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स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के देशभक्ति के स्वर को दर्शाता आलेख..

प्रतिरोधी साहित्य रचकर आजादी की मुहिम छेडऩे वाले दर्जनों राष्ट्रवादी कवि और साहित्यकार हंसी खुशी जेल जाते रहे। गुलामी की जंजीरों में जकड़े देश की वेदना और ब्रिटिश साम्राज्य का मुखर विरोध करने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के देशभक्ति के स्वर को दर्शाता आलेख...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 25 Apr 2022 05:11 PM (IST)
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स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त। फाइल फोटो
रजनी गुप्त, लखनऊ। स्वतंत्रता आंदोलन के उस दौर के अधिकांश कवि आजादी के गीत गा रहे थे, 'मैं स्वतंत्र हूं, मेरे देशवासी स्वतंत्र हैं। मेरा स्वर उन्मुक्त है, मेरे देशवासियों का स्वर उन्मुक्त है और मेरे विश्व का स्वर उन्मुक्त है। मेरे देश और विश्व के बीच में न किसी समुद्र की सीमारेखा है और न किसी पर्वत की। आज मेरे कंठ में स्वतंत्रता का संगीत है।' मैथिलीशरण गुप्त भी ऐसी दर्जनों कविताओं के माध्यम से देशभक्ति को स्वर देते आ रहे थे। आजादी की अनुगूंजें उनके काव्य का प्रमुख स्वर बनती गयीं। उसी दौरान ब्रिटिश सत्ता ने उन्हें राजबंदी के रूप में गिरफ्तार कर लिया। 

कविता का मर्म रचने वाले कवि की कोमलता और शब्दों की मासूमियत से झरते सुकुमार भावों के भीतर बसी कल्पना से उन्हें जेल ले जाती पुलिस को क्या सरोकार? मैथिलीशरण और बड़े भैया पकड़ लिए गए हैं, सुनते ही झांसी में भीड़ उमड़ पड़ी। मैथिलीशरण जिंदाबाद, दद्दा नन्ना अमर रहें जैसे नारों से आकाश गूंज उठा। पूरी रात जनसमुदाय कोतवाली से नवाबाद थाने तक साथ-साथ चलता रहा। सुबह होते ही दद्दा नन्ना को सेंट्रल जेल जाना था। केंद्रीय कारागार जाने की तैयारी हो रही थी, परंतु जनरव था कि थम ही नही रहा था। सेंट्रल जेल के फाटक पर राजनीतिक बंदियों ने दद्दा-नन्ना का खुले मन से स्वागत किया। जेल के अंदर भी नारे लगने लगे।

मैथिलीशरण को जेल के स्पेशल वार्ड में रखा गया, पर उन्होंने साफ मना कर दिया, 'हम अपने लोगों के साथ ही रहेंगे। उन्हीं के साथ उन्हीं जैसा भोजन करेंगे।' जेलकर्मियों को उनकी बात माननी पड़ी। सेंट्रल जेल झांसी में रहने के कुछ दिनों बाद उनका तबादला आगरा जेल कर दिया गया। वे झांसी जेल में कुछ महीने रहे जहां उन्होंने 'कुणाल गीत' लिखना शुरू किया। एक ग्रंथ 'कारा' नाम से छपा। यहीं पर महाभारत को आधार बनाकर एक बड़े ग्रंथ की योजना 'जय भारत' के नाम से बनायी। झांसी से आगरा जेल जाते समय वे गांधी की सेना के सिपाही हो गए और भारी भरकम कोट की जगह कुर्ता व धोती का स्थान पाजामे ने ले लिया। वह असाधारण से सर्वसाधारण बन गए। अनुज सियारामशरण ने बाद में लिखा, 'सवेरे के सात बजे ही मैं जेल के इस फाटक पर पहुंच गया हूं। इसके अंदर मेरे तीन आत्मीय जन नजरबंद है। क्यों नजरबंद किया गया है उन्हें? इस तरह के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता। जिन्होंने ऐसा किया है, वे इस विषय में मौन हैं। अदालतों, हाईकोर्टों के दरवाजे भी इन प्रश्नों के लिए बंद किए जा चुके हैं और यह सब हुआ है भारत रक्षा के नाम पर।'

सचमुच ये कितनी बड़ी विडंबना थी कि 'भारत भारती' के रचनाकार से भारत की रक्षा को खतरा था, इससे बड़ा व्यंग्य और क्या हो सकता था। आगरा जेल में उनके साथ आचार्य नरेंद्रदेव, डा. बालकृष्ण, डा. विश्वनाथ केसकर जैसे साथी जुड़े रहे। जेल में दद्दा नियमित रूप से चरखा चलाते और समय मिलते ही कविताएं रचते गढ़ते। वह सूत कातते रहते और उनका सूत वस्त्र बनकर गांधी जी के पास पहुंचता था जिसे वह प्रेम से धारण करते थे। वह जेल में 7-8 घंटे एक आसन पर बैठकर सूत कातते थे। वह सारा सूत गांधी जयंती पर गांधी जी को भेंट किया गया। गांधी जी ने वर्धा से प्रकाशित खादी जगत के मासिक पत्र में अक्तूबर अंक में लिखा, 'सरकार भी कभी-कभी बड़ी उदार हो जाती है। मैथिलीशरण जी भी उन्हीं में हैं। वह भी बरबस पकड़ लिए गए हैं। वह सुप्रसिद्ध कवि तो हैं, लेकिन कविता आज उन्हीं की कलम से नहीं वरन उनके सूत के तागों से निकलती है।'

जेल में दद्दा की छप्पनवीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी। वहां नजरबंदों की ओर से उन्हें अभिनंदन पत्र दिया जा रहा था। उन्होंने 'द्वापर' के अंश पढ़े। मानपत्र आचार्य नरेंद्रदेव पढ़ रहे थे, 'आपने अपनी रचनाओं द्वारा हिंदी में हिंदुस्तान के गौरव का गान करके हिंदी को तथा अपने को भारत वंद्य बनाया है। हम बड़े भाग्यवान हैं कि हमें आप जैसा राष्ट्रकवि प्राप्त हुआ है।'

मैथिलीशरण सात महीने तक जेल में रहे। तब भी गवर्नर हैलट उनका कोई दोष या अपराध नहीं बता पाए। जेल में रहकर जो ग्रंथ शुरू हुए, उन्हें बाहर आकर पूरा किया गया। इसी समय 'विश्ववेदना' ग्रंथ प्रकाशित हुआ जो संसार व्यापी दो विश्वयुद्धों की विभीषिका पर गहन चिंतन का प्रतिफल था। जेल में कांग्रेसी, कांग्रेस समाजवादी, कम्युनिस्ट और तमाम क्रांतिकारी नजरबंद थे। मैथिलीशरण सभी की श्रद्धा के पात्र थे। वह अपनी सरलता और सादगी से सभी को प्रभावित करते। आगरा सेंट्रल जेल में राजबंदियों को कवि सम्मेलन की उमंग-तरंग भा गयी। मैथिलीशरण के अलावा रघुनाथ विनायक धुलेकर ने भी कविता पढ़ी। शील जी उस समय गांधीवादी थे और उन्होंने चर्खाशाला के कुछ अंश सुनाए। मैथिलीशरण अंत तक अपनी कविताओं में राष्ट्रीयता के नए-नए रंग भरते रहे और नव रस घोलते प्रसारित करते रहे। जेल में एक-बार जब उनसे पूछा गया था, 'आप कुछ कहना चाहेंगे?'

कर्णकटु शब्द सुनकर वह तीखी आवाज में उबल पड़े थे, 'आपका दिमाग खराब हो गया है? आपसे क्या बात करें? आप तो निर्दोषों को पकड़ते घूमते हैं। हमारा क्या, हम तो लेखक ठहरे। यहां यह सब जो भी गलत बात देखेंगे और इसके खिलाफ लिखेंगे भी।' लताड़ सुनकर सहम गया था कलेक्टर। राजबंदी के रूप में गिरफ्तार मैथिलीशरण गुप्त से मिलने अनुज सियाराम शरण गुप्त जेल जा पहुंचे। जेल के फाटक से तेजी से आते-जाते बंदियों को देखते रहते सियाराम और वेदना व्यथित मन में बेचैनी बढ़ती जाती। दोपहर का सूरज तेजी से तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता जाता। चलती हवाएं ऐसी लगतीं जैसे सूरज के गर्म थपेड़े एक साथ कोड़े फटकार रहे हों पीठ पर। अनुज सियाराम शरण के पूछने पर एक ही बात सुनने को मिलती, 'कागज भीतर भेजे गए हैं।' सोचते सुनते हुए उनका गला सूखने लगा। उन्हें लेाहे की छड़ों से बुना वह फाटक किसी दैत्य जैसा भयावह लगने लगा था जिसके भीतर जेल अधिकारियेां के दफ्तर थे। हमारे देश के रहने वाले सैकड़ों नेताओं के अलावा ऐसे लाखों करोड़ों महान आमजन हैं जो देश की आजादी के लिए महीनों सालों से दिन-रात आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे राजबंदी अन्याय और अपमान के खिलाफ विद्रोह करने में सबसे आगे हैं।

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