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Kanpur Nagar Nigam: कानपुर नगर निगम का इतिहास, मेट्रो सिटी का दर्जा मिलने के बावजूद इन समस्याओं से जूझ रहा शहर

Kanpur Nagar Nigam चुनाव का बिगुल बजते ही राजनीतिक दलों में हलचल तेज हो गई है। महापौर के साथ पार्षद पद के दावेदार टिकट पाने के लिए पूरा जोर लगाए हुए हैं। 13 मई को पता चल जाएगा कि शहर की सरकार का मुखिया कौन होगा l फोटो- संजय यादव

By Nitesh SrivastavaEdited By: Nitesh SrivastavaUpdated: Tue, 11 Apr 2023 12:50 PM (IST)
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स्मार्ट सिटी और मेट्रो सिटी का दर्ज मिलने के बाद भी नागरिक सुविधाओं से जूझ रहा शहर
जागरण संवाददाता, कानपुर: 1960 में नगर महापालिका का गठन हुआ था। पहला सदन चाचा नेहरू अस्पताल कोपरगंज में बने म्यूनिसपलटी भवन में हुआ था। उस वक्त शहर के विकास का बजट सिर्फ 391 लाख रुपये था। वर्ष 2022-23 में नगर निगम का बजट 13 अरब 92 करोड़ 30 लाख, 17 हजार रुपये है।

नगर महापालिका से लेकर नगर निगम तक के 63 साल में 356 गुणा शहर का बजट बढ़ गया। इस दौरान शहर को स्मार्ट सिटी और मेट्रो सिटी का दर्जा भी मिल गया लेकिन शहरवासी नागरिक सुविधाओं को लेकर अब भी जूझ रहे हैं।

वर्ष 1960 में शहर में 36 वार्ड थे। हर वार्ड में दो सभासद का चयन किया जाता था। इस हिसाब से 72 सभासद व आठ विशिष्ट सभासद होते थे। 80 सभासद नगर प्रमुख का चयन करते थे। इस दौरान भी शहर छह जोनों में बंटा था। नगर निगम का गठन वर्ष 1991 में हुआ। वर्ष 1995 में पहली बार जनता ने महापौर को चुना। इस समय शहर को छह जोनों के साथ 110 वार्डों में बांट दिया।

110 पार्षद चुने जाने लगे और 10 नामित पार्षद का चयन सरकार करती है। इसके अलावा सांसद व विधायक भी सदन में पदेन सदस्य होते हैं। अब नगर निगम सदन मोतीझील में लगता है।

डेढ़ रुपये में साइकिल का बनता था लाइसेंस

वाहनों के चलाने के लिए लाइसेंस होता है, ऐसे ही नगर महापालिका में डेढ़ रुपये का साइकिल चलाने के लिए टोकन बनता था। नगर निगम से सेवानिवृत्त अफसर आरआर शुक्ला ने बताया कि वर्ष 1984 तक साइकिल का लाइसेंस परमट में बनता था।

सेवानिवृत्त कर्मचारी ओमशंकर मिश्र और प्रमोद पांडेय ने बताया कि लाइसेंस न होने पर दस पैसे जुर्माना लगता था। हर साल लाइसेंस नवीनीकरण करवाना पड़ता था। जरीब चौकी, फजलगंज और अन्य जगह नगर निगम की टीमें लगी होती थीं, जो लाइसेंस चेक करती थीं।

अतिक्रमण 

शहर का 90 प्रतिशत इलाके में फुटपाथ और सड़क पर अतिक्रमण है। हालत यह है कि बाजारों में अतिक्रमण के कारण निकलना मुश्किल हो जाता है। पीरोड, सीसामऊ, लालबंगला, चावला मार्केट, गोविंदनगर, किदवईनगर, रावतपुर, कल्याणपुर, चमनगंज, बेकनगंज, मेस्टन रोड, मूलगंज, घंटाघर, जरीब चौकी, फजलगंज, डिप्टी पड़ाव समेत कई इलाकों में हालत खराब है।

बेसहारा जानवर 

बेसहारा जानवर, चट्टे, कुत्ते और सूअरों से जनता को निजात नहीं मिल पाई है। चट्टे हटाने के लिए खुद निवर्तमान महापौर जुटी रहीं लेकिन चट्टे फिर भी नहीं हट पाए। कुत्तों के चलते कई इलाकों में लोग निकलने से कतराते हैं। शहर के 70 प्रतिशत इलाके जानवरों के आतंक से परेशान हैं।

गंदगी 

इंदौर बनाने के लिए शहर में तमाम बार जागरूकता अभियान चल चुका है लेकिन शहर से गंदगी का निस्तारण नहीं हो पाया। शहर के 60 प्रतिशत इलाकों में गंदगी के चलते लोगों को जूझना पड़ता है। घर-घर से कूड़ा उठाने का अभियान 14 साल से चल रहा है लेकिन आज तक पूरे 110 वार्डों से कूड़ा नहीं उठ पाया है। खाद से लेकर टाइल्स बन रही है फिर भी गंदगी के ढेर बढ़ रहे है।

ड्रेनेज सिस्टम

नगर महापालिका से नगर निगम तक के सफर को 63 साल हो चुके हैं लेकिन अभी तक शहर का ड्रेनेज सिस्टम नहीं सुधर पाया है। आज भी सीवर व बरसाती पानी नाले से ही जुड़ा है। अंग्रेजों के जमाने के ड्रेनेज सिस्टम पर शहर टिका है। 80 प्रतिशत इलाके ड्रेनेज सिस्टम से जूझ रहे हैं। सीवर लाइन को लेकर पिछले 15 साल में आठ अरब रुपये खर्च हो चुका है लेकिन निजात आज तक नहीं मिली है।

पार्किंग

शहर में 15 लाख वाहन हो चुके हैं लेकिन पार्किंग के नाम पर केवल तीन मल्टीलेवल पार्किंग हैं। स्मार्ट 42 पार्किंग में ठेले खड़े हो रहे हैं या कब्जा हो गया है। 65 पार्किंग भी शौचालय, पेयजल व टिन शेड की व्यवस्था न होने के कारण बंद पड़ी हैं। सड़क पर वाहन खड़े होते हैं।

1962 में नगर महापालिका का भवन मोतीझील में बना। 16 फरवरी 1963 को मोतीझील में नगर महापालिका का पहला सदन चला। lशहर का पहला डिग्री कालेज आचार्य नरेन्द्र देव महिला महाविद्यालय 1963 में नगर निगम ने खोला।

प्रधानमंत्री के रूप में दो बार इंदिरा गांधी सदन में आईं। पहली बार एक मई 1964 को मेयर रतनलाल शर्मा के कार्यकाल में और 30 जून 1969 में पंडित भागवत प्रसाद तिवारी के कार्यकाल में इंदिरा गांधी का नागरिक अभिनंदन किया गया था। l30 जून 1973 से वर्ष 1988 तक निकाय चुनाव न होने के कारण सदन नहीं गठित हो पाया।

वर्ष 2017 तक कर्मचारी लाइट बंद करने को सुबह निकलते थे

वर्ष 2017 तक कर्मचारी सुबह छह बजे लाइट बंद करने और शाम छह बजे खोलने को निकलते थे। हर खंभे में स्विच होता था। इसको डंडे से खोलते व बंद करते थे। एलईडी लगने के साथ ही कई जगह टाइमर लग गया है। अपने आप लाइट बंद हो जाती हैं। वहीं एक साथ कई लाइटों के लिए स्विच लगाए गए हैं।

केरोसिन लैंप से एलईडी तक का सफर

वर्ष 1960 में 8703 स्ट्रीट व 250 केरोसिन लैंप जलवाए जाते थे। आज शहर में सवा लाख एलईडी लाइट लगी हैं। वर्ष 2017 तक सोडियम लाइट लगी थीं। पूरे शहर में सोडियम लाइट हटाकर एलईडी लगा दी गई हैं।

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