रायबरेली की राजनीति के तिलिस्म में छला गया विकास, लुढ़कती गईं योजनाएं
रायबरेली में पर्यटन के लिहाज से बहुत कुछ है। बस महत्व नहीं मिला। सलोन का समसपुर पक्षी बिहार की झीलें जलकुंभी से पटी हैं।
By Anurag GuptaEdited By: Updated: Mon, 02 Mar 2020 06:25 PM (IST)
रायबरेली [रसिक द्विवेदी]। यह रायबरेली है। लोकशाही के एक दौर का सबसे मजबूत किला। जहां से राजनीति शिखर तक पहुंच अट्टहास करती थी। यहां के कुछ लोगों की सिफारिशें मंत्रियों-विधायकों से ज्यादा ताकतवर थीं। लेकिन, यह तिलिस्मी मायाजाल से ज्यादा कुछ नहीं ठहरा। विकास यहां छला गया। योजनाएं लुढ़कती गईं। रोजगार के सपने टूटते रहे। आज यह जिला किसी बड़े महानगर के संपन्न तहसीलों की श्रेणी से भी बदतर दशा में है। यहां बचे हैं धूल के गुबारों के बीच सिसककर ठप होते कल-कारखाने। आकर्षण विहीन पर्यटन के तथाकथित ठौर-ठिकाने। पलायन करते शिक्षा-संवाद और रोजगार के संस्थान।
उम्मीदें जब टूटती हैं तो कितना दर्द होता है। रायबरेली की सिसकियां उसका प्रमाणभर हैं। दरअसल यहां लोग खुद को आम श्रेणी में मानते रहे, जैसे देश-प्रदेश के अन्य जिलों के निवासी। लेकिन, 1952 में कांग्रेस ने यहां से फीरोज गांधी को चुनाव लड़ाया। वह भारी मतों से जीते भी। तभी से रायबरेली के लोगों की निगाहों में चमक आ गई। उन्हें लगा कि केंद्रीय सत्ता वाले दल का नुमाइंदा जिताते रहने से विकास की गाड़ी दौड़ती रहेगी। ऐसा हुआ भी, 15 वर्षों बाद 1967 में उस दौर की सबसे ताकतवर नेता इंदिरा गांधी यहां चुनाव लडऩे आईं। उनके जीतने के बाद यहां विकास तेजी से दौड़ा भी। लेकिन, सेङ्क्षटग-गेङ्क्षटग वालों ने इन मौकों को भुनाना शुरू कर दिया। इधर कारखाने लगते, उधर बंद हो जाते। 1975 में स्पिङ्क्षनग मिल बनीं और करीब पांच हजार कर्मचारी-अधिकारी, तीन हजार से ज्यादा दैनिक श्रमिकों को काम मिल गया।
उसी साल नंदगंज सिरोही शुगर मिल भी तैयार हो गई। सैकड़ों हाथों को वहां भी रोजगार मिला। यह बड़ी फैक्ट्रियां 2009 से डूबने लगीं। अब शुगरमिल का तो नामोनिशां खत्म हो गया। जबकि 2012 में पूर्ण बंदी की शिकार हुई स्पिङ्क्षनग मिल इतिहास बन गई। वर्ष 2005 से यहां कल-कारखानों में ताले लटकने शुरू हो गए। देखते ही देखते बड़े बड़े संस्थान दम तोड़ते गए। उनके पुनरोद्धार की जहमत नहीं उठाई गई।
बंद पड़ी बड़ी फैक्ट्रियां
फैक्ट्री नाम शुरू बंदशीना होमटेक्स 2005 2009मोदी कारपेट 1975 1995रायबरेली टेक्सटाइल 1970 2010लघु उद्योग भी हुए बंदबड़ी फैक्ट्रियों के साथ ही जिले में लघु उद्योग भी लगे। उपायुक्त उद्योग नेहा ङ्क्षसह ने बताया कि जिले में मित्तल फर्टिलाइजर, अपकाम केबल, कंसेप्टा केबल समेत करीब 10 लघु उद्योग किन्हीं न किन्हीं कारणों से बंद हो गए।
महिला विश्वविद्यालय खोलने का सपना टूटामहिला विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा यूपीए सरकार में की गई थी। सपना अधूरा रहा। यहां 80 महाविद्यालय हैं। कुछ को छोड़ दिया जाए तो कहीं पर पर्याप्त संसाधन नहीं है। तकनीकी शिक्षा में यहां उच्चस्तर की निफ्ट, नाइपर, एफजीआइइटी और फिरोज गांधी पॉलीटेक्निक है। जहां स्थानीय छात्रों का आसानी से प्रवेश तक नहीं हो पाता।
आकर्षण विहीन पर्यटन स्थल यहां पर्यटन के लिहाज से बहुत कुछ है। बस, महत्व नहीं मिला। सलोन का समसपुर पक्षी बिहार की झीलें जलकुंभी से पटी हैं। आवागमन को सपाट सड़क तक नहीं। ऐतिहासिक कहानियां समेटे शहर का बड़ा कुआं उपेक्षित है। शहर में रेवती राम तालाब को निखारने की जरूरत नहीं समझी गई। सूबे में कुछ ही नहरें ऐसी होंगी, जो नदी के ऊपर से गुजरती हों। इसे पाने का सौभाग्य मिला। अफसोस यह भी संवारा न गया। शहीद स्मारक की याद सिर्फ शहीद, गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस पर आती है।
देश के अन्य सांसदों ने भी दी अपनी विकास निधि गांधी परिवार के नाते ही यहां देश के अन्य सांसद भी मेहरबान हुए। कैप्टन सतीश शर्मा, अदाकारा रेखा, कपिल सिब्बल जैसे दिग्गज नेताओं ने निधि खर्च की। सांसद सोनिया गांधी ने अबतक 25 करोड़ दिए हैं। वहीं कला क्षेत्र (मुंबई) से संसद सदस्य रेखा गणेशन ने 5.26 करोड़ रुपये, सतीश शर्मा ने 12.50 करोड़ वर्ष 20014-17 जबकि कपिल सिब्बल ने 12.50 करोड़ वर्ष 2017-19 में दिए।
बड़े नामों का सांसदी कार्यकालफीरोज गांधी 1952-57इंदिरा गांधी 1967,1971,1980शीला कौल 1989,1991कै.सतीश शर्मा 1999सोनिया गांधी 2004, 2006, 2009, 2014, 2019
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