Emergency: आज ही के दिन लगाई गई थी मीडिया पर सेंसरशिप, ठप कर दिया गया था अखबारों का प्रकाशन
Emergency 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी के सुझाव पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के आदेश पर देश में आपातकाल की घोषणा की गई। आपातकाल लागू होने के साथ ही विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया। दिल्ली स्थित तमाम बड़े अखबारों के दफ्तर की बिजली काट दी गई जनता तक जाने वाली सभी खबरों को सरकार की ओर से सेंसर किया जाने लगा।
जागरण ऑनलाइन डेस्क, नई दिल्ली: 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी के सुझाव पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के आदेश पर देश में आपातकाल की घोषणा की गई। आपातकाल लागू होने के साथ ही विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं को मीसा कानून के तहत जेल में डाल दिया गया।
आपातकाल के साक्षी रहे लोगों का कहना है कि उस समय जो भी सरकार के खिलाफ आवाज उठाता, उन्हें बिना किसी कारण जेल में डाल दिया जाता था। उस दौरान लोगों तक सूचना पहुंचाने का एकमात्र स्रोत अखबार और रेडियो हुआ करते थे। सरकार ने 28 जून को मीडिया पर भी सेंसरशिप लागू कर दिया।
मीडिया के लिए लागू की गई थी सेंसरशिप
दिल्ली स्थित तमाम बड़े अखबारों के दफ्तर की बिजली काट दी गई, जनता तक जाने वाली सभी खबरों को सरकार की ओर से सेंसर किया जाने लगा। सरकार की अनुमति के बाद ही अखबारों को छपने के लिए छोड़ा जाता था।
सरकार की ओर से प्रेस के लिए दिशानिर्देश जारी कर दिए गए थे। अफवाहों और आपत्तिजनक खबर को छापने की सख्त मनाही थी, जो सरकार के खिलाफ विपक्ष को भड़का सकता था। ऐसे सभी कार्टूनों, तस्वीरों और विज्ञापनों को पहले सेंसरशिप के लिए सौंपना पड़ता था, जो सेंसरशिप के दायरे में आते थे।
अधिकारियों को न्यूज एजेंसियों के दफ्तरों में तैनात कर दिया गया था, ताकि ये आपत्तिजनक खबरों को उनके स्रोत पर ही दबा दें। विदेशी न्यूज एजेंसियों की आनेवाली कापी को जांच की जाती थी।
कुलदीप नैयर लिखते हैं- "आपातकाल के दौरान दिल्ली के संपादकों की एक बैठक बुलाई और उन्हें कड़े शब्दों में कह दिया गया था कि सरकार कभी बकवास बर्दाश्त नहीं करेगी। यह सरकार रहेगी और राज करेगी।" किसी संपादकीय, लेख या कहीं और खाली जगह को भी विरोध माना जाएगा। बता दें यह तरीका अंग्रेजी राज में सेंसरशिप का विरोध करने के लिए भारतीय अखबार आमतौर पर अपनाते थे।
अखबारों का प्रकाशन कर दिया गया था बंद
इनसाइड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी में कुलदीप नैयर लिखते हैं- "आपातकाल के दौरान प्रेस को कुचल दिया गया था। बिना किसी सर्च वारंट के या किसी सक्षम अधिकारी के एक पुलिस पार्टी इन अखबारों के परिसर में दाखिल हुई, प्रेस के कर्मचारियों को धक्के मारकर बाहर निकाला और सारी पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद करने के लिए प्रेस पर ताला लगा दिया।"
पंजाब में अखबारों पर पुलिस का हमला जालंधर तक सीमित रहा, लेकिन वह बेहद कठोर था। ट्रेनों की सुविधाजनक टाइमिंग के कारण अधिकांश उर्दू और पंजाबी अखबार आधी रात तक छप जाते थे। पुलिस ने देर रात के संस्करण समेत सारे संस्करणों की प्रतियों को तबाह कर दिया।
बड़े पैमाने पर थी प्रेस को कुचलने की कोशिश
गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव एसएस सिद्धू के आदेश विदेशी पत्रकारों को मिले, जिसमें लिखा था- राष्ट्रपति का आदेश है कि वे भारत में नहीं रह सकते हैं। उन्हें 24 घंटे के अंदर भारत से निकाल दिया जाएगा, जिसके बाद वे भारत में दाखिल नहीं होंगे।
कुलदीप नैयर लिखते हैं- 'अदालत से इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला आने के बाद यह तख्तपलट रक्तहीन था। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों से लेकर प्रेस को कुचलने तक की जो भी योजना बनाई गई थी, उसे बड़ी ही कुशलता के साथ संजय गांधी और उनके करीबी अंजाम दे रहे थे।'