कड़ाके की ठंड में पसीना छुड़ा देता था लाल इमली का वूलन क्लॉथ, इंग्लैंड-अमेरिका-रूस और जर्मनी तक थी मांग
1950 के दौर में दस हजार से अधिक कामगारों का परिवार पालने वाली लाल इमली अपना अंतिम समय गिन रही है बीआइसी बहुत जल्द इसे बंद करने जा रही है।
By Abhishek AgnihotriEdited By: Updated: Fri, 21 Aug 2020 08:28 PM (IST)
कानपुर, विक्सन सिक्रोड़िया। कड़ाके की ठंड में पसीना छुड़ाने वाले वूलन क्लॉथ बनाने वाली लाल इमली मिल अब अपना अंतिम समय गिन रही है। कानपुर के इतिहास में लाल इमली का नाम हमेशा जिंदा रहेगा क्योंकि न सिर्फ इस मिल ने दस हजार कामगारों के परिवार का पेट पाला बल्कि शहर की पहचान सात समंदर पार तक बनाई। आइए आपको लाल इमली की खसियत और इतिहास से परिचत कराते हैं, जो कभी औद्योगिक नगरी कानपुर की शान रही है।
सुबह और शाम का हूटर से पता चलता था समयभारत की आजादी से पहले बनी लाल इमली मिल ने सन् 1950 के समय में स्वर्णिम दौर देखा है, यहां पर दस हजार कामगार काम करते थे। अलग-अलग शिफ्टों में चौबीस घंटे चलने वाली इस मिल का सुबह और शाम दो बजने वाल हूटर आसपास करीब दो किमी तक सुनाई देता था। इस हूटर के बजते ही उस दौर में लोग समय की जानकारी भी कर लेते थे। यहां मीनार पर लगी घड़ी रास्ते से गुजरने वालों और मिल में काम करने वालों को समय का ध्यान दिलाती थी। यह वह दौर था जब कानपुर भारत का मैनचस्टर कहा जाता था।
ऑस्ट्रेलिया की मोरिनो भेड़ के बाल से बनता वूलशहर में बीआइसी की मिलों में एक लाल इमली अपने वूलन क्लॉथ के लिए मशहूर थी। एक जमाने में यहां आॅस्ट्रेलिया की मोरिनो भेड़ के बाल से बनने वाली वूल से कंबल, लोई, मोजे, मफलर, टोपी व कपड़े इतने गर्म होते थे कि पहनने वाले को कड़ाके की ठंड में पसीना छूट जाता था। सियाचिन व लद्दाख में सरहदों की निगहबानी करने वाले भारतीय सैनिकों के लिए लाल इमली के वूलन कपड़े किसी कवच से कम नहीं होते थे। इसके वूलन क्लॉथ की मांग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस व जर्मनी में भी खासा डिमांड थी। वहां से आने वाले पर्यटक ऑस्ट्रेलिया की मेरिनो भेड़ की ऊन से बनने कंबल और कपड़े खरीदकर ले जाते थे।
स्पेन में मिला था इंटरनेशनल ग्लोबल अवार्ड मिलाऑस्ट्रेलिया की भेड़ से ऊन से बनने वाले गर्म उत्पादों की लोकप्रियता इस कदर हो गई थी कि बेस्ट वूलन क्लाॅथ के लिए लाल इमली को स्पेन में इंटरनेशनल ग्लोबल अवार्ड मिला था। इसके उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1981 में इसका राष्ट्रीकरण किया। इसके बाद उत्पादों का बनना और तेज हो गया था। उन्होंने इस मिल को ‘नो प्राॅफिट नो लाॅस के तहत’ चलाने पर जोर दिया था। यहां बने उत्पादों के दाम इतने कम रखे जाते थे कि रिक्शाचालक व ठेला लगाने वाले हर गरीब तक इसे खरीदकर उपयोग करता था। उच्च वर्ग के लिए भी यहां खास तरह का वूलन क्लॉथ बनता था। इतना ही नहीं यहां पर तोप के गोले को कवर करने वाला कपड़ा और सैनिकों की वर्दी के लिए भी कपड़े की थान तैयार की जाती थी।
देशभर में नहीं हैं ऐसी मशीनें1987 में वर्कर कम मशीन ऑपरेटर के पद पर नियुक्त हुए हीरा सिंह बताते हैं कि वह डिफेंस की सप्लाई के लिए कपड़ा तैयार कराते थे। यहां पर ऐसी मशीनें आज भी हैं, जो बेमिसाल हैं और चौबीस घंटे बिना रुके चलाई जा सकती हैं। जिन पर वह काम किया करते थे, जो आज भी चालू हालत में उत्पादन कर सकती हैं। बस जरूरत है तो कच्चे माल की।राजीव गांधी पहनाते थे लाल इमली की लोई
1988 से मिल में काम कर रहे कर्मचारी संघ के अध्यक्ष अजय सिंह बताते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व उनके पुत्र राजीव गांधी का इस मिल से बहुत गहरा नाता रहा हैं। यहां की प्रसिद्ध टूस लोई व 60 नंबर लोई राजीव गांधी पहना करते थे। उनकी कई फोटो भी ऐसी हैं, जिनमें वह यह लोई पहने हुए हैं।मिल को ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले श्रमिकों को मिले फललाल इमली कर्मचारी संघ के संयोजक आशीष पांडेय कहते हैं कि मिल को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में श्रमिकों का खून-पसीना लगा है। मिल बंद हो रही है इसका गिला नहीं है, दर्द तो इस बात का है कि उन कागमारों को मेहनत का फल मिलने में देर हो रही है। उन्हें 2006 से एरियर व 2021 से लीव इनकैशमेंट दिया जाए, जबकि 24 महीने का वेतन भी उनके भुगतान में शामिल है। वह भी एक दौर था जब लाल इमली के वेतन से दीपावली के दिये व होली के रंग उड़ा करते थे। 2008 में उत्पाद कम होेने व 2012 में शून्य पर उत्पादन आने पर यह त्योहार तो दूर की बात घर में दिया जलाना भी मुश्किल हो गया है।
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