकैया मतलब पतंग, शहर की हर गली-कूचे तक पतंगबाजी का खास अंदाज यहां दिखता था, अब भी विशेष पर्वों पर दिखाई पड़ता है। ठीक वैसे ही यहां दर्जनों मिलों में बनने वाले उत्पादों को देश-दुनिया तक पहुंचाने के लिए शहर भर में पटरियों का जाल बिछाकर मालगाड़ियां दौड़ाई गईं। छुक-छुक करते इंजन मालगाड़ियों को लेकर कोने-कोने तक दौड़े और पूरब के इस मैनचेस्टर की समृद्धि के गवाह भी बने। उत्तर भारत के पहले रेलवे स्टेशन कानपोर नार्थ बैरक्स (सीएनबी) के बाद रेल नेटवर्क बड़े से लेकर छोटे शहरों तक तेजी से फैला। पढ़िये शिवा अवस्थी की रिपोर्ट।

जब औद्योगिक हब के रूप में उभरे मुंबई तक ट्रेन दौड़ी तो पूरब के मैनचेस्टर यानी अपने कानपुर में भी रेल यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी। पुराना कानपुर रेलवे स्टेशन से अंग्रेजों ने रेल के विस्तार की सोची। इसके बाद अनवरगंज रेलवे स्टेशन की नींव 1896 में उन्होंने डाली। कंपनी ने अलग-अलग रेलवे स्टेशन बनाकर रेल का जाल बिछाया। उधर, पुराना कानपुर रेलवे स्टेशन से कलकत्ता (कोलकाता) के लिए रेलगाड़ियों का संचालन हो रहा था। इसलिए एक रूट से दूसरे रूट की ट्रेन पकड़ने के लिए लोगों को इक्के (तांगा) के जरिये स्टेशन जाना पड़ता था। इससे उनकी परेशानी बढ़ने लगी थी। रेलवे के जानकार बताते हैं, लोगों की सहूलियत को देखते हुए चेंबर आफ कामर्स ने कानपुर सेंट्रल स्टेशन बनाने की सिफारिश की। यह सिफारिश अंग्रेजों को भी उचित लगी। उन्होंने सर्वे कराया।

सर्वे और रेलवे की रिपोर्ट के बाद रेलवे के मुख्य आयुक्त सर आस्टन होडो केटी और अधिकारी जान एच हैरीमैन ने 16 नवंबर, 1928 को कानपुर सेंट्रल स्टेशन की नींव रखी थी। 1930 में बनकर तैयार हुए कानपुर सेंट्रल पर पहली ट्रेन कन्नौज से आई थी। कुछ दिन एक ही ट्रेन कानपुर के लिए यली। इसके बाद यहां रेल लाइनों के वृहद नेटवर्क को स्थापित करने में भाप के इंजन का आविष्कार करने वाले जार्ज स्टीफेन्सन के प्रपौत्र एसआर स्टीफेन्सन की अध्यता वाला प्रतिनिधमंडल मददगार बना। जब यहां ब्रिटिश इंडिया कार्पोरेशन (बीआइसी) व नेशनल टेक्सटाइल कार्पोरेशन (एनटीसी) के साथ ही तमाम निजी क्षेत्र की मिलों में मशीनें धड़धड़ाईं। तो फिर शहर में जगह-जगह रेल पटरियों का जाल बिछाने की शुरुआत हुई। इनके उत्पाद देश-दुनिया तक पहुंचे।

डोम वास्तुकला बढ़ाती खूबसूरती : कानपोर नार्थ बैरक्स (सीएनबी) यानी पुराना कानपुर रेलवे स्टेशन के लिए भवन की रूपरेखा 1883 में बनी थी। इमारत 1885 में बनकर तैयार हुई। इस स्टेशन की भव्यता देखते ही बनती थी। इमारत की संरचना और अद्वितीय डोम वास्तुकला इसकी खूबसूरती को और बढ़ा देती है। दीवारों की चौड़ाई 50 सेंटीमीटर की है, जबकि गोलाई वाले पिलर अलग ही अहसास कराते हैं। राजस्थान से लाए गए पत्थर नींव में हैं। इसके किसी भी दरवाजे की ऊंचाई सात फीट से कम नहीं है। छत भी 25 से 30 फीट ऊंची है। यह 47 वर्षों तक मुख्य रेलवे स्टेशन के रूप में रहा। 1930 में इसे बंद कर दिया गया। वर्ष 2002 में रेलवे ने इसे हेरिटेज बिल्डिंग घोषित कर दिया। इस भवन को अब रेलवे संग्रहालय के रूप में विकसित किया जाएगा। वर्तमान में यहां अभियांत्रिक प्रशिक्षण अकादमी (सीटा) का संचालन हो रहा है, जो पूरे देश को प्रशिक्षित इंजीनियर देकर रेलवे की नींव मजबूत कर रहा है। अकादमी के मुख्य अनुदेशक जेपी सिंह बताते हैं, यहां नादर्न, सेंट्रल, नार्थ-सेंट्रल रेलवे के सिविल इंजीनियर प्रशिक्षण लेते हैं।

कानपुर सेंट्रल में लखनऊ के चार बाग रेलवे स्टेशन की वास्तुकला : रेलवे के इतिहास के जानकार बताते हैं, कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन की भव्य इमारत को देखने के बाद ऐसा लगता है जैसे इसे कुछ समय पहले ही बनाया गया हो, लेकिन ऐसा नहीं है। इसके निर्माण की शुरुआत 93 साल पहले 1928 में हुई और यह एक साल, चार माह व 13 दिन में बनकर तैयार हो गया। डेढ़ साल के भीतर तीन रेल ट्रैक और कुछ ट्रेनों के साथ शुरू हुए सेंट्रल स्टेशन में आज दस प्लेटफार्म हैं और यहां से 350 से ज्यादा ट्रेनें गुजरती हैं। सेंट्रल स्टेशन का निर्माण राज बहादुर, सरदार नारायण सिंह और सरदार सेवा सिंह गिल ने कराया। इसके निर्माण में 19.75 लाख रुपये खर्च हुए। 29 मार्च, 1930 को यहां से मुंबई के लिए ट्रेनों को चलाने की शुरुआत हुई। इस स्टेशन के भवन के निर्माण की वास्तुकला लखनऊ के चार बाग रेलवे स्टेशन से प्रेरित थी। इसे वर्तमान में भारत के सबसे खूबसूरत और मशहूर रेलवे स्टेशनों की सूची में भी शामिल किया गया है।

सेंट्रल स्टेशन से शुरुआती दौर में छोटी लाइन पर डीजल इंजन से ट्रेनें चलाई जाती थीं, जबकि अब बड़ी लाइन पर इलेक्ट्रिक इंजन पर ट्रेनें दौड़ रही हैं। सेंट्रल स्टेशन से वर्तमान में सुपरफास्ट सेमी आटोमेटिक ट्रेन-18 (वंदेभारत) का संचालन हो रहा है। इसके साथ ही राजधानी एक्सप्रेस, शताब्दी, श्रमशक्ति, गरीब रथ, हमसफर, तेजस जैसी सुपरफास्ट एक्सप्रेस ट्रेनें भी चल रहीं हैं। स्टेशन पर लिफ्ट और स्वचलित सीढ़ियों से यात्री आवागमन करते हैं। सेंट्रल स्टेशन पर ट्रेनों के बढ़ते लोड को देखते हुए गोविंदपुरी, पनकी, रावतपुर, कल्याणपुर, पनकी धाम, चकेरी, कानपुर गुड्स मार्शल हाल्ट, कानपुर ब्रिज लेफ्ट (शुक्लागंज), चंदारी आदि रेलवे स्टेशन विकसित किए गए। गोविंदपुरी को टर्मिनल बनाने का प्रस्ताव दिया जा चुका है।

यह भी जानिये : भारत में रेल की शुरुआत 16 अप्रैल, 1853 में हुई थी। मुंबई से थाणे के बीच पहली ट्रेन चलाई गई थी। कानपुर भी इस मामले में बहुत ज्यादा पीछे नहीं रहा। ठीक दो वर्ष बाद ही 1855 में कानपुर में भी रेल लाइनों को बिछाने का काम शुरू कर दिया गया था। उत्तर भारत में पहला रेलवे स्टेशन बनाए जाने का गौरव भी कानपुर के पास ही है।

ट्राम से शुरू हुआ सफर अब मेट्रो पर : इतिहास के जानकार बताते हैं, वर्ष 1907 में सार्वजनिक परिवहन का पहला आधुनिक माध्यम अंग्रेजों ने ट्राम के रूप में कानपुर को दिया था। 26 साल लगातार इस सफर का आनंद लोग लेते रहे। घाटा होने पर वर्ष 1933 में इसे बंद कर दिया गया था। ट्राम जीटी रोड स्थित पुराना रेलवे स्टेशन से सरसैया घाट तक डबल ट्रैक पर चलाई जाती थी। इसका रूट पुराने स्टेशन से शुरू होकर घंटाघर, हालसी रोड, बादशाही नाका, नई सड़क, हास्पिटल रोड, कोतवाली, बड़ा चौराहा होकर सरसैया घाट पर खत्म होता था। गंगा किनारे तक चलने वाली ट्राम पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु रोज गंगा स्नान करने जाते थे। नई सड़क के आगे बीपी श्रीवास्तव मार्केट (मुर्गा मार्केट) में ट्राम के रखरखाव के लिए यार्ड बना था।

अब ट्राम के इतिहास की यह जगह इकलौती साक्षी है। उस समय इस जगह को कारशेड चौराहा कहा जाता था, जो बोलचाल में बिगड़ते-बिगड़ते कारसेट चौराहा हो गया। नई सड़क पर रोड के दोनों ओर ट्राम का ट्रैक था। ट्राम के डिब्बों की विशेषता थी खुली छत। इसके डिब्बे सिंगल डेक थे। ऊपर बैठने की व्यवस्था थी, लेकिन उस पर छत नहीं थी। ऊपर बैठे लोग खुली हवा का आनंद लेते रहते थे। आजादी से 40 साल पहले ही यहां इंटीग्रेटेड ट्रांसपोर्ट सिस्टम लागू करके अंग्रेजों ने बता दिया था कि यह शहर हमेशा विकास चाहता है। ट्राम चलने के 115 साल बाद अब प्रदेश की योगी सरकार ने मेट्रो का संचालन शुरू करा दिया है। इससे कानपुर भी देश के मेट्रो सिटी में शुमार हो जाएगा।

ये प्रमुख मिलें, कई जगह जमीनों पर कब्जे : लाल इमली, एल्गिन-एक, एल्गिन-दो, स्वदेशी काटन मिल, जेके जूट मिल, अथर्टन मिल, कानपुर टेक्सटाइल, टेफ्को मिल, लक्ष्मीरतन काटन मिल, काकोमी मिल, तेजाब मिल, कानपुर वूलेन मिल, म्योर मिल, 16 अन्य सूती और दो ऊनी मिलें आदि।

कानपुर सेंट्रल-कुछ तथ्य

-92 साल का हो चुका है कानपुर सेंटल रेलवे स्टेशन।

-01 साल, चार माह और 13 दिन में बनकर तैयार हुआ था सेंट्रल स्टेशन।

-19.75 लाख रुपये खर्च आया था तब स्टेशन निर्माण में।

-03 प्लेटफार्म थे शुरुआत में, अब 10 है इनकी संख्या।

-03 लाख यात्री तकरीबन रोज करते हैं सफर।

-27 जून, 2021 को पहली बार देश की रायल प्रेसीडेंसियल ट्रेन राष्ट्रपति को लेकर पहुंची कानपुर सेंट्रल।

-92 सालों में कोरोना काल में 24 मार्च, 2020 को लाकडाउन के बाद पहली बार 39 दिन कानपुर सेंट्रल पर कोई ट्रेन नहीं आई। तीन मई, 2020 को 1100 प्रवासियों को लेकर फिर ट्रेन यहां आई। जयपुर से पटना जा रही इस ट्रेन में एक भी यात्री कानपुर का नहीं था।

-हावड़ा और दिल्ली के बाद देश का तीसरा सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशन है कानपुर सेंट्रल। दुनिया में सबसे बड़े इंटरलाकिंग रूट सिस्टम का रिकार्ड रखता है।

कब-कहां के लिए कानपुर से दौड़ी ट्रेन

-1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध-रुहेलखंड रेलवे (ओआरआर) का गठन कर पूर्वी भारत में शहरों को रेल से जोड़ने काम शुरू किया।

-1860 में कानपुर पुराना रेलवे स्टेशन से 962 मील की लंबी रेलवे लाइन का विस्तार करते हुए मुंबई के लिए पहली ट्रेन भेजी गई, तब मुंबई औद्योगिक नगरी बन चुका था।

-1864 में दिल्ली-हावड़ा रेल लाइन बिछा ली गई थी, लेकिन यमुना पर पुल नहीं होने से दिक्कत थी। 15 अगस्त, 1865 में यह पुल बना। इसके बाद 1020 मील लंबा दिल्ली-हावड़ा रूट पूरी तरह से संचालन के लिए तैयार हुआ और दिल्ली के लिए पहली ट्रेन इसी साल दौड़ी।

-1875 में कानपुर से लखनऊ के बीच 47 मील की दूरी में पहली ट्रेन चली थी। यह सफर कभी बैलगाड़ी से भी पूरा होता था।

-1886 में बुंदेलखंड के झांसी के लिए कानपुर से पहली ट्रेन चलने का जिक्र मिलता है।

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