कहानी उन महिलाओं की जो अपने कौशल से संवार रहीं लोगाें की तकदीर, प्रयास को CII ने भी सराहा
भारत में कई महिलाएं ऐसी हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में उम्दा कार्य कर न केवल अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं अपितु अन्य महिलाओं को स्वावलंबन की राह प्रशस्त कर रही हैं। जागरण डॉट कॉम लेकर आया है ऐसी ही कुछ महिलाओं की सफलता की कहानी
By Shaswat GuptaEdited By: Updated: Thu, 09 Sep 2021 07:35 PM (IST)
कानपुर, [सीमा झा]। बदल रहा है भारत, इस बदलाव की वाहक बनी हैं वे महिलाएं जिनका नजरिया चौंकाता है, जिनके सपने अंधियारे को चीरकर रोशनी बिखेर रहे हैं। रोमांचित करने वाली और हर हाल में उठ खड़े होने की आस जगा देने वाली है इनकी कहानी। हम बात कर रहे हैं सीआइआइ यानी भारतीय उद्योग संघ द्वारा हाल में पुरस्कृत महिलाओं की, जो समाज के उस तबके से आती हैं, जिन्हेंं पिछड़ा और असहाय समझा जाता है, लेकिन वे अब ऐसी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को धता बताकर न केवल अपनी राह में आने वाली बाधाओं से पार पा चुकी हैं, बल्कि अपने जैसी अन्य महिलाओं को भी आगे बढऩे में सहयोग करते हुए अपनी नेतृत्व क्षमता को बखूबी साबित कर रही हैं।
- जगा दी शिक्षा की अलख: [उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में रहने वालीं 44 वर्षीय रीता कौशिक कहती हैं कि शिक्षा से ही समाज में बदलाव संभव है। यही हर खुशी पाने का माध्यम भी है।]
कहते हैं सच्चाई की कड़वाहट से लडऩे का हुनर भी तभी पैदा होता है, जब जिंदगी अपने विद्रूप रूप में सामने होती है। मुसहर समुदाय से आने वाली रीता कौशिक ने कभी नहीं सोचा था कि वह अपने परिवार में औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने वाली पहली महिला बन जाएंगी और हाशिए पर रहने वाले, गरीबी और भुखमरी झेलने को अभिशप्त समाज को अपने दम पर नई राह दिखा सकेंगी। आज वह अपनी संस्था के जरिए मुसहर समाज की शिक्षा और जागरूकता के लिए काम कर रही हैं। उनकी संस्था की पहुंच 112 ग्राम पंचायतों तक है। सरकारी और निजी संगठनों के साथ मिलकर वह देश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्य करने वाली संस्थाओं के साथ भी काम कर रही हैं। वह 25 हजार से अधिक बच्चों के जीवन में शिक्षा की अलख जगा रही हैं। उनकी कहानी 23 साल पुरानी है। संघर्ष और तमाम जिल्लतों को सहते हुए बड़ी हुई हैं रीता। घर पर छोटे भाई-बहनों की संरक्षिका रहने वाली बच्ची की पढऩे की इच्छा तब बाहर आई, जब वह रोजाना भाई के स्कूल के बाहर उसका इंतजार करते थक जाती थी। फिर उसने उसी स्कूल के शिक्षक से पिछली बेंच पर बैठने और अपने लिए एक स्लेट देने की गुहार लगाई। बात बन गई और वह भी पढऩे लगी। स्कूल की हर परीक्षा में अव्वल रही। हालांकि दलित होने के कारण उन्हें भेदभाव भी खूब झेलना पड़ा, लेकिन वह हार कहां मानने वाली थीं। रिक्शा चालक दलित पिता को अचानक बच्ची की शादी की चिंता सताने लगी और एक दिन रीता को न चाहते हुए बाल विवाह के लिए हामी भरनी पड़ी, पर विदाई के अगले ही दिन वह मायके वापस आ गईं। मन में पढऩे का जुनून लिए वह जीवन में कुछ करना चाहती थीं। अपनी इच्छा को पिता से साझा किया। पिता को उनकी अदम्य इच्छा के आगे झुकना पड़ा, पर कुछ ही समय बाद पैसे की कमी दीवार बनकर खड़ी हो गई। रीता ने इस चुनौती का भी बखूबी सामना किया। खुद को इस काबिल बनाया जिससे कि छोटी नौकरी भी मिल जाए ताकि मिलने वाले पैसे से पढ़ाई जारी रहे। उन्होंने बीएससी किया और जीवन की बागडोर अपने हाथ में थाम ली। आगे चलकर पुनॢववाह किया। अपने जीवनसाथी के साथ मिलकर आज वह दलित समाज और अपने समुदाय के विकास के लिए कई काम कर रही हैं। उनके अधिकारों के लिए उन्हेंं सजग करते हुए बता रही हैं कि जीवन में वास्तविक उजाला तभी आता है जब शिक्षा की रोशनी जलाई जाए। रीता के कारण आज न केवल उनके समुदाय की परेशानियां कम हो रही हैं, बल्कि बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ उस समाज की बच्चियां भी आवाज उठाने का साहस कर पा रही हैं।
- देखा घूंघट के पार: [राजस्थान के अजमेर स्थित तिलोनिया गांव में रहने वालीं 54 वर्षीय धापू देवी कहती हैं केि मैं अपने जैसी 100 और महिलाओं को तैयार करना चाहती हूं। ताकि कुपोषण के खिलाफ यह मुहिम चलती रहनी चाहिए।]
- दिव्यांगता को बनाई ताकत: [राजस्थान के अजमेर में रहने वालीं 37 वर्षीय मीनू मंडरावलिया कहती हैं कि मैं समाज में हाशिए में रहने वाली महिलाओं को सशक्त करने की अपनी मुहिम जारी रखना चाहती हूं। वे किसी भी मुश्किल से खुद निपट सकें, इस काबिल बनें, बस यही चाहती हूं।]
मीनू एक साल की थीं तभी पता चला कि उनके दोनों पांव पोलियो से ग्रस्त हैं। 10 साल तक माता-पिता ने मीनू को घर के अंदर रखा ताकि समाज की बुरी नजरों से उन्हें बचाया जा सके, पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। मीनू को पढऩा था। वह 10 साल की उम्र में पहली बार स्कूल गईं। अपने से बहुत छोटे बच्चों के बीच रहकर पढऩा, उस पर से दिव्यांगता, यह किसी और के लिए हीनता की स्थिति हो सकती थी, पर मीनू ने इसे खुद पर हावी नहीं होने दिया। पांचवीं कक्षा में उन्हेंं तिपहिया साइकिल मिली तो उनका आत्मविश्वास और बढ़ गया। वह समझ गईं कि पांव न भी हों, बस मन मजबूत हो तो पांव की कमी कभी नहीं खल सकती। हालांकि 12वीं कक्षा में थीं तभी शादी हो गयी। पति का तो साथ मिला, लेकिन ससुराल के अन्य लोगों का नहीं। पति की इजाजत मिली तो मीनू ने बैग बनाने का प्रशिक्षण लिया। इसमें हुनरमंद होते ही उन्हेंं लगा कि अब वह भी जीवन में कुछ करने का सपना संजो सकती हैं। आत्मविश्वास बढऩे के साथ उनके पिछले सारे दर्द दफन होते गए। एक साल बाद वह बैग बनाने की कला में माहिर हो गईं। अब वह मास्टर ट्रेनर बन गई हैं। आज मीनू न केवल परिवार की प्रेरणा हैं, बल्कि अपने समुदाय और दूसरी महिलाओं को भी यह आस दे रही हैं कि ठान लें तो कुछ भी असंभव नहीं है। वे कभी अपनी तिपहिया लिए तो कभी खचाखच भरी बस में अजमेर जिले के 150 गांवों में गईं और 13,000 महिलाओं को प्रशिक्षण दिया। मीनू ने कपड़ा सिलने के कौशल को नया रूप दिया और उसे अधिक से अधिक संवारा, जो लड़कियां ब्यूटीशियन का कोर्स करना चाहती थीं, उसे भी मीनू ने संभव कराया। वह अपने काम को लेकर गांवों के सरपंचों से मिलीं। उद्यमिता को प्रोत्साहित करने के लिए स्वयं सहायता समूह का गठन किया। इससे करीब 4500 महिलाएं जुड़ीं। अपना काम शुरू करने के लिए ऋण कैसे लेना है, कैसे काम शुरू करना है, ये सब बातें मीनू ने ही सिखाईं। उनसे जुड़ी कोई महिला महीने में पांच हजार रुपये कमा रही है तो कोई 25 हजार। एक समय जो परिवार साथ नहीं दे रहा था, वह भी आज उनके साथ काम के लिए जाता है। खास बात यह है कि मीनू दो सौ से अधिक मास्टर ट्रेनर भी तैयार कर चुकी हैं, जो महिलाएं कभी घर से नहीं निकलती थीं, वे मीनू की मदद से आज शान के साथ अपने परिवार के लिए आय जुटा रही हैं। मीनू अगले दो-तीन साल में 30 हजार से अधिक महिलाओं को प्रशिक्षण देना चाहती हैं।
वुमन एक्जेम्प्लर अवार्ड 2021: जमीनी स्तर पर काम करने वाली उन महिलाओं को भारतीय उद्योग संघ (सीआइआइ) पुरस्कृत करता है, जो संघर्ष भरी जिंदगी में आगे बढ़ते हुए अपनी नायाब नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन करती हैं। इस पुरस्कार को वुमन एक्जेम्प्लर अवार्ड के रूप में जाना जाता है। इसकी शुरुआत वर्ष 2005 में हुई थी। इस वर्ष इसके लिए कुल 254 नामांकन आए थे, जिसमें अंतिम रूप से 15 महिलाओं को फाइनलिस्ट के रूप में चयनित किया गया। गत माह ही इन पंद्रह में से तीन महिलाओं (रीता कौशिक, धापू देवी और मीनू मंडरावलिया) को विजेता घोषित किया गया है। जीवन की प्रतिकूलताओं से लड़ते हुए आगे बढऩे वाली इन महिलाओं की नेतृत्व क्षमता करोड़ों महिलाओं के जीवन में रोशनी लाने का काम कर रही है।
गर्व है ऐसी महिलाओं पर: सीमा अरोड़ा सीआइआइ फाउंडेशन की सीईओ कहती हैं कि सीआइआइ फाउंडेशन एक सशक्त मंच है जिसके तहत भारतीय समाज के हाशिए पर रहने वाली महिलाएं मिसाल बनकर उभर रही हैं, उन्हें और बेहतर करने के लिए प्रेरित किया जाता है। जब उन्हेंं बड़ा मंच मिलता है तो अलग पहचान मिलती है। इससे वे और भी सशक्त महसूस करती हैं। मुझे गर्व है कि इस बार की विजेता महिलाओं पर जिन्होंने कभी मुश्किलों से हार नहीं मानी, बल्कि अपनी सीमाओं को ही ताकत बना लिया। हम उन महिलाओं के साथ मिलकर काम करने की इच्छा रखते हैं ताकि वे आगे जाकर अपने जैसी और महिलाओं को प्रेरित कर सकें।
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