Jagran Samvadi 2024: 'वर्गों का विभाजन नहीं, विचारों का बंटवारा चाहिए', जागरण संवादी में रखे गए विचार
सत्र साहित्य में बंटवारा क्यों में विमर्श के लिए उपन्यासकार प्रो. गरिमा श्रीवास्तव कवि तजेंद्र सिंह लूथरा कहानीकार सबाहत आफरीन और उपन्यासकार रत्नेश्वर सिंह मंचासीन हुए। संचालक डा. विपुल सुनील का सवाल पूरे पैनल से हुआ कि साहित्य में बंटवारे को आप किस नजर से देखते हैं। कहा साहित्य में बंटवारा कई स्तर पर दिखता है। स्त्री विमर्श दलित विमर्श जैसे कई वर्गीकरण दिखते हैं। बंटवारा हमेशा खराब नहीं होता।
दीप चक्रवर्ती, लखनऊ। संवेदनाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति है साहित्य। परिस्थितियां और परिवेश, कारण और उत्प्रेरण कोई भी हो, संवेदनाओं के स्पर्श की अनुभूति सार्वभौमिक है। वह हर किसी को छूती है। इस संवेदी सार्वभौमिकता के बावजूद कुछ वैभिन्य भी हमें दिखता है। साहित्य के लिए कितना शुभाशुभ है यह वैभिन्य, इस पर मंथन के लिए मंच सजा। मंथन हुआ और जोरदार हुआ। निष्कर्ष यह मिला कि साहित्य में वर्गों का विभाजन तो उचित नहीं, किंतु वैचारिक बंटवारा अपरिहार्य है। इसके प्रवाह के लिए यह अनिवार्य शर्त है।
सत्र 'साहित्य में बंटवारा क्यों' में विमर्श के लिए उपन्यासकार प्रो. गरिमा श्रीवास्तव, कवि तजेंद्र सिंह लूथरा, कहानीकार सबाहत आफरीन और उपन्यासकार रत्नेश्वर सिंह मंचासीन हुए। संचालक डा. विपुल सुनील का सवाल पूरे पैनल से हुआ कि साहित्य में बंटवारे को आप किस नजर से देखते हैं। सबाहत ने कहा, साहित्य में बंटवारा कई स्तर पर दिखता है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श जैसे कई वर्गीकरण दिखते हैं। बंटवारा हमेशा खराब नहीं होता। इससे अंदरूनी तहों पर हमारी निगाह जाती है। हां, अतिवाद से गड़बड़ होती है। हमें खेमों में बंटना नहीं है। रत्नेश्वर सिंह ने कहा, बंटकर भी एक हूं और एक होकर भी बंटा हुआ हूं।
कहा, जहां इतना विपुल साहित्य लिखा जा चुका है, उसमें हम अपने आपको कैसे चिह्नित करा पाएं, इस कोशिश में भी कई खांचे बनाकर देखने की प्रवृत्ति जन्म लेती है। हर खांचे में लोग अपने-अपने स्तर पर पहले भी काम करते रहे हैं, आज भी कर रहे हैं। प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने कहा, कट्टरता कहीं भी हो चाहे वह साहित्य ही क्यों न हो, रचना को शाश्वत बनने में बाधा खड़ी करता है। विधागत चुनाव और वैचारिक मतभेद होना अलग बात है, लेकिन साहित्य में बंटवारे का कोई स्थान नहीं। साहित्य को खांचों में बांटकर देखने से न सिर्फ हम साहित्य का नुकसान करेंगे, बल्कि पाठकीय रुचि का निर्माण करने से भी रह जाएंगे। तजेंद्र सिंह ने कहा, सहज वृत्ति की यात्रा में हमारे भीतर असुरक्षा की भावना ने भी स्थान बनाया है। इसी कारण हम कई वर्गों में बंट जाते हैं। जाति, क्षेत्रीयता, वर्चस्व आदि कारकों के आधार पर बंटना हितकर नहीं, लेकिन विचारों का संघर्ष आवश्यक है। इसी संघर्ष से नए अंतर्विरोध सामने आते हैं और रचनाकर्म समृद्ध होता है। इसलिए वर्गों का विभाजन नहीं हमें विचारों का बंटवारा चाहिए।
बात लोकप्रियता बनाम शास्त्रीयता पर आई। इस पर सबाहत ने कहा, लोकप्रिय लेखन फार्मूला आधारित होता है। मैंने लिखते वक्त कभी यह नहीं सोचा कि ऐसा लिखूंगी तो लोगों को बहुत पसंद आएगा। मौलिक रचना में नफा-नुकसान का नापतोल नहीं होता। आपको सर्जना की ईमानदारी तो रखनी ही होगी। यही दोनों विधाओं में अंतर है। इस पर एक सहायक प्रश्न हुआ कि आज का अधिकांश साहित्य पुराने साहित्यकारों की दृष्टि में भाषा की सड़ांध है। इस पर सबाहत ने कहा कि भाषा सदैव सरलता की राह चुनती है।
ध्यान यह रखना है कि इससे उसकी आत्मा न बदले। दीर्घा से एक गंभीर प्रश्न हुआ कि हिंदी साहित्य में समीक्षकों ने यह स्थिति बना दी कि लाखों-करोड़ों लोगों तक जिन गुलशन नंदा और सुरेंद्र मोहन पाठक की पहुंच थी, उनके लेखन को लुग्दी साहित्य कह दिया और आर्थर कानन डायल जैसे लेखकों के पात्रों को हम क्लासिक कहते हैं। साहित्य के इस बंटवारे पर क्या कहेंगे। इस पर मंच से जवाब आया कि दूसरी भाषाओं के साहित्य का हिंदी में भरपूर अनुवाद हो रहा है और लोग उसे पसंद कर रहे हैं। यह हिंदी की बढ़ती व्यापकता का प्रमाण है।
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