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गुरुजी सिर्फ गुरु जी नहीं, घंटाल हैं...पढ़ाने में कम-छौंकने में ज्यादा

दैनिक जागरण के संवाददाता पुलक त्रिपाठी ने विशेष कॉलम कैंपस में कानाफूसी के जरिए गुरु घंटाल के छिपे मिजाज पर तंज कसा।

By Divyansh RastogiEdited By: Updated: Tue, 21 Jan 2020 08:21 AM (IST)
गुरुजी सिर्फ गुरु जी नहीं, घंटाल हैं...पढ़ाने में कम-छौंकने में ज्यादा
पुलक त्रिपाठी। लखनऊ विश्वविद्यालय के एक गुरुजी सिर्फ गुरु जी नहीं हैं। इनकी महत्ता शिक्षण कार्य से ज्यादा इतर गतिविधियों से है। भोकाल ऐसा कि जब इनका दरबार लगता है तो खुद को किसी दरवेश से कम नहीं समझते। हाथ उठाकर काम करा देने का ऐसा आश्वासन देते हैं, मानो मोक्ष का वादा दे रहे हों। इनके रुआब के आगे अच्छे अच्छे पानी भरते हैं। मिजाज की तल्खी इनकी भाषा की उष्मा से समझी जा सकती है। रौ में आते हैं तो विरोधियों की ही नहीं, करीबियों को भी उम्दा अलंकरणों से नवाज देते हैं। आम बोलचाल में आप इन अलंकरणों को गालियों की संज्ञा भी दे सकते हैं। हां, गुरुजी को खाने-खिलाने का बड़ा शौक है। उनकी मेहमाननवाजी दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। जो भी एक बार इनके दरबार में हाजिरी लगा आता है, उसके मुंह से दो बातें निकलती हैं। जितना बढिय़ा खाना खिलाया, उतनी उम्दा गालियां भी।

कोट वाले फर्जी प्रोफेसर

निजाम में बदलाव के साथ ही कुछ लोगों की बल्ले-बल्ले हो गई। कैंपस में इस बात को लेकर चर्चा जोरों पर है कि अभी तक जो डॉक्टर भी न थे, रातों-रात प्रोफेसर भी हो गए। इन फर्जी प्रोफेसर की इस वक्त पांचों अंगुलियां घी में हैं। लग्जरी कार से घूमते प्रोफेसर साहब के कुछ दिन मौज में बीते, क्योंकि बड़े साहब के साथ-साथ चलने को जो मिला। कल तक जो गुमनामी के अंधेरे में गुम रहते थे, आज वे ही कैंपस के अर्श पर चमक रहे हैं। इस नई ताकत ने प्रोफेसर साहब के व्यवहार में भी तब्दीली ला दी है। सीधे मुंह बात तक नहीं करते। लफ्जों की तल्खी से आहत इनके परिचित तो यह भी कहने लगे हैं कि यह चांदी ज्यादा दिन तक नहीं कटने वाली। दिन सबके बहुरते हैं। अब इनसे पीडि़त वर्ग चार दिन की इस चांदनी के ढलने की दुआ मांग रहा है।

पढ़ाने में कम, छौंकने में ज्यादा

लखनऊ विश्वविद्यालय के मास्टर एक से बढ़कर एक हैं। पढ़ाना न पड़े, इसके लिए सब जतन कर जाते हैं और बातें ऐसी छौंकते हैं, जैसे मानो इनसे बड़ा फिलॉस्पर कोई नहीं। जिसे देखो एक से बढ़कर एक। अब सब यही कह रहे है कि यहां सब मुंहके मुख्तार। कद्दू में तीर मारने में सब एक से बढ़कर एक। ऐसे ही एक जनाब का कुलपति साहब से पाला पड़ गया। कुलपति के सामने बड़ी-बड़ी छौंक रहे मास्टर साहब से वीसी साहब सीबीसीएस के बारे में पूछ बैठे। वीसी साहब का बस इतना पूछता था कि सीबीसीएस लागू किया जाना कैसा रहेगा, जवाब ऐसा मिला जिसे सुनकर खुद वीसी साहब के पैरों तले जमीन खिसक गई। जवाब था, हां बहुत बढिय़ां रहेगा सीबीएसई तो सबसे अच्छा है। इसे तो हर जगह लागू किया जाना चाहिए। वीसी साहब बोले, आप जा सकते हैं।

कैंपस के जय-वीरू

जय-वीरू को तो जानते ही होंगे। अरे वही शोले फिल्म वाले। अपने कैंपस में भी एक शिक्षकों की एक जोड़ी ऐसी है जो जय-वीरू के नाम से जानी जाती है। क्या टीचर क्या छात्र, हर कोई इस जोड़ी से वाकिफ है। दोनों की जिम्मेदारियां अलग-अलग, पर साथ बराबर। यह साथ आज का नहीं। एक समय में दोनों ने साथ चुनाव लड़ा था। वर्षों का साथ अब घनिष्ठ मित्रता में बदल चुका है। वीरू के खिलाफ उठी आवाज जय को अखरती है तो जय भी वीरू के लिए हर जगह मोर्चा संभालने के लिए तैयार रहते हैं। कैंपस में जय और वीरू को लेकर भी चर्चाएं तमाम हैं। वीरू से काम निकालना है तो जय को मैनेज करो। छात्र-छात्राएं भी दोनों को इसी नाम से जानते हैं। दोनों को एक साथ कहीं निकलते देखते ही ठहाकों संग शोले फिल्म का गीत 'ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे...' के बोल गुनगुनाने लगते हैं।

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