कानपुर : चीनी मिलें स्वदेशी तकनीक से बचाएंगी ऊर्जा, किफायती दाम में हो जाएगा काम; प्रदूषण भी होगा कम
उत्तर प्रदेश में आने वाले समय में हमारी चीनी मिलें कम प्रदूषण फैलाएंगी। इसके लिए राष्ट्रीय शर्करा संस्थान ने अपने नवोन्मेष के माध्यम से नई तकनीक विकसित की है। यह तकनीक ज्यादा खर्चीली भी नहीं है। इसके लिए राष्ट्रीय सम्मलेन में संस्थान को स्वर्ण पदक भी मिल चुका है। इससे चीनी मिलों को अपना लाभ बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।
अखिलेश तिवारी, कानपुर। राष्ट्रीय शर्करा संस्थान (एनएसआइ) ने चीनी मिलों में ऊर्जा संरक्षण की देसी तकनीक विकसित की है। इसमें भाप को कंप्रेस्ड कर कम ईंधन उपयोग से अधिक उत्पादन करना संभव हो सका है।
तकनीक का पहला प्रयोग भी उत्तर प्रदेश की नवनिर्मित चीनी मिल में आने वाले पेराई सत्र में होने जा रहा है। देश की अन्य चीनी मिलें भी देशी तकनीक अपनाने के लिए तैयार हैं, इससे उनमें ईंधन के तौर पर प्रयुक्त होने वाले बगास यानी खोई की दोगुणा बचत होगी।
शुगर टेक्नालाजिस्ट एसोसिएशन आफ इंडिया के इसी माह तिरुवनंतपुरम में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में मैकेनिकल वेपर रिकंप्रेशन तकनीक अनुसंधान के लिए एनएसआइ निदेशक प्रो. नरेन्द्र मोहन, महेन्द्र यादव और अमरेश प्रताप सिंह को स्वर्ण पदक दिया गया है।
प्रो. नरेन्द्र मोहन ने बताया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नवनिर्मित वेब चीनी मिल में इस तकनीक का पूरी तरह से प्रयोग किया गया है। पेराई सत्र शुरू होने पर इसका प्रयोग किया जाएगा।
संस्थान के विज्ञानी महेन्द्र यादव के मुताबिक मैकेनिकल वेपर रिकंप्रेसर (एमवीआर) एक ऐसा उपकरण है, जिससे चीनी उद्योग में उत्पादन के दौरान बर्बाद हो जाने वाली वाष्प ऊर्जा का प्रयोग करना संभव हो सका है।
उत्पादन के दौरान चीनी मिल में उच्च दबाव वाली वाष्प ऊर्जा का प्रयोग होता है। कम दबाव वाली भाप बाहर निकाल दी जाती है।
एमवीआर की मदद से कम दबाव वाली वाष्प ऊर्जा को कंप्रेस्ड कर उच्च दबाव वाली ऊर्जा में बदल दिया जाता, इससे चीनी उत्पादन में ऊर्जा खपत कम हो जाती है।
यह भी पढ़ें : खेल-खेल में बनेंगे भाषा के 'खिलाड़ी', इस नए तरीके से सिखाई जाएगी बच्चों को हिंदी; टीचर ने तैयार किया प्रोजेक्ट
तीन साल में लागत वसूल
चीनी मिल में गन्ना की पेराई से मिलने वाली खोई का प्रयोग ईंधन के तौर पर किया जाता है। 100 टन उत्पादन के दौरान ईंधन इस्तेमाल के बाद नौ से 10 टन खोई की बचत होती है।
एमवीआर के प्रयोग से बचत बढ़कर 18 से 20 टन हो गई। इससे 5000 मीट्रिक टन क्षमता वाली चीनी मिल को प्रत्येक घंटे करीब 70 हजार रुपये का शुद्ध लाभ बगास मूल्य के तौर पर प्राप्त होगा।
इसी क्षमता की चीनी मिल को नई तकनीक से अपग्रेड करने में करीब आठ करोड़ रुपये का खर्च होगा। छह माह उत्पादन अवधि में ढाई से तीन करोड़ रुपये का लाभ होगा।
खोई से बन रहे मूल्यवर्धित उत्पाद
गन्ना खोई का उपयोग अब इको फ्रेंडली प्लाई बोर्ड और क्राकरी के निर्माण में किया जा रहा है। खोई से तैयार कप-प्लेट, भोजन थाली का उत्पादन कई कंपनियां कर रही हैं जो चीनी मिलों से बगास यानी खोई की खरीद करती हैं।
यह भी पढ़ें : Mobilab Device: कम समय व कीमत में डिवाइस करेगा 20 तरह की जांच, ग्रामीण क्षेत्रों के लिए साबित हो सकता है वरदान
खोई का चीनी मिल में ईंधन के तौर पर कम प्रयोग होने से प्रदूषण भी कम होगा। प्लाईबोर्ड तैयार करने में खोई का प्रयोग होने से पेड़ों की कटान पर भी रोक लगेगी जो प्रकृति संरक्षण में अहम है।
चीनी मिलों से निकलने वाली खोई का प्रयोग विभिन्न तरह के सह उत्पादों में किया जा रहा है और इससे चीनी मिलों का शुद्ध मुनाफा बढ़ा है। एमवीआर तकनीक के प्रयोग से चीनी मिलों को दोगुणा खोई मिलने लगेगी और उनका लाभ बढ़ जाएगा। - प्रो. नरेन्द्र मोहन, निदेशक एनएसआइ