Jagran Samvadi 2024: तीन धाराओं की कहानी सुना रही सिनेमा की नई पीढ़ी
हिंदी सिनेमा के बदलते दौर पर चर्चा करते हुए जागरण संवादी के सत्र सिनेमा की नई पीढ़ी में तीन निर्देशकों- मृगदीप सिंह लाम्बा अभिषेक शर्मा और अमित राय ने अपने विचार साझा किए। उन्होंने बताया कि वे अपनी कहानियों को कैसे बनाते हैं और किन स्रोतों से प्रेरणा लेते हैं। तीनों निर्देशकों ने अपनी रचनात्मक प्रक्रिया और प्रेरणा के स्रोतों के बारे में विस्तार से चर्चा की।
अजय शुक्ला, लखनऊ। समानांतर सिनेमा को अलग कर दें तो एक दौर था जब हिंदी सिनेमा फार्मूलों पर आश्रित था। वह दौर भी आया जब अप्रवासी भारतीय दर्शकों के लिए सिनेमा बनता और घर में भी खप जाता था, और एक दौर आज का है जहां समानांतर सिनेमा और कमर्शियल सिनेमा आपस में गुंथ चुके हैं।
कहानियों के स्तर पर फलक का विस्तार वहां तक हो चुका है, जहां तक दृष्टि जाती है या अनुभूति पहुंचती है। ऐसा सिनेमा जब आता है तो दर्शक अपने आप जुट जाते हैं और समीक्षकों की नजर बरबस खींच लेता है। कहां से आ रहा है यह सिनेमा और कौन ला रहा है इसे?
जागरण संवादी के सत्र 'सिनेमा की नई पीढ़ी' में संचालन कर रहे प्रशांत कश्यप ने बीच बहस जब यह सवाल खड़ा किया तो जवाब के रूप में मंच पर सामने थी-सिनेमा की नई पीढ़ी।
फुकरे से युवा दर्शकों के बीच प्रसिद्धि पाए निर्देशक मृगदीप सिंह लाम्बा, तेरे बिन लादेन और रामसेतु जैसी फिल्में निर्देशित करने वाले अभिषेक शर्मा और रोड टू संगम फिल्म से समीक्षकों का ध्यान खींचने वाले अमित राय इस सवाल पर कि स्क्रीन पर वह जो कहानी कहते हैं, कहां से आती है? नई पीढ़ी के यह तीन निर्देशक तीन धाराओं की तरह बहते दिखे।
अभिषेक शर्मा अपनी धारा स्पष्ट करते हैं, ' जितना पढ़ोगे, जितना अध्ययन करोगे, दूसरे फिल्मकारों को जानोगे, वही सिनेमा बाहर आएगा।' अभिषेक की फिल्में रामसेतु और पोखरण में उनकी यह धारा दिखती भी है।
हास्य के पुट वाली 'तेरे बिन लादेन' भी इसी धारा को आगे बढ़ाती है। दरअसल, अभिषेक राष्ट्रीय नाट्य अकादमी की जिस पृष्ठभूमि से आते हैं वह भी इस धारा के निर्माण में कई बार सहायक होती है।
मृगदीप का जवाब अलग है। कहते हैं, 'मैं पढ़ता नहीं देखता हूं। मेरी किताबें सड़क हैं। सफर में भी जागता रहता हूं, देखता रहता हूं। ढाबे, होटल, बस्तियां...जीवन। जो आब्जर्वेशन है, उसे ही कहानी में पिरो देता हूं।' मृगदीप की फुकरे देखें, उसके चरित्र संवाद इसकी पुष्टि भी करते हैं। फुकरे की कहानी मृगदीप ने ही लिखी और निर्देशित की है। चूचा जैसे शब्द (जो फुकरे के दर्शकों की जबान पर खूब चढ़ा) जिनका कुछ अर्थ नहीं, लेकिन एक बड़ा वर्ग स्वयं को उससे जोड़ लेता है। कहीं न कहीं असल में भी उसे बोलने और समझने वाले होते हैं।
अमित राय जैसे निर्देशक जो जीते और अनुभूत करते हैं, उसे कैमरे के जरिए कह देते हैं। बताते हैं, 'मैं पढ़ा और देखा दोनों कहता हूं।' रोड टू संगम इसकी गवाही भी देती है। यह तीसरी धारा है।
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