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नीचे नदी और ऊपर नहर, उनके बीच सुरंगनुमा रास्ता, बिना सीमेंट-सरिया का अनोखा पुल देख हैरत में पड़ जाते इंजीनियर

कानपुर में 107 साल पुराना ब्रिटिशकाल में निर्मित पुल की खास बात यह है कि नीचे नदी बह रही है और उसके ऊपर नहर का प्रवाह है। दोनों के बीच से बिना सीमेंट सरिया के इस्तेमाल से बने सुरंगनुमा रास्ता देखकर बड़े बड़े इंजीनियर हैरत में पड़ जाते हैं।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Updated: Mon, 14 Nov 2022 01:37 PM (IST)
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ब्रिटिशकाल में निर्मित पुल की मजबूती बेजोड़ है।
कानपुर, [शिवा अवस्थी]। शहर का एक पुल ऐसा है, जिसकी तकनीक बेजोड़ है तो निर्माण शैली देखकर बड़े बड़े इंजीनियरों आश्चर्य में पड़ जाएं। ब्रिटिशकाल में 107 साल पुराने इस पुल में तो सीमेंट का इस्तेमाल किया गया है और न ही सरिया का। इसे देखने और पुल से गुजरने वाले भी हैरत में पड़ जाते हैं क्योंकि पुल के नीचे नदी बहती है और ऊपर नहर का पानी बहता है। इनके बीच में से सुरंगनुमा रास्ता है और मजबूती ऐसी कि सैकड़ों वर्षों बाद भी यह आज तनकर खड़ा है। यह पुल गुजैनी बाईपास से बायीं ओर थोड़ी दूर पांडु नदी पर बना है। इसका संरक्षण किया जाए तो शहर के करीब ही पर्यटन का एक नया केंद्र विकसित हो सकता है।

ऊंचे खंभे और चौड़ी दीवारें, ठिठक जाती हैं निगाहें

इस अनोखे पुल को सहारा देने के लिए पांडु नदी पर छह पिलर (खंभे) बनाए गए हैं जो नीचे 25 फीट की गहराई से आए हैं। इन पर गोलाकार यानी आर्च के माध्यम से पानी निकालने की व्यवस्था है। पुल की देखरेख व पैदल निकलने वालों की व्यवस्था नदी से ऊपर व सड़क के नीचे से है। इसमें 22 दरवाजे हैं, जिन तक पहुंचने व इनसे निकलकर ऊपर जाने के लिए दोनों तरफ सीढ़ियां हैं। इसके बाद ऊपर सड़क से नदी के छोर पर रेलिंग लगाई गई है, जबकि नहर छोर पर पक्की दीवार है।

इसी तरह नहर के बाद भी पैदल चलने वालों के लिए पक्की दीवारों के बीच गलियारा दिया गया है। दीवारों की चौड़ाई ढाई से तीन फीट तक है। सड़क से कार और दोपहिया वाहन आराम से गुजर सकते हैं। पुल की बनावट देखकर पहली बार यहां से गुजरने वाले ठिठक जाते हैं और पुरानी तकनीक की प्रशंसा करने से खुद को रोक नहीं पाते।

सीमेंट न सरिया... फिर भी बेमिसाल है मजबूती

सिविल इंजीनियर प्रदीप कुमार बताते हैं, पुल का निर्माण ब्रिक वर्क से किया गया है। इसलिए बिना सीमेंट व सरिया के ही इसकी मजबूती देखते बनती है। नदी के नीचे पहले ईंटों के ही पिलर बनाए गए हैं। इसके बाद चाभी यानी की की पुरानी पद्धति से बीच-बीच में पत्थरों से गोलाई में बने पानी निकास स्थलों को फंसाया गया है। गोलाकार रूप में छह हिस्सों में पांडु नदी का पानी निकलने की व्यवस्था है, लेकिन वर्तमान में नदी सिर्फ दो हिस्सों से बह रही है।

पुल निर्माण से साफ है कि अंग्रेजों के शासनकाल में इस नदी में पानी खूब रहा होगा, जो भविष्य में धीरे-धीरे कम होता गया। नदी के नीचे से पहले ईंटों के पिलर लाए गए हैं, फिर पत्थरों से उन्हें जोड़ा गया है। इसके बाद गोलाकार रूप में छह हिस्सों में पुल बंटा है। उसके ऊपर पैदल चलने वालों के लिए व्यवस्था है।

जलस्तर मापने को लगे बोर्ड

पांडु नदी और गंग नहर के हिस्से में दोनों तरफ जलस्तर मापने के लिए बाकायदा ईंटों के बीच ही बोर्ड बनाए गए हैं। इनसे संभवत: ब्रिटिशकाल में पानी की स्थिति मापी जाती रही होगी। वर्तमान में इनका कुछ हिस्सा टूट चुका है, लेकिन नंबर पड़े हुए हैं। चारों गोलाकार किनारों पर सीढ़ियों के माध्यम से इन जलस्तर मापने वाले स्थलों तक पहुंचा जा सकता है।

तब चार लाख में बनकर तैयार हो गया था पुल

जब गुजैनी बाईपास की तरफ से पुल पर पहुंचते हैं तो शुरुआत में बायीं ओर सीढ़ियों से नीचे पहुंचने पर पैदल जाने वाले रास्ते की सीढ़ियां चढ़ने से पहले ही बोर्ड लगा है। इस पर ऊपर से नीचे की ओर तीर के निशान में बायीं ओर पुल के निर्माण का वर्ष 1915 लिखा हुआ है। वहीं, दाहिनी ओर अंग्रेजी में आरएस के बाद 403.24 अंकित है, जो इस पुल की लागत को दर्शाता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि तब इस पुल के निर्माण में चार लाख तीन हजार 240 रुपये खर्च हुए थे। इसके नीचे डी-1050 लिखा है, जो समुद्र तल से इस स्थान की ऊंचाई को दर्शाता है।

इंजीनियरिंग की भाषा में एक्वाटेक्ट

ग्रामीण अभियंत्रण सेवा विभाग में सहायक अभियंता रहे एके शुक्ला बताते हैं कि ऐसे पुलों को इंजीनियरिंग की भाषा में एक्वाटेक्ट कहा जाता हैं। आर्च बनाकर इसमें चाभी से फंसाकर पत्थर लगाए गए हैं। भार क्षमता के हिसाब से बुनियाद भरी जाती थी। इसमें सरिया का प्रयोग नहीं किया जाता था।

ऐसे ईंटों का पुल बनता मजबूत

सहायक अभियंता रहे शुक्ला बताते हैं कि ब्रिक वर्क के निर्माण में सुर्खी और पिसी ईंटों व चूने से मसाला तैयार किया जाता था, जो बेहद मजबूत होता था। इसमें गुड़ का सीरा डाला जाता था, जिससे मसाला लचीलापन ले लेता था और लगाने में आसानी हो जाती थी। अरहर दाल का मिश्रण इसे और मजबूत बनाता था। वर्तमान में पुलों का निर्माण रेनफोर्स्ड सीमेंट कांक्रीट यानी आरसीसी से हो रहा है, जो सीमेंट पानी आदि के पेस्ट से निर्मित होता है। इसमें सरिया या लोहे के गार्डर का प्रयोग भी होता है।

इसलिए बनाया गया था ऐसा पुल

इतिहास के जानकार बताते हैं, जब वर्ष 1837-38 में भीषण अकाल पड़ा तो करीब एक करोड़ रुपये ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने खर्च किए। इसके बाद सुचारु सिंचाई प्रणाली की आवश्यकता महसूस हुई। तब गंग नहर को अस्तित्व में लाने का श्रेय तत्कालीन ब्रिटिश शासनकाल के कर्नल प्रोबी काटली को जाता है। उन्होंने 500 किलोमीटर लंबी ऐसी नहर का निर्माण कराया, जो अलग-अलग शाखाओं में बंटते हुए कानपुर तक पहुंची, जिसे निचली गंग नहर के नाम से जाना गया।

नहर की मुख्य शाखा आइआइटी कानपुर के पीछे से गुजरने के बाद कई उपशाखाओं में बंट जाती है। इसी में एक शाखा पनकी से दबौली सब्जी मंडी से होकर गुजैनी हाईवे के नीचे से गुजरकर बिधनू होते हुए आगे बढ़ती है। इसके किनारे की सड़क मर्दनपुर व कंचनपुर के बीच पांडु नदी के ऊपर से गुजरती है। यहीं स्थित है ब्रिटिश शासनकाल में निर्मित अनोखा पुल। इसे पार करते ही बाईं ओर का रास्ता सीधे मेहरबान सिंह का पुरवा को जाता है। थोड़ा आगे दाहिनी ओर नहर पर छोटा पुल एकता पार्क पहुंचाता है, जबकि सीधे जाने पर गोपालपुर गांव मिलता है।

इस पुल तक पहुंचने के लिए दूसरा रास्ता नौबस्ता-भौंती हाईवे पर गुजैनी के पास से अंबेडकर नगर होकर भी पहुंचता है। बुजुर्ग प्रताप सिंह बताते हैं कि अंग्रेजों ने इस पुल का निर्माण कराया था। नहर से हजारों गांवों तक वर्तमान में भी पानी पहुंच रहा है।

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