विशेष बातचीत: किसान आंदोलन की धुरी रहे राकेश टिकैत ने आंदोलन को बताया राजनीति से अलग, सामाजिक मुद्दों पर खुलकर बोले
भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत किसान आंदोलन की सबसे बड़ी धुरी रहे हैं। केंद्र सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ लंबा धरना दिया तो मुजफ्फरनगर में किसानों की बड़ी पंचायत की। बिहार समेत देश के राज्यों के किसानों के बीच पहुंचे। कुश्ती संघ के अध्यक्ष व भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह पर गंभीर आरोप लगाने वाली महिला पहलवानों के पक्ष में खुलकर उतरे।
जागरण संवाददाता, लखनऊ। भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत किसान आंदोलन की सबसे बड़ी धुरी रहे हैं। केंद्र सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ लंबा धरना दिया तो मुजफ्फरनगर में किसानों की बड़ी पंचायत की। बिहार समेत देश के राज्यों के किसानों के बीच पहुंचे।
कुश्ती संघ के अध्यक्ष व भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह पर गंभीर आरोप लगाने वाली महिला पहलवानों के पक्ष में खुलकर उतरे। वो कभी ट्रैक्टर रैली निकालते हैं तो कहीं टोल प्लाजा फ्री कराते हैं।
सरकार की आलोचना करते हैं तो विपक्षी दलों के नेताओं के साथ मंच साझा कर स्वयं भी निशाने पर आ जाते हैं। उन्हें भाकियू में बड़ी टूट की वजह भी बताया गया, लेकिन इन सबके बावजूद टिकैत अपने तेवर, व्यंग्य, हाजिर जवाबी और बयानों से चर्चा के केंद्र में रहते हैं।
टिकैत कहते हैं कि आंदोलन करना कोई राजनीति नहीं है, लेकिन किसान संगठनों को राजनीति से दूर रहने की हिदायत देते हैं। दिल्ली में आसपास औद्योगिक गतिविधियों को प्रदूषण की वजह मानते हैं। हैरानी जताते हैं कि पंजाब की पराली का धुआं दिल्ली ही क्यों पहुंचता है, पाकिस्तान कैसे नहीं जाता? राजनीतिक एवं सामाजिक मुद्दों पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत से जागरण संवाददाता आनंद प्रकाश ने विशेष बातचीत की। पेश से उनसे वार्ता के अंश।
आपने हाल ही में कहा है कि किसानों को राजनीति नहीं करनी चाहिए, यानी चुनाव में भाग नहीं लेना चाहिए, लेकिन लोकतंत्र में चुनावी जीत प्राप्त किए बिना किसी वर्ग का सशक्तिकरण कैसे हो सकता है?
हमने ये कहा है कि किसान संगठनों को चुनाव में नहीं उतरना चाहिए क्योंकि संगठन का दायरा बड़ा है। चुनाव एक सीमित क्षेत्र में होता है। अकेले किसान के नाम पर चुनाव नहीं लड़ा जा सकता है। हमारे आंदोलन किसान और मजदूरों के हैं। उनकी ढेरों समस्याएं अब तक अनसुलझी हैं। इसे सरकारों को सुलझाना होगा। किसान संगठनों को राजनीति में कामयाबी नहीं मिली, किसी व्यक्ति विशेष को मिल सकती है। इसलिए कहा है, हमको पार्टी बनकर काम नहीं करना चाहिए। मुद्दों के आधार पर समर्थन व विरोध की परंपरा बेहतर है। किसान की आवाज जितनी बुलंद रहेगी उतना भारत संपन्न और खुशहाल बनेगा।
आखिर किसान भी तो किसी न किसी जाति के होते हैं फिर वे अपनी जाति या समुदाय के किसान नेता को वोट क्यों नहीं देते हैं?
वोट देना लोकतांत्रिक अधिकार है। जिसे जो प्रत्याशी अच्छा लगे, वह उसे वोट दे सकता है। हमने किसी को मना नहीं किया है, जिसे जहां वोट देनी है दे सकता है। हां, हम जातिगत आधार पर वोट देने के बारे में कुछ नहीं कहते हैं।
किसान संगठनों ने फिर 26 जनवरी, 2024 को देश भर में ट्रैक्टर परेड निकालने की घोषणा की है। 20 मार्च को संसद के घेराव का भी एलान किया गया है। क्या ऐसे कार्यक्रमों को राजनीति नहीं कहा जाएगा?
किसान आंदोलन करता है। आंदोलन करने को राजनीति नहीं कहा जा सकता है। चुनाव लड़ना राजनीति है, वोट देना भी राजनीति नहीं है। वोट देने और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने का अधिकार संविधान ने दिया है।
आंदोलन के समय जो किसान आपके साथ होते हैं, वही चुनाव के समय अपनी-अपनी पार्टियों के पीछे क्यों गोलबंद हो जाते हैं?
हमें आंदोलन के लिए लोग चाहिए, चुनाव के लिए नहीं। चुनाव में जिसे जहां जुड़ना है जुड़ा रहे, आंदोलन में हमारे साथ रहे। हमारा चुनावी एजेंडा नहीं है, हम आंदोलन करते रहेंगे। ध्यान रखें कि आंदोलन और चुनाव यानी राजनीति दोनों अलग अलग हैं। हम किसान और मतदाता दोनों हैं। इसके अपने-अपने धर्म एवं दायित्व हैं जिसे ईमानदारी से निभाना चाहिए। हम आंदोलन को मुद्दों की धार पर आगे रखेंगे।
ठीक है, आप किसान संगठनों के चुनाव में उतरने के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन पिछले साल चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की जयंती के अवसर पर भाकियू के जो नेता आपसे अलग हुए उनका भी यही मानना है कि उन्हें राजनीति नहीं करनी चाहिए, फिर आप उनसे अलग क्यों हुए ?
एक परिवार में कई भाई होते हैं, लेकिन सब एक साथ नहीं रहते हैं। ये वैचारिक व्यवस्था है, जिसका विचार नहीं मिलता, वह अलग हो जाता है, रजिस्ट्रेशन कराकर संगठन चलाता है। कोई कहीं भी रहे, वो मुद्दों की लड़ाई निष्ठा के साथ लड़ सकता है। इसमें किसी को कोई दिक्कत नहीं है। वैचारिक विरोध के बावजूद हम सब समाज में एक समान और बेहतर योगदान दे सकते हैं। हम किसी से अलग हों या कोई हमसे अलग हो, इससे कोई अदावत नहीं पैदा हो जाती।
आपसे अलग होकर बने भाकियू (अराजनीतिक) के अध्यक्ष राजेश सिंह चौहान ने कहा है कि इस संगठन को बनाने में काफी मेहनत की गई है लेकिन राकेश टिकैत की वजह से ये संगठन एक राजनीतिक संगठन में बदल रहा था, इस पर आप का क्या कहना है?
जब आदमी अलग जाएगा, तो कुछ न कुछ तो कहेगा। कोई कुछ कहे, हमें बुरा नहीं लगता। जो गया है, वह बुरा नहीं है, उसकी व्यक्तिगत राय है। उसके मन हमसे नहीं मिले होंगे। उसकी राय पर हमारी कोई प्रतिक्रिया नहीं है।
8.6 प्रतिशत जनसंख्या वाली अनुसूचित जातियों के सशक्तिकरण के लिए कितना काम हुआ है लेकिन 10-15 प्रतिशत आबादी वाले किसान अपनी बात क्यों नहीं मनवा पाते हैं?
किसान 10 से 15 प्रतिशत नहीं, बल्कि 70 प्रतिशत हैं। गांव में रहने वाले भूमिहीन भी किसान हैं, जो या अप्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़े हैं। चाहें वह पशुपालक ही क्यों न हों। खेतीबाड़ी यानी खेती और बाड़ी दो शब्दों से मिलकर बना है, इसी से ही किसान जुड़ा हुआ है। किसान सरकार की नीतियों से पीड़ित हैं।
पिछले 35 साल में भाकियू में एक दर्जन से अधिक बार टूट हो चुकी है। क्या यह किसान आंदोलन की दिशाहीनता को नहीं दर्शाता है?
ऐसा नहीं है, आंदोलन या पेड़ बढ़ता रहेगा। अगर पेड़ विकसित नहीं होंगे तो जंगल कैसे बनेगा। ऐसे ही संगठन कमजोर नहीं होता है। संगठन और भी बन सकते हैं, मगर उससे भाकियू पर प्रभाव नहीं पड़ेगा। हमारे केंद्र में कल भी किसान और उसका हित था, आज भी है और आगे भी रहेगा।
आपके बार-बार के स्पष्टीकरण के बावजूद यह माना जाता है कि आप प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा विरोधी पार्टियों के समर्थन में हैं?
बिहार में तो भाजपा की सरकार नहीं है, फिर भी हमने बिहार में आंदोलन किया। वहां आंदोलन बाजार समिति के विरुद्ध चल रहा है। सुधाकर सिंह मंत्री रहे, जो इस्तीफा देकर आंदोलन में शामिल हुए। जिस राज्य में आंदोलन होता है, वहां हम सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं।
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी साथ मिलकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं। दोनों नेता स्वयं को किसान हितैषी बताते हैं। क्या उनसे कोई बात हुई है ?
हमारी उनसे किसी तरह की कोई बातचीत नहीं हुई।
क्या अगले लोकसभा चुनाव में आप किसी पार्टी या गठबंधन का समर्थन करेंगे?
ये संयुक्त मोर्चा निर्णय करेगा, जब चुनाव आएगा तब बताएंगे। अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है। हमारा किसी पार्टी के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं, सिर्फ सरकार की नीतियों का विरोध है। हमारी लड़ाई सरकारी की उदासीनता, अनदेखी के खिलाफ है।
आपने हाल ही में कहा है कि राजनीति में आने के किसान संगठनों के दो ट्रायल फेल हो चुके हैं। अतः हमें राजनीति नहीं करनी चाहिए। यदि ट्रायल सफल हो गए होते तो आपका स्टैंड क्या होता?
1980 से ऐसा होता आया है। कर्नाटक और तमिलनाडु में भी किसान संगठन राजनीति में फेल हुए। इसलिए हमने कहा है कि किसान संगठनों को राजनीति से दूर रहना चाहिए।
यदि किसानों को राजनीति नहीं करनी चाहिए तो किसान संगठनों के विभिन्न विरोध प्रदर्शनों में राजनीतिक दलों को सहभागिता की स्वीकृति ही आप लोग क्यों देते हैं?
जो राजनीतिक दल विपक्ष में होता है, वह किसान संगठनों के मंच पर आ जाता है। पहले वो आते थे, अब ये आ जाते हैं। वैसे भी हर पार्टी ने अपना किसान सेल बना लिया है, जो किसानों के मुद्दे पर बात करते हैं। कोई मना नहीं करता, वह भी अपनी बात सरकार के बारे में कह जाते हैं।
चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने जब भाकियू बनाई तो इसे स्पष्ट रूप से अराजनीतिक कहा और दर्शाया भी। फिर यह कालांतर में कैसे राजनीति के ट्रायल करने लगी और नेतृत्वकर्ताओं ने करने दिया ?
चौधरी साहब पूरी तरह अराजनीतिक रहे। जिनको चुनाव लड़ना था, वह राजनीतिक प्लेटफार्म पर चले गए। आज भी कुछ संगठन हैं, जो राजनीति में जाने की बात कहते हैं। बाबा टिकैत कहते थे, जिसे राजनीतिक विंग बनानी थी, वह अलग हो जाएं।
पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों में चुनावी राजनीति के प्रति विशेष आतुरता दिखती है। पंजाब विधानसभा चुनाव में किसान संगठनों ने अपने प्रत्याशी भी उतारे थे। बीते दिनों भाकियू (चढ़ूनी) के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कुरुक्षेत्र के पिपली में रैली कर चुनाव में उतरने को लेकर लोगों से राय मांगी थी। रैली में रालोद अध्यक्ष जयन्त चौधरी और सपा नेता धर्मेंद्र यादव शामिल हुए थे। जयन्त ने किसान संगठनों के चुनाव में उतरने की पुरजोर वकालत की थी। आपके वक्तव्य को किसान संगठनों में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति से जोड़कर भी देखा जा रहा है। इस पर क्या कहना है?
जो राजनीतिक लोग हैं, वह चुनाव की ही बात करेंगे। वो तो अपने साथ आने के लिए कहेंगे ही। जितने भी किसान हैं, वो किसी न किसी को वोट देते ही हैं। इसमें क्या गलत है, मैं भी उनसे बढ़ चढ़कर मतदान में भाग लेने की अपील करता हूं। वो अपनी पसंद का प्रत्याशी व सरकार चुनें, यही लोकतंत्र का मूल भाव है। लेकिन यह कई बार स्पष्ट कर चुका हूं कि किसान संगठनों को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए।
पराली के संदर्भ में शीर्ष अदालत ने सरकारों को फटकार लगाने के साथ किसानों को भी कटघरे में खड़ा कर चुका है। आप क्या कहेंगे?
दिल्ली के कागजों में प्रदूषण पर किसान लिख दिया है, वो कैसे कटेगा। पंजाब में जिस पराली जलाने की बात करते हैं, वहां तो अब गेहूं बुआई हो चुकी है। एक महीना पहले धान की कटाई हो चुकी, प्रदूषण पराली में नहीं, बल्कि सरकार की व्यवस्था में है। वाहनों और औद्योगिक इकाइयों से प्रदूषण फैल रहा है। ऐसा कैसे संभव है, पंजाब और हरियाणा का धुआं दिल्ली में ही आता है। पंजाब से सटे पाकिस्तान में क्यों नहीं जाता?
पराली जलाने जैसी प्रदूषण की बड़ी समस्या से कई शहरों के आमजन परेशान हैं। किसान संगठन कभी इस समस्या के निदान के लिए सामने आते क्यों नहीं दिखते हैं?
हमने सरकार को बार-बार कहा, इसका निस्तारण किया जाए, रास्ता निकाला जाए। समस्या पराली से नहीं, बल्कि इंडस्ट्री से है, वाहनों से है। इनके संचालन को नियंत्रित कर प्रदूषण में कमी लाई जा सकती है। व्यवस्था पारदर्शी व जनहित को प्राथमिकता में रखकर बनानी चाहिए। बार बार पराली पर दोष न मढ़ा जाए। सरकार की निगरानी में विशेषज्ञ प्रदूषण फैलने की वजहों की पड़ताल करें, फिर समाधान हो।
युवा खेती से विमुख हुआ है, आगे किसान और किसान संगठन का भविष्य क्या रहेगा?
जब दिल्ली का आंदोलन हुआ, तो किसान और युवा अपनी जमीन की तरफ आया है। कोरोना काल के बाद भी लोग अपने गांवों की तरफ लौटे हैं। सरकार प्रोत्साहित करे तो कृषि क्षेत्र में भी बड़ी संभावनाएं हैं। गांवों में भी लोग अपना रोजगार कर रहे हैं।
पंजाब में धान और गेहूं की खेती से भूमिगत जल के स्तर में खतरनाक कमी और पर्यावरण पर उसके प्रभाव को लेकर आपने या आपके संगठन ने कभी चिंता नहीं जताई?
भूजल या किसी भी समस्या पर सरकार की नीति नहीं है। यदि नीति बने, तो काम हो। हमने कहा है कि पंजाब में साठी धान प्रतिबंधित है तो यूपी में भी होनी चाहिए। इस धान से अप्रैल में सर्वाधिक पानी का दोहन होता है। किसान को कोई न कोई तो बताएगा। सरकार की जिम्मेदारी है, नीति लाएं और सुधार कराएं। हम साथ देंगे, लेकिन उसके लिए कानून बनाना पड़ेगा।