नाट्यकला ही नहीं जनमानस को जागरूक करने का मंच भी है रामलीला, आजादी के संघर्ष में प्रत्यक्ष विरोध का था माध्यम
आजादी के संघर्ष में रामलीलाएं एक सशक्त माध्यम और मंच थीं। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए हम जब रामलीलाओं के आजादी से जुड़े योगदान की समीक्षा करते हैं तो स्पष्ट परिलक्षित होता है कि लीलाओं ने भारत की पीढिय़ों का निर्माण किया है।
By Shaswat GuptaEdited By: Updated: Fri, 08 Oct 2021 02:50 PM (IST)
प्रो. राम मोहन पाठक, [दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई एवं नेहरू ग्राम भारती मानित विश्वविद्यालय, प्रयागराज के पूर्व कुलपति]। भारतीय जनजीवन के रोम-रोम में श्रीराम बसे हैं। भगवान राम के अनुकरणीय, उदात्त चरित्र के संदेश को प्रतिवर्ष पुनर्जीवन देती रामलीला की करीब 475 साल पुरानी परंपरा भारतीय स्वाधीनता संग्राम के संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लोकमाध्यम के रूप में भी इतिहास में दर्ज है। अंग्रेज शासन के दमन, शोषण और अत्याचार को रामलीला के माध्यम से मुखरित करते हुए विद्रोह के स्वर और संदेश को इसके प्रतिकार के लिए 'लोक' को प्रेरित करने में रामलीलाओं की भूमिका ऐतिहासिक रही है। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए हम जब रामलीलाओं के आजादी से जुड़े योगदान की समीक्षा करते हैं तो स्पष्ट परिलक्षित होता है कि लीलाओं ने भारत की पीढिय़ों का निर्माण किया है। लीलाएं प्रतिभाओं और सामान्य लोगों के व्यक्तित्व को तराशने का माध्यम रही हैं। एक सबल लोक-माध्यम रूप में रामलीलाओं की शक्ति को बहादुर शाह जफर ने पहचाना था, उनके शासनकाल में पुरानी दिल्ली के मैदान (अब रामलीला मैदान) में रामलीला का आयोजन संपन्न होता था। जनजागृति का संदेश रामलीला की उद्गमस्थली काशी की रामलीलाएं तो 'पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं' के श्रीरामचरित्मानस के स्वर और आह्वïान को लोगों तक पहुंचाने का सशक्त और सबल माध्यम थीं। काशी की प्रसिद्ध चेतगंज रामलीला का प्रारंभ 134 साल पहले 1888 में अंग्रेज शासन के विरुद्ध एक लोक आयोजन के रूप में हुआ। रामलीला के अधिष्ठातादेव भगवान राम थे पर सांस्कृतिक-धार्मिक आयोजन के साथ-साथ यह लीला और इसका प्रमुख आयोजन- चेतगंज की नक्कटैया के रूप में विख्यात लक्खा मेला (दर्शकों-भक्तों की लाख से ऊपर संख्या की उपस्थिति के कारण) गुलामी के विरुद्ध जनजागृति का संदेश लोगों तक पहुंचाने का अवसर और आयोजन भी रहा। बहुरूपिया बन करते प्रदर्शन धार्मिक व्रतपर्व करवाचौथ को शूर्पणखा की नाक लक्ष्मण द्वारा काटे जाने के बाद पूरी रात चलने वाली लीला में खरदूषण की सेना के कई किलोमीटर लंबे जुलूस का और इसमें प्रदर्शित राष्ट्रभक्ति, मनोरंजन तथा अंग्रेज शासन के विरोध का खास संदेश देती झांकियों, लाग-विमानों के प्रदर्शन की पूरी परंपरा थी। स्वाधीनता के बाद सामाजिक कुरीतियों, समस्याओं और अन्य विषयों को प्रदर्शित करते लाग-विमान, झांकियों की शुरुआत हुई। लीला के नक्कटैया जुलूस में 'स्वांग' की भी परंपरा रही है। 'स्वांग' यानी विविध रूप धरे लोगों में अंग्रेजों का रूप और आजादी के दीवानों के रूप को प्रस्तुत करने वाले बहुरूपिये सालों-साल इस जुलूस के आकर्षण रहे और स्वाधीनता संग्राम के रणबांकुरों के प्रेरणास्रोत बने रहे। हर बरस लगते क्रांति के मेले अभिलेखों के अनुसार, क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद प्रतिवर्ष इस नक्कटैया मेले के अवसर पर अनेक वर्षों तक लीला में उपस्थित होते रहे। चंद्रशेखर आजाद के आगमन के कारण यह अवसर क्रांतिधर्मी देशभक्तों के वार्षिक सम्मेलन का अवसर बन गया था। चेतगंज का सरस्वती पुस्तकालय क्रांतिकारी सम्मेलन का स्थल होता था। इस रतजगा (पूरी रात जागरण) मेले में लीला के तत्कालीन प्रमुख कर्ता-धर्ता बाबा फतेहराम ने गुलामी की जंजीरों से भारतमाता को मुक्त कराने का संकल्प लेकर इस रामलीला को अपने संकल्प की पूर्ति का माध्यम और आधार बनाया। बाबा फतेहराम के व्यापक जनाधार और लोक-सम्मान के कारण लीला पर प्रतिबंध के अनेक कागजी प्रयासों के बावजूद अंग्रेज अफसर अपनी मंशा में सफल न हो सके, बल्कि अंग्रेज कलक्टर ही चेतगंज नक्कटैया के मेले का हमेशा प्रतिवर्ष उद्घाटन करते रहे। आज भी लीला-मेले का उद्घाटन वाराणसी के कलक्टर (डी.एम.) करते हैं। मंच से किया बगावत का आह्वान हिमालय से कन्याकुमारी तक रामलीला की सुदृढ़ परंपरा और जनमानस पर इसके अमिट-अटूट प्रभाव के कारण ही रामलीलाएं अंग्रेजों को खटकती रहीं और अंग्रेजों के निशाने पर थीं। प्रबल जनसमर्थन और लगाव रामलीला परंपरा की अमिट थाती रही है। संभवत: इसे देखते हुए ही अंग्रेज रामलीलाओं के विरुद्ध कुछ नहीं कर सके पर रामलीलाओं के सुचारू रूप से और निर्विघ्न संपन्न होने में बाधाएं अवश्य डालते रहे। उत्तर प्रदेश के ही धामपुर, बिजनौर की ऐतिहासिक रामलीला ने अनेक प्रहार झेले पर लीला को स्वाधीनता संघर्ष का मंच बनाए रखने का लीला आयोजकों का संकल्प टूट नहीं सका। 1936 में स्वाधीनता आंदोलन चरम पर था। इसी वर्ष प्रारंभ उत्तर प्रदेश के धामपुर तहसील के छोटे से गांव मोरना में रामलीला प्रारंभ कर अंग्रेजों को चुनौती देने का प्रयास किया गया। क्या जवान, क्या युवा-महिलाएं सभी ने लीला के सांस्कृतिक-धार्मिक पक्ष के साथ ही लीला के मंच से अंग्रेज शासन की चूलें हिलाने का आह्वान किया। अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का यह अद्भुत प्रयोग था। जिसके पश्चात अंग्रेजों ने पूरे क्षेत्र में किसी भी आयोजन, सभा या सम्मेलन पर सीधी रोक लगा दी पर रामलीला रोकने का साहस नहीं जुटा सके। आज से प्राय: 86 साल पहले ग्रामदेवता के पूजास्थल से प्रारंभ रामलीला आजादी मिलने तक स्वाधीनता संग्राम के स्वर को मुखरित करने और लोगों को संघर्ष के लिए प्रेरित करने में सफल रही। इसी क्रम में राजस्थान के बिसाऊ कस्बे की 200 साल पुरानी रामलीला यद्यपि शुरू से मूक रामलीला रही परंतु लीला में अपने हाव-भाव, मुखमुद्रा, इंगिति और संकेतों के माध्यम से भारतमाता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के संकल्प की अभिव्यक्ति के साक्ष्य इस रामलीला को देश की रामलीलाओं में खास विशिष्टता प्रदान करते हैं। विदेशी जमीन पर भी हुई रामलीला गिरमिटिया देशों त्रिनिदाद, सुरीनाम, फिजी, मारीशस आदि देशों में भारत देश छोडऩे की पीड़ा से मुक्ति के माध्यम के रूप में रामायण (श्रीरामचरित्मानस) प्रवासी भारतीयों का अटूट सहारा रहा है। मारीशस में रामायण केंद्र की स्थापना करते हुए पंडित राजेंद्र अरुण ने रामलीला परंपरा की प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम की प्रेरणा से नींव डाली। इन देशों मे पहले के शासकों की पश्चिमी सभ्यता के आक्रमण झेल रही रामलीलाएं गर्व सहित निरंतर जारी हैं। इन देशों की आजादी मे गिरमिटिया लोगों के योगदान के पीछे रामायण और रामलीला की अकूत शक्ति का योगदान रहा है। मारीशस में गंगा तालाब के पास आयोजित ऐतिहासिक रामलीला ने मारीशस के फ्रेंच सम्राज्यवादी शासन से मुक्ति दिलाने हेतु लंबा संघर्ष किया और संघर्ष को सफल बनाया। वैसे थाईलैंड, जापान, इंडोनेशिया, त्रिनिदाद, सुरीनाम कंबोडिया, बाली, लाओस, फिजी, अमेरिका आदि देशों में रामलीला की अद्भुत संचार शक्ति को शासकीय तथा सामाजिक मान्यता प्राप्त है। रामचंद्र के साथ भारतमाता का भी जयघोष भारत की सबसे पुरानी चित्रकूट रामलीला, जिसे तुलसीदास की प्रेरणा और भगवान राम की निरंतर आराधना के बाद स्वप्न में प्राप्त निर्देश के अनुसार मेघा भगत ने काशी में प्रारंभ किया था, अंग्रेजों के आंखों की किरकिरी बनी रही। लीला स्थल नगर से बाहर वरुणा नदी के तट पर था। येन-केन प्रकारेण लीला को रोक पाने में असफल रहे अंग्रेज हुक्मरान माने नहीं। उसी खुले इलाके में अंग्रेजों के बड़े-बड़े बंगले थे। लीला का आयोजन और भीड़ उन्हेंं सुबह-शाम खलल और बाधा लगता था। एक दिन कुछ अंग्रेज अफसर लीलास्थल के पास से गुजर रहे थे। देखा कि लीला चल रही है। 100 साल पुरानी इस घटना में अंग्रेज अफसर ने ललकारा, 'तुम्हारा यह हनुमान कैसा है? हनुमान तो समुद्र लांघ गए थे। यह हनुमान वरुणा नदी भी लांघ सकता है क्या? लांघे तो जानें। उस समय वरुणा पूरे उफान पर थीं। अगली सुबह सब एकत्र हुए। हनुमान की भूमिका कर रहे पंडित टेकराम भट्ट रातभर की हनुमान जी की आराधना के बाद पहुंचे थे। जब श्रीराम के उद्घोष के साथ टेकराम जी की नसें चटचटा उठीं और फिर एक बार 'जय श्रीराम' का घोष करते हुए छलांग लगाकर टेकराम जी पलक झपकते ही वरुणा के उस पार थे। सभी के आश्चर्य का समुद्र लहरा उठा था। टेकराम जी ने पीछे मुड़कर देखा और शरीर त्याग दिया। रामलीला की यह महिमा अंग्रेजों के लिए चुनौती बन गई और रामलीला निरंतर चलती रही। इस रामलीला में प्रति रात्रि अंत में दिए जाने वाले प्रसाद लेने के दौरान लोग राजा रामचंद्र के जयघोष के साथ भारतमाता का भी जयघोष करते थे। लोक संचार का प्रभावी माध्यम आजादी का अमृत महोत्सव हमें उन विभिन्न प्रतिभाओं की भी याद दिलाता है, जिन्होंने आजादी के सुर से सुर मिलाते हुए अपनी विविध कलाओं और विधाओं के माध्यम से योगदान किया। रामलीला की प्रेरणा से ही अपने प्रारंभिक दौर में विख्यात चित्रकार एम. एफ. हुसैन ने प्रतिष्ठा पाई। राम मनोहर लोहिया के साथ रामलीला देखकर उन्होंने हैदराबाद के रईस और प्रतिष्ठित साहित्यकार, प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'कल्पना' के संपादक बद्री विशाल पित्ती की हवेली के लिए दर्जनों रामलीला पेंटिंग तैयार कीं, जो आज भी कला जगत की ऐतिहासिक धरोहर हैं। सालों पुराने अपने अस्तित्व और परंपरा काल के दौरान रामलीलाएं लोक संचार का प्रभावी और उपयोगी माध्यम रही हैं। इस माध्यम का सार्थक उपयोग आजाद भारत में विभिन्न प्रयोजनों के लिए किया जाना समीचीन होगा। इस लोक माध्यम के संरक्षण और विकास के लिए कृतज्ञ भाव से आजादी के अमृत महोत्सव पर विशेष प्रयास आवश्यक हैं।
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