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तात्या टोपे : एक ऐसा महायोद्धा, जो कानपुर की जमीन से अंग्रेजों को चबवाता रहा लोहे के चने

राजा मानसिंह के विश्वासघात में गए थे पकड़े 18 अप्रैल 1859 को अंग्रेजों ने दी थी फांसी।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Updated: Fri, 17 Apr 2020 03:45 PM (IST)
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तात्या टोपे : एक ऐसा महायोद्धा, जो कानपुर की जमीन से अंग्रेजों को चबवाता रहा लोहे के चने
कानपुर, [श्रीनारायण मिश्र]। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का जब भी जिक्र होगा, एक महायोद्धा तात्या टोपे की चर्चा सर्वोपरि होगी। इस संग्राम में अंग्रेजों ने बड़े-बड़े राजाओं को हरा दिया था, लेकिन इस महायोद्धा के शौर्य, रणकौशल, चातुर्य और संगठन क्षमता को अंग्रेज कभी पराभूत नहीं कर सके। आजीवन वे अंग्रेजों को छकाते रहे, नई-नई सेनाएं लेकर हमला करते रहे। उनके जीवन का अंत उनके अभिन्न रहे राजा मानसिंह के विश्वासघात से हुआ। अंग्रेजों ने उन्हें सोते हुए धर दबोचा और सूली पर चढ़ा दिया। 18 अप्रैल 1859 को उन्हें फांसी दी गई थी। 161 साल पहले फांसी का फंदा खुद अपने गले में डालने वाले इस योद्धा की शौर्यगाथा अपने आप में अद्वितीय है।

बेहद साधारण परिवार में हुआ था जन्म

तात्या टोपे का असली नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। उनका जन्म 1814 में महाराष्ट्र के नासिक जिले में स्थित येवला गांव के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पांडुरंग राव पेशवा बाजीराव द्वितीय के कर्मचारियों में से थे। 1818 में पांडुरंग पेशवा के साथ बिठूर चले आए। उनके पिता ने दो विवाह किए थे। पहली पत्नी रुक्मा देवी ने रामचंद्र राव यानि तात्या टोपे और गंगाधर राव को जन्म दिया। इसके अलावा उनकी एक सौतेली बहन व छह भाई भी थे। तात्या सबसे बड़े थे। पेशवा नाना साहब उनसे दस वर्ष बड़े थे। तात्या पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में नौकरी करते थे, लेकिन स्वाभिमानी स्वभाव के कारण यह नौकरी छोड़कर वे पेशवा की नौकरी में वापस आ गए थे।

पेशवा की टोपी ने बना दिया टोपे

एक बार तात्या के शौर्य से प्रभावित होकर पेशवा बाजीराव ने उन्हें एक बेशकीमती टोपी दी। तात्या इस टोपे को बड़े चाव से पहनते थे। इसी वजह से लोग उन्हें तात्या टोपी या तात्या टोपे के नाम से पुकारने लगे। वह आजन्म अविवाहित रहे। हालांकि एक कहानी यह भी है कि तोपखाने में नौकरी करने के कारण उन्हें तोपे से अपभ्रंश कर टोपे कहा जाने लगा था।

मेरठ से हुई थी विद्रोह की शुरुआत

विद्रोह की शुरुआत 10 मई को मेरठ से हुई थी। जल्द ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी। विदेशी सत्ता का खूनी पंजा मोडऩे के लिए भारतीय जनता ने जबरदस्त संघर्ष किया। उसने अपने खून से त्याग और बलिदान की अमर गाथा लिखी। उस रक्तरंजित और गौरवशाली इतिहास के मंच से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, बहादुरशाह जफर आदि के विदा हो जाने के बाद करीब एक साल बाद तक तात्या विद्रोहियों की कमान संभाले रहे।

टोपे के साहस से अंग्रेजों के होश उड़े

सन् 1857 के संग्राम की लपटें जब कानपुर पहुंचीं तो सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की सेना ने कानपुर पर हमला किया। तब तात्या बहादुरी से लड़े, परंतु 16 जुलाई, 1857 को उनकी पराजय हुई और उन्हें कानपुर छोडऩा पड़ा। तात्या ने दोबारा सैनिक ताकत जुटाकर बिठूर को केंद्र बनाया। इस बीच हैवलॉक ने फिर हमलाकर उनकी सेना को पराजित किया। तात्या ने यहां से निकलकर ग्वालियर कंटिजेंट रेजीमेंट को अपनी ओर मिलाया और नवंबर 1857 में कानपुर पर हमला किया। इस तीव्र आक्रमण से ब्रिटिश सेना के पांव उखड़ गए, लेकिन इस क्षणिक विजय के बाद 06 दिसंबर को ब्रिटिश सेना ने तात्या को पराजित कर दिया। तात्या ने खारी पहुंचकर फिर सेना और तोपें जुटाईं और 22 मार्च को करीब 20,000 सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद को पहुंच गए। यहां अंग्रेज सेना हारी, लेकिन कालपी में फिर तात्या को हार का मुंह देखना पड़ा। वे ग्वालियर चले गए और महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को मिलाकर फिर ब्रिटिश सेना पर हमला किया और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया। यहां झांसी की रानी, तात्या और राव साहब ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया। मगर ब्रिटिश सेनापति ह्यूरोज ने फिर हमला किया और फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई 18 जून, 1858 को शहीद हो गयीं। इसके बाद तात्या दस माह तक अंग्रेजों पर छापामार हमले करते रहे, मगर अंग्रेज कभी उन्हें पकड़ नहीं पाए। इसके बाद तात्या की लड़ाई अंग्रेजों से कंकरोली, ब्यावरा, देवास और शिकार में हुई। जहां उन्हें पराजित होना पड़ा। इसके बाद उन्होंने परोन के जंगल में शरण ली। यहां नरवर के राजा मानसिंह के विश्वासघात से 8 अप्रैल 1859 को अंग्रेजों ने उन्हें सोते हुए पकड़ लिया।

'मैंने विद्रोह नहीं किया, अपने शासक का हुक्म माना'

नाना साहब जब नेपाल चले गए तो उन्होंने जाते समय तात्या टोपे को राव साहब का हुक्म मानने का आदेश दिया। 15 अप्रैल 1859 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। इस दौरान जब उन पर अंग्रेजी शासन से विद्रोह का आरोप लगाया गया तो उन्होंने साफ कहा कि उन्होंने केवल अपने शासक राव साहब के आदेश पर अमल किया है। अंग्रेजों ने फांसी से पहले जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी तो उन्होंने कहा कि बिठूर में उनके पिता व परिवार को परेशान न किया जाए। हालांकि 18 अप्रैल को उनकी फांसी के बाद अंग्रेजों ने उनके पिता समेत अन्य स्वजनों को बंदी बना लिया और उनके आवास को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद इसी जमीन पर उनके भाई लक्ष्मण राव रहने लगे। लक्ष्मण राव के पुत्र नारायण राव हुए, जिनके वंशज विनायक राव टोपे आज भी बिठूर में परिवार के साथ रहते हैं।

भारत के गैरीवाल्डी कहलाए

तात्या टोपे का शौर्य केवल भारत ही नहीं अपितु विदेशों तक फैला। यही वजह थी कि उन्हें उनके समकालीन इटली के महान योद्धा गैरीवाल्डी के समान माना गया। उन्हें कई विदेशी इतिहासकार भारत का गैरीवाल्डी भी कहते हैं। 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखने वाले ब्रिटिश कर्नल मालेसन ने लिखा था कि तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के हीरो बन गये हैं। सच तो ये है कि तात्या सारे भारत के हीरो बन गये हैं। ब्रिटिश लेखक पर्सी कहते थे कि भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे प्रखर मस्तिष्क के नेता थे। उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छिन जाता। 

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