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Chauri Chaura Incident: चौरी चौरा घटनाक्रम के शताब्दी वर्ष पर आवश्यक जरूरी सुधार

आजादी के बाद इस घटना को इतिहास में ठीक वैसे ही कम तवज्जो दी गई जैसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों को कम अहमियत दी गई। यह भी सच है कि ये क्रांतिकारी युवा पीढ़ी के लिए सदैव हीरो बने रहे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 08 Feb 2021 10:06 AM (IST)
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चौरी चौरा कांड का शताब्दी वर्ष मनाने का निर्णय अतीत की गलतियों का एक जरूरी सुधार है।
राजू मिश्र। Chauri Chaura Incident यह एक अकाट्य तथ्य है कि ब्रिटिश हुकूमत से भारत को आजादी न एक दिन में मिली और न किसी एक व्यक्ति ने दिलाई। न ही यह आजादी कुछ तारीखों की क्रोनोलॉजी है। न ही कुछ नेताओं के समूह के प्रयास का जादुई नतीजा। इनकी भी बड़ी भूमिका रही है, लेकिन आजादी के बाद केवल कुछ घटनाओं और कुछ व्यक्तियों को ही इस लड़ाई का सारा श्रेय देकर एक तरह से उस गौरवमयी आंदोलन को कम करके आंका गया, जिसमें न्यूनाधिक मात्र में प्रत्येक भारतीय ने अपने सपनों, संसाधनों और शरीर की समिधा दी। शताब्दी वर्ष मना रहा चौरी चौरा कांड भी एक ऐसी ही घटना है, जिसे कम करके आंका गया। यह सवाल है कि जानबूझकर या अनजाने में। लेकिन, यह पूर्ण सत्य है कि चौरी चौरा घटनाक्रम जन प्रतिरोध की प्रबल भावना की परिणति था।

पिछले दिनों शताब्दी वर्ष के शुभारंभ अवसर पर प्रधानमंत्री ने सही कहा कि जन प्रतिरोध की इस घटना की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, उतनी नहीं हुई। चौरी चौरा थाने में आग लगाने की घटना केवल आगजनी नहीं थी। यह लोगों के दिलों में लगी आग का प्रकट रूप था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सही कहा कि चौरी चौरा की घटना ने आजादी के आंदोलन की दिशा बदल दी।

इस घटना के बाद गांधी जी को अपना असहयोग आंदोलन वापस लेना पड़ा था। यह ऐसी घटना थी जिसमें 19 क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गई। यह संख्या कहीं अधिक होती यदि बाबा राघवदास और महामना मालवीय इन क्रांतिकारियों के साथ न खड़े होते। इससे वह 150 लोगों को फांसी की सजा से बचाने में सफल रहे।  चौरी चौरा कांड का शताब्दी वर्ष मनाने का निर्णय अतीत की गलतियों का एक जरूरी सुधार है।

पीएम के ‘बजट’ से निकली योगी की ई-कैबिनेट : देश में पहली बार पेपरलेस बजट पेश कर जिस मंशा का उद्घोष प्रधानमंत्री ने किया उसकी प्रतिध्वनि सबसे पहले उत्तर प्रदेश में सुनी गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर हुई इस शुरुआत का सिर्फ सांकेतिक महत्व नहीं, बल्कि आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने केंद्रीय बजट के अगले दिन ही प्रेरणा ली और इससे एक कदम आगे जाने का फैसला लिया। दो फरवरी को यूपी के आला अफसरों ने मुख्यमंत्री व अन्य मंत्रियों के सामने जो प्रस्तुतीकरण किया, उससे न केवल इस बार उत्तर प्रदेश का बजट पेपरलेस होने की उम्मीद बढ़ी बल्कि ई-कैबिनेट की नवीन अवधारणा भी सामने आई।

अनुमान है कि बजट का प्रकाशन न कराने से सरकारी खजाने में चार से पांच लाख की बचत होगी। यदि प्रदेश की विधायिका के पिछले खर्चो के बिल खंगाले जाएं तो बही खाते में दर्ज आंकड़े इस बात की स्पष्ट गवाही देंगे कि चार-पांच लाख रुपये तो चंद दिनों की मेहमानवाजी और चाय-पकौड़ी में ही खर्च हो जाते रहे हैं। मौजूदा परिस्थितियां साफ करती हैं कि अब इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। सरकार की आर्थिक सेहत दुरुस्त रखने के लिए सरकारी खर्चो में कटौती करनी ही होगी।

बड़े भौगोलिक क्षेत्रफल और विशाल आबादी वाले प्रदेश के जनप्रतिनिधियों के सामने एक समस्या लखनऊ से संपर्क साधने और अपने निर्वाचन क्षेत्र से जुड़े रहने की भी रहती है। इसका बोझ भी सरकारी खजाने पर पड़ता है, फिर भी मतदाता की यह शिकायत बनी ही रहती है कि नेताजी सिर्फ पांच साल बाद ही दिखते हैं। जनप्रतिनिधियों को भी चुनाव भर मतदाताओं को यही बताने-समझाने में लग जाता है कि लखनऊ-दिल्ली में बैठकर वह उन्हीं की चिंता में घुलते रहते हैं। यदि ई-गवर्नेस कार्यपालिका से होकर विधायिका में भी प्रवेश करता है तो मंत्री और विधायक ज्यादा से ज्यादा समय अपने क्षेत्र में रहकर समस्याएं सुलझाने में लगा सकते हैं। कैबिनेट की बैठक में शामिल होने के लिए हर हफ्ते उन्हें लखनऊ जाने की जरूरत नहीं होगी। वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के ऑफिस में बैठकर टैबलेट या लैपटाप के जरिये भी कैबिनेट की बैठक में हिस्सा ले सकते हैं।

[वरिष्ठ समाचार संपादक, उत्तर प्रदेश]

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