एक दौर था, जब छोटी पगडंडियां हों या चौड़े रास्ते, रंग-बिरंगे देसी फूलों से उनके किनारे रहते थे गुलजार
कान्हा की नगरी ब्रज में होली का एक रंग नजर आता है फूलों की होली के रूप में । एक वक्त था जब देसी फूलों को सुखाकर उनकी मदद से ही होली के रंग तैयार किए जाते थे।
कानपुर, लालजी बाजपेयी। अगर किसी बच्चे से पूछा जाए कि किन्हीं तीन फूलों के नाम बताओ तो उसकी जुबां पर पहला नाम तो गुलाब का आएगा और आगे जो गिने जाएंगे उनमें शायद लिली, जैंथम, ट्यूलिप...आदि का जिक्र होगा। सच तो यह है कि बुजुर्गों की बात छोड़ दें तो कम ही लोगों को उन देसी फूलों के पौधों के बारे में पता होगा जो ऊसर, बंजर और पथरीली जगह या यूं कहें कि रास्ते और खाली जमीन में कहीं भी दिख जाते थे लेकिन आज इन देसी फूलों से नई जेनरेशन अनजान है। देसी फूलों की बात करें तो गेंदा और गुलाब ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है बाकी विदेशी फूल ही लोगों की पसंद पर छाए रहते हैं। इसके पीछे एक वजह यह भी है कि विकास की दौड़ में अब ये फूल कम ही देखने को भी मिलते हैं। प्राकृतिक तौर पर पनपने वाले फूलों के ये पौधे भले ही सुंगध न बिखेरते हों पर उपयोग के मामले में भी ये विशेष स्थान रखते हैं।
रंगों से भरे होते थे रास्ते : एक दौर था, जब छोटी पगडंडियां हों या चौड़े रास्ते, रंग-बिरंगे देसी फूलों से उनके किनारे गुलजार रहते थे। जबकि न इन्हें उगाया जाता है और न ही किसी तरह से इनकी देखभाल होती है। इनका जीवन तुलसीदास के दोहे को पूरी तरह चरितार्थ करता है- 'रहें भरोसे राम के पर्वत मां हरियांय'। इसमें कुछ प्रजातियां मौसमी होतीं तो कुछ ऐसे होते थे जो वर्षभर फूल और पत्तियों से खूबसूरती बिखेरते रहते। पीले और नीले फूलों वाली भटकटैया, शंख की आकृति वाले लाल, सफेद व नीले फूल देने वाली शंखपुष्पी, गुच्छेदार सफेद फूलों वाली मकोय और सफेद फूल देने वाला भृंगराज अब गांवों में भी ढूंढना मुश्किल है। पक्की नाली और रास्ते बनने के कारण न तो नमी वाली जगहें बची हैं और न ही अब पहले जैसी बरसात होती है। नहरें ज्यादातर सूखी ही रहती हैं, इसलिए गंधैला के सफेद, पीले व सतरंगी आभा वाले फूलों के साथ ही तोते की चोंच की तरह सुर्ख रंग वाला टेसू का फूल भी ईद का चांद हो गया है। यही वजह है कि नाम भले ही पता हो पर अधिसंख्य लोग आज इन फूलों से अनजान हैं। अब न पगडंडियां बचीं और न ही कच्ची सड़कें, इसलिए इनकी बातें सिर्फ बुजुर्गों की यादों पर ही हैं।
गुम हुए जलाशय : वक्त के साथ मानसून का मिजाज बदला और विकास की अंधी दौड़ में तालाब, पोखर व झीलें भी गुम हो गईं। इसका असर यह पड़ा कि पानी में हरियाली की चादर बिखेरनी वाली जलकुंभी यदा-कदा ही देखने को मिलती है। मेडिकल की कोचिंग कर रहे पंकज भसीन कहते हैं, 'मैंने जलकुंभी के बारे में सुना था और एक बार गांव की यात्रा के दौरान देखा भी था पर यह नहीं पता था कि यही है जलकुंभी। अब वनस्पति विज्ञान पढ़ रहा हूं तो पता चला कि यह स्थिर जल में तेजी से वृद्धि करने वाला जलीय पौधा है और इसकी कई प्रजातियां हैं जिनमें अलग-अलग रंग के फूल निकलते हैं। भारत में जो जलकुंभी अधिक पाई जाती है उसका फूल हल्के नीले-बैंगनी रंग का होता है, जो बहुत ही सुंदर दिखता है। इसकी पत्तियां गहरे हरे रंग की स्पंजी होती हैं जो इस पौधे की खूबसूरती को और बढ़ाती हैं।'
इतिहास है बच्चों के लिए : कानपुर के सीएसजेयू के उद्यान-विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. वी के त्रिपाठी ने बताया कि किसी से आप जानवरों के बारे में पूछो तो वो शायद देसी-विदेशी दर्जनभर जानवरों के नाम बता देगा लेकिन देसी फूलों वाले प्राकृतिक पौधों की बात करो तो या तो जानकारी नहीं होगी अथवा सिर्फ नाम सुना होगा। लोग स्ट्रॉबेरी और रसभरी तो जानते हैं पर मकोय से अनजान हैं। जबकि मुझे याद है कि बचपन में हम लोग खेत-खलिहान से लेकर रास्ते के किनारे में इसके खूब पौधे देखते थे। इसके पीले फूलों से बच्चे खेलते थे और छोटे-छोटे काले, लाल फलों को खाकर चटखारे लेते थे। इसी तरह चकौड़ी की बात करें जल्दी से लोगों के दिमाग में यह पौधा नहीं आएगा, जबकि इसका पीला फूल खूबसूरत दिखता है। न तो इन पौधों के लिए जमीनें बचीं और न ही उस तरह का मौसम रहा जिसमें ये पनपते थे तो इनका किताबों में सिमटना लाजिमी है।
असंतुलित है अनुकूलन : कानपुर के डीबीएस कॉलेज के वनस्पति विज्ञान के विभागाध्यक्ष डॉ. जे.पी. शुक्ला ने बताया कि भटकटैया, मकोय, जलकुंभी, अड़ूसा, गंधैला, टेसू, शंखपुष्पी आदि ऐसे पौधे हैं, जिनका जीवन पूर्ण रूप से प्रकृति पर निर्भर होता है। न तो इन्हें उगाया जाता है और न ही किसी तरह की देखरेख करनी पड़ती है। मौसम के मिजाज में तेजी से हो रहे बदलाव और प्राकृतिक दोहन के चलते इनका अस्तित्व खतरे में है। जबकि पारंपरिक या औषधीय महत्व से देखें तो ये पौधे बहुत महत्वपूर्ण हैं। भले ही ये खुशबूदार नहीं होते हैं पर दिखते बहुत सुंदर हैं। पर्यावरण संतुलन बनाने वाले कीट-पतंगों व मधुमक्खियों के लिए भी बहुत लाभदायक होते हैं। अब मौसम का इनके अनुकूल न होना भी इनके कम दिखने का कारण है। जबकि हर्बल दवाओं के प्रति बढ़े रुझान को देखते हुए आयुर्वेदिक कंपनियों ने इनके अर्क, चूर्ण और आसव बाजार में उतारे हैं और कंपनियां इनकी खेती पर जोर दे रही हैं।